संगम दुबे

कोविड-19 बीमारी के असर में, दूसरे तमाम छोटे-मध्‍यम-लघु उद्योगों की तरह मध्यप्रदेश के धार जिले के ‘बाघ-प्रिन्ट्स’ के कारीगर भी संकटों का सामना कर रहे हैं। पिछले दो सालों में कपडों पर की जाने वाली इस विश्व-विख्यात छापा कला की कमाई आधी रह गई है। ‘बाघ’ रचनाकारों की मौजूदा हालातों पर संगम दुबे का यह शोधपरक लेख।

कोविड-19 के बाद से उद्योगों को आर्थिक संकट झेलना पड़ा है। इन दो सालों में कई फैक्ट्रियों के बंद हो जाने से अनगिनत लोगों का रोजगार छिन गया। वहीं अनेक लघु उद्योग बंद होने की कगार पर आ गए हैं।

सभी क्षेत्रों की तरह कपड़ा उद्योग में भी कोविड-19 का बुरा असर हुआ है। कपड़ों की बिक्री न होने की वजह से फैक्ट्रियों से बड़ी मात्रा में मजदूरों को निकाला गया है। लघु उद्योगों को अपना काम जारी रखने के लिए बैंक से कर्ज लेना पड़ा। ऐसी ही परेशानियों का सामना बाघ-प्रिंट में काम कर रहे लोग कर रहे हैं।

धार जिले में बसे इस छोटे से गाँव बाघ की हस्तशिल्प कला दुनिया भर में मशहूर है। यहां बने कपड़ों में प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है। इसलिए भी यह अन्य हस्तशिल्प कलाओं से अलग है। यहां काम करने वाले करीब एक हजार से भी अधिक हस्तशिल्पी कोविड-19 के बाद से आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे हैं। अधिकतर हस्तशिल्पियों ने कोरोना के दौरान कर्ज लिया था जिसे वे अब तक अदा कर रहे हैं।

हस्तशिल्पियों की स्थिति

बाघ-प्रिंट में काम कर रहे हस्तशिल्पी हाथों से रंगाई की कला में निपुण हैं। कोई भी सामान्य व्यक्ति बिना अनुभव के यह काम सफाई से नहीं कर सकता है। इस वजह से सरकार ने भी इन्हें ‘हस्तशिल्प कलाकार’ के रूप में चिन्हित किया है।

कोविड-19 की वजह से लगे लॉकडाउन का इन पर बुरा असर हुआ है। पिछले दो सालों में इन हस्तशिल्पियों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। पहले लॉकडाउन (2020) के दौरान ये कारीगर पूरे तीन महीने बेरोजगार बैठे रहे। उस वक्त बहुत से कारिगरों को अपने परिवार का पेट भरने के लिए कर्ज लेना पड़ा था।

बाघ-प्रिंट में मुख्य काम प्राकृतिक रंगों को लकड़ी के सांचों की सहायता से कपड़ों को रंगने का होता है। इस काम को करने वाले कारीगरों को मजदूरी प्रति मीटर कपड़े को रंगने के हिसाब से मिलती है। सामान्यतः यह मजदूरी 7-8 रुपए प्रति मीटर होती है। एक कारीगर एक दिन में 40-50 मीटर तक के कपड़ों को तैयार कर लेता है। इस तरह से एक हस्तशिल्पी एक दिन में 250-300 रुपए तक कमा लेता है।

पिछले 15 सालों से बाघ-प्रिंट में काम कर रहे बाथूसिंह बताते हैं कि देश में जब सम्पूर्ण लॉकडाउन लगा था तब तीन महीने तक उन्हें बेरोजगार रहना पड़ा था। बाथूसिंह बाघ गांव से 10 किलोमीटर दूर खारपुरा गांव से आते हैं। जब लॉकडाउन खुला था तब भी उनके लिए स्थिति सामान्य नहीं हुई थी, क्योंकि तब सरकार ने बसों के संचालन की अनुमति नहीं दी थी। इस वजह से वह कई महीनों तक काम पर नहीं लौट सके। इन दो सालों में कई बार उनके घर के सदस्यों की तबीयत खऱाब हुई। इसके लिए उन्हें मालिक से कर्जा लेना पड़ा। जिसे वह अभी तक अदा कर रहे हैं।

Bagh Print

बाथूसिंह बताते हैं कि कोविड-19 से पहले उन्हें अपने गांव से कार्यस्थल तक आने में मात्र 10 रुपए किराया देना होता था। वह अब बढ़कर 40 रुपए हो गया है। इस वजह से पहले की तुलना में उनकी बचत कम हो गयी है।

दूसरे कारीगर प्रवीण वर्मा बताते हैं कि वह इस काम को पिछले 20 सालों से कर रहे हैं। प्रवीण कहते हैं कि ‘मैंने पिछले लॉकडाउन के दौरान 40 हजार रुपए का कर्जा लिया था जो अभी तक चल रहा है। मेरी कोई खेती भी नहीं है जिस वजह से मुझे इस काम पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यदि मैं बीमार पड़ जाता हूं तो उन दिनों की कमाई शून्य होती है। यदि गलती हो जाए तो उसे खुद ही सुधारना होता है, उसका अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता।‘

मिल में काम कर रहे अधिकतर कारीगर दूसरे गांवों से आते हैं। कुछ कारीगर ऐसे गांवों से भी आते हैं जो घने जंगलों के बीच स्थित हैं। इस कारण उन्हें रोजाना काम जल्दी छोड़कर बस पकड़नी पड़ती है ताकि वे समय से घर पहुंच पाएं। कुछ कारीगरों के पास स्वयं की गाड़ी भी है, जिसकी वजह से वे कुछ अतिरिक्त काम कर पाते हैं, लेकिन पेट्रोल के दामों ने उनकी बचत को कम कर दिया है।

अफगन मेवाती पिछले 20 साल से यह काम कर रहे हैं। उन्होंने इसके अलावा कभी कोई दूसरा काम नहीं किया। अफगन कहते हैं – ‘मैं पिछले 20 सालों से यहां पर काम कर रहा हूं। मुझे एक पीस बनाने के ₹85 मिलते हैं। एक दिन में मैं चार पीस बना पाता हूं जिससे मेरी कमाई 250 रुपये से 300 रुपये तक हो जाती है।’  

अफगन मेवाती ने बताया कि उनके पास इस रोजगार के अलावा आय का दूसरा साधन नहीं है। वह पूरी तरह से इसी रोजगार पर निर्भर हैं। अफगन कहते हैं कि इन दो सालों में हमारे परिवार में किसी को कोरोना नहीं हुआ, लेकिन बीमार बहुत बार हुए हैं। इसलिए उन्हें मालिक से ₹50,000 का कर्जा लेना पड़ा। अब वह उसे धीरे-धीरे अदा कर रहे हैं।

सरकारी मदद की बात पूछने पर वो कहते हैं हमें सरकार ने हस्तशिल्प का एक कार्ड बनाकर दिया हुआ है। लेकिन उसका उपयोग क्या है ये हम नहीं जानते। वह कार्ड हमारे पास रखा हुआ है। उसकी ना हमें कभी जरूरत लगी, ना ही वह हमारे काम आया। ना ही अब तक हमें उससे सरकारी मदद मिली है।

अफगन इस बात पर भी जोर देते हैं कि बाघ-प्रिंट का भारत ही नहीं विदेशों में भी नाम है। सरकार भी इसके प्रोत्साहन के लिए तरह-तरह की कोशिशें करते रहती है, लेकिन बाघ-प्रिंट में काम करने वाले लोगों तक कोई भी सुविधाएं नहीं पहुँचतीं।

मालिकों की स्थिति

बाघ-प्रिंट का व्यवसाय कर रहे बिलाल खत्री बताते हैं कि पहले लॉकडाउन में उनका काम पूरी तरह बंद रहा। उन तीन महीनों में एक भी कपड़ा नहीं बिका। फिर कुछ स्थिति संभली तो दूसरी लहर आ गई। दूसरी लहर के दौरान काम को बंद नहीं रखा गया था, लेकिन तब काम करने वालों की संख्या में कमी आ गई। ट्रांसपोर्ट बंद थे, लोगों के मन में डर भी था। इस वजह से माल का ज्यादा उत्पादन नहीं हो पाया।

बिलाल कहते हैं कि लॉकडाउन के दौरान स्थिति खराब हो गई थी। उन्हें कच्चा माल लेने और हस्तशिल्पियों को भुगतान करने के लिए बैंक से कर्जा लेना पड़ा। उन्होंने आईसीआईसीआई बैंक से 25 लाख रुपए लिए थे।

कोविड-19 के दौरान तो दिक्कतों का सामना करना ही पड़ा है, लेकिन उसके बाद भी स्थिति पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है। मंहगाई पहले की तुलना में ज्यादा बढ़ गई है। बिलाल बताते हैं कि वे साड़ी या अन्य कपड़ों के लिए महाराष्ट्र से कच्चा कपड़ा मंगाते हैं। पहले एक कपड़ा 31.50 रुपए मीटर मिला करता था, लेकिन कोविड के बाद उसके दाम लगभग दोगुने हो गए हैं। अब वह कपड़ा 51.50 रुपए मीटर में मिलता है।

वहीं कपड़ों को रंगने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले प्राकृतिक रंगों की कीमतों में भी उछाल आया है। पहले प्राकृतिक रंग 1500 रुपये किलो मिला करते थे जिनकी अब कीमत 2500 रूपए किलो हो गयी है। बिलाल कहते हैं कि – कच्चे मालों की कीमतों में बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन जब हम हमारी साड़ी या कपड़ों की कीमतों में वृद्धि करते हैं तो हमारी बिक्री पर असर होता है। हमने कीमतें बढ़ाई हैं, लेकिन उतनी नहीं जितनी जरूरत थी। कोरोना के बाद से हमारे मुनाफे में भारी कमी आई है।

बिलाल खत्री कोरोना काल में हुए नुकसान का आंकलन करते हुए कहते हैं कि – बाघ गांव में हर साल लगभग 5 करोड़ की बिक्री होती थी, जो इन दो सालों में आधे से भी कम होकर सिर्फ 1.5 करोड़ रह गयी है। बिलाल खुद की आय का आंकलन करते हुए कहते हैं कि उन्हें इन दो सालों में 20 से 25 लाख रुपये का नुकसान हुआ है।

जाहिर है, लगभग दैनिक आय पर टिका बाघ-प्रिन्ट का यह कलात्मक काम धीरे-धीरे सिमट रहा है। सरकारी बयानों की मानें तो देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए करोड़ों रुपये दिए जा रहे हैं, लेकिन अभी भी मजदूर-कारीगरों की स्थिति सही होते नहीं दिख रही है। (सप्रेस)

यह लेख ‘सेंटर फॉर फाइनेंशियल एकॉन्टेबिलिटी’ की ‘स्मितु कोठारी फैलोशिप’ के तहत किए गए शोध पर आधारित है।

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