दिनेश चौधरी

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का 15वां राष्ट्रीय सम्मेलन पलामू के मेदिनीनगर के शिवाजी मैदान में 15 नगाड़ों की थाप के साथ शुक्रवार 17 मार्च की शाम में शुरू हुआ। इसके पूर्व विभिन्न राज्यों से आए इप्टा के पदाधिकारी व सदस्यों ने शहर में एकता, समता, शांति, सद्भाव और भाईचारे का संदेश देते हुए रंगयात्रा के नाम से सांस्कृतिक रैली निकाली।

कैफ़ी आज़मी के सितारे उन दिनों कुछ गर्दिश में थे। उनके बारे में यह बात चल निकली थी कि जिस फ़िल्म में वे गाने लिखते हैं, वो पिट जाती है। काम नहीं मिल रहा था। एक दिन चेतन आनन्द आये। कहा कि अपनी फिल्म में आपसे गाने लिखवाने हैं। कैफ़ी साहब ने कहा कि, “पता नहीं आपको खबर है कि नहीं..इन दिनों कहा ये जा रहा है कि मैं जिसमें फ़िल्म में हाथ डालता हूँ, वह फ्लॉप हो जाती है।” चेतन आनन्द ने कहा कि “इन दिनों मैं जो फिल्में बना, वो भी फ्लॉप हो जाती है..हो सकता है दो फ्लॉप मिल कर एक हिट बन जाये।” फ़िल्म हिट हुई। यह ‘हकीकत’ थी।

हकीकतन कैफ़ी साहब महज 12 बरस की उम्र से ही अशआर कहने लगे थे। शेर कहते पर खौफ़ के मारे किसी से न कहते। एकाध बार किसी महफ़िल में बड़ों की इजाजत मिल गई। बाल कैफ़ी ने अपना कलाम सुनाया। खूब दाद मिली, वाहवाही हुई। वाहवाही यह कहते हुए मिली कि लड़के की याददाश्त अच्छी है। सबको बताते फिरना पड़ा कि कलाम खुद उनका था।

कैफ़ी साहब को मुशायरों में भी शोहरत जल्द ही मिली। जितनी दीवानगी उनके अशआर को लेकर थी, उतनी ही चर्चा उनकी खूबसूरती की भी थी। लड़कियाँ खिंची चली आती। इनमें से एक शौकत भी थीं। किसी मुशायरे के बाद औटोग्राफ लेने का ख्याल आया। आटोग्राफ लेने का बस बहाना था। जब दीगर सारी लड़कियों  ने ले लिया तब आखिर में शौकत पहुँचीं। कैफ़ी साहब ने जान-बूझकर बहुत खराब शेर लिखा। शौकत आपे से बाहर हो गईं। कहा, “लिखने को इससे कम खराब कुछ न था?’ कैफ़ी साहब ने कहा, “तुमने अली सरदार जाफरी का ऑटोग्राफ मुझसे पहले क्यों लिया?”

कैफ़ी सिर्फ शाइर न थे। क्रांतिकारी थे, मजदूर नेता थे, राजनीतिक कार्यकर्ता थे, प्रलेस और इप्टा में भी खूब सक्रिय थे। शबाना उन दिनों को बड़ी शिद्दत से याद करती हैं जब कैफ़ी साहब पार्टी के काम के लिए सब कुछ छोड़कर यहाँ-वहाँ मारे-मारे फिरते थे। एक बार ऐसे ही किसी काम से जब वे मुंबई से बाहर थे, शबाना झुग्गी-झोपड़ी वालों के लिए भूख हड़ताल पर थीं। चार दिन हो गये। तबीयत बिगड़ने लगी। शौकत आपा ने कैफ़ी साहब को खबर करते हुए कहा कि अपनी बिटिया को समझाओ। समझाना क्या था? कैफ़ी साहब ने शबाना को सन्देशा भिजवाया, ‘ बेस्ट ऑफ लक कॉमरेड!”

कैफ़ी ऐसे ही थे। कैफ़ी के और भी किस्से हैं। कैफ़ी के अनगिनत किस्से हैं। इन किस्सों की याद इसलिए आई कि 17 मार्च की शाम डाल्टनगंज, झारखंड में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन की शुरुआत से पहले कैफ़ी साहब पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग की गई। फ़िल्म से पहले इंदौर इप्टा ने नाटक “धीरेन्दु मजूमदार की माँ” का मंचन किया। नाटक की पृष्ठभूमि पूर्वी बंगाल की है पर इसे लिखा है मलयालम लेखिका ललिताम्बिका ने। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से लेकर दौरे-हाजिर तक यह नाटक मुक्ति, आजादी और पहचान के मसलों पर कुछ गम्भीर सवाल खड़े करता है। एक स्त्री के लिए मुल्क की आजादी सवाल बहुत बाद में आता है, पहले तो उसे अपने ही परिवार से मुक्त होना होता है। मुक्ति का यह संकट बड़ा है। उसे बहुत-सी सत्ताओं से मुक्त होना है; धर्मं की सत्ता, परिवार की सत्ता, पुरुष की सत्ता, समाज और मुल्क की सत्ता। वह सबके लिए लड़ती है, जूझती है। जो महिला घर की चौखट न लाँघ सकती हो; वह एक नहीं, कई शहीदों के शवों को हासिल करने के लिए फिरंगियों की पुलिस के सामने जा खड़ी होती है। साहस और गौरव के साथ। मुल्क को आजादी मिली। बहुत जद्दोजहद के बाद मिली, पर इसका रंग तब फीका हो जाता है जब धीरेन्दु मजुमदार की माँ का पता रिफ्यूजी कैम्प में ‘कैम्प नम्बर-119’ हो जाता है। धीरेन्दु की माँ की कथा के साथ इतिहास-कथा भी समानांतर चल रही है। निर्देशिका जया मेहता और उनके साथ विनीत तिवारी ने इसके लिए मल्टीमीडिया की युक्ति का सहारा लिया। केंद्रीय किंतु लम्बी भूमिका में अभिनेत्री फ्लोरा बोस ने अंत तक एक जैसी ऊर्जा बनाये रखी।

इप्टा का यह राष्ट्रीय सम्मेलन झारखण्ड के छोटे-से शहर डाल्टनगंज में हो रहा है। सम्मेलन-स्थल के बगल में कोयल सूख रही है, जबकि कल ही जमकर बारिश भी हुई। नदी का नाम ‘कोयल’ है जो बड़ा सुरीला और प्यारा है। कोयल की सुरीली कूक में आज नगाड़ों की थाप भी जुड़ गयी है। नदी के किनारे तट पर सौंदर्यीकरण का काम चल रहा है जो कि जाहिर है कि निर्माण-कार्य के बगैर पूरा नहीं हो सकता। लोग खड़े होकर सेल्फी भी ले रहे हैं। बस नदी में बहता हुआ पानी नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मुल्क की नदियों में पानी बहता रहेगा और लोगों की आँखों में ठहरा रहेगा। यह सूखने न पायें, ‘इप्टा’ की कोशिश बस इतनी ही है।

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