नीलेश दुबे

अंग्रेजों और चंद तरक्की-पसंद हिन्दुस्तानियों की पहल पर लगभग एक सदी पहले बाल-विवाह विरोधी कानून बना था, लेकिन देश के किसी राज्य में आज तक बाल-विवाह पर कोई कारगर प्रतिबंध नहीं लग पाया है।

देश के अधिकांश राज्यों में, कुछ अपवादों को छोड़कर, सभी समुदायों में विवाह संबंधों में लगभग तीन तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा बाल-विवाह का होता है। ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ सर्वेक्षण रिपोर्ट-2019-21’ के अनुसार देश में 20-24 वर्ष की 23.3 प्रतिशत महिलाओं का विवाह 18 वर्ष की आयु से कम में हुआ है। देश में इस मामले में शीर्ष स्थान पर पश्चिम बंगालहै जहाँ सबसे अधिक 41.6 प्रतिशत महिलाओं का बाल विवाह हुआ है। बिहार दूसरे, झारखंड तीसरे, राजस्थान चौथे और आन्ध्रप्रदेश पांचवें स्थान पर है।

जो उम्र कलम पकड़ने की होती है उसमे कुछ बच्चे घर-परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने की चिंताओं में डूबे रहते हैं तो बालिकाएं इस उम्र में गर्भवती होने या माँ बनने का दंश झेल रही होती हैं। हाल ही में मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले में एक चौदह वर्षीय बालिका ने इस डर से फांसी लगा ली कि दो साल पूर्व हुए उसके विवाह के बाद उसकी ससुराल वाले उसे लेने आये थे। इसी वर्ष मई में असम के कछार जिले में सत्रह साल की एक लड़की ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसके परिजनों ने उसे प्रेमी से विवाह करने से मना कर दिया था। हालांकि इन दोनों घटनाओं में विरोधाभास है। एक में सामाजिक निर्णय आत्महत्या का कारण बना है तो दूसरे में सामाजिक निर्णय को चुनौती देना कारण है।

बाल-विवाह के कारणों और निष्कर्षों पर पहुंचना बहुत जटिल है, फिर भी उस पर हुए कई शोधों के निष्कर्षों से यही निकलता है कि बाल-विवाह को प्रभावित करने वाले कारकों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहला, ‘मानव विकास संकेतकों,’ सरकारी सेवाओं और कार्यक्रमों से संबधित है जिसमें प्रतिव्यक्ति आय, शिक्षा, स्वास्थ, पोषण, सुरक्षा से जुडी हैं और दूसरा, सामाजिक मान्यताओं, रीति-रिवाज, पूर्वाग्रह आदि से। कई समुदायों, जातियों में देखा गया है कि आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से सशक्त होने के बाद भी बाल-विवाह का चलन मौजूद है। इसका सीधा समबन्ध रुढियों, मान्यताओं की समाज में गहरी पैठ और पुरुषवादी नजरिया है।

देश में ब्रिटिश-काल में ही विवाह की न्यूनतम उम्र के लिए कानून अस्तित्व में आ गया था जिसे ‘शारदा एक्ट – 1929’ के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बालिका की विवाह की न्यूनतम उम्र 14 वर्ष एवं बालक की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष तय की गई थी। उस समय इस क़ानून का बिरोध हुआ। समुदायों द्वारा अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष तथ्य रखे गए कि हमारी मान्यताओं से छेड़छाड़ न की जाए। जिस प्रकार कुछ वर्ष पूर्व मुस्लिम समुदाय के कुछ प्रतिनिधियों और संगठनों ने तीन-तलाक के मामले में अपने तर्क रखे थे। स्वतंत्रता के बाद ‘शारदा एक्ट’ में कई बदलाव हुए और वर्ष 2006 में ‘बाल-विवाह प्रतिषेध कानून’ अस्तित्व में आया। इसमें बाल-विवाह को संज्ञेय अपराध माना गया, जिसमें अधिकतम तीन वर्ष की सजा या एक लाख रूपये का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।

पिछले 17 वर्षों में देश में प्रतिवर्ष एकल अंकों में ही इस कानून के अंतर्गत बाल-विवाह के मामले पंजीकृत हुए। असम में चला अभियान अपवाद है। सभी जानते हैं कि इसके कई राजनैतिक मायने हैं। इसके बाबजूद इस कानून में और कई खामियां हैं। नए कानून के लागू होने के बाद भी ‘पर्सनल लॉ’ के अंतर्गत कोर्ट ने कई बाल-विवाह के मामलों को जायज ठहराया  है। इस कानून के अंतर्गत बाल-विवाह के बाद शून्य या ख़ारिज कराने लिए लडके अथवा लड़की में से एक को कोर्ट की शरण जाना पडता है, अर्थात यह कानून रुढियों और परम्पराओं और मान्यताओं को एक तरह से मान्यता प्रदान करता है।

मध्यप्रदेश में ‘अनिवार्य विवाह पंजीयन कानून’ बने कई बर्ष हो गए हैं, लेकिन अभी तक इसकी अधिसूचना जारी नहीं की गई है और कानून लागू नहीं हो सका है। ‘बाल-विवाह प्रतिषेध कानून – 2006’ में बाल-विवाह रोकथाम और जागरूकता पर अधिक बल दिया गया है, लेकिन तंत्र का सारा ध्यान बाल-विवाह के मामलों के संज्ञान में आने पर उसको रोकने पर रहता है, बजाय रोकथाम के। कई मामलों में बाल-विवाह रोकने वाली टीम पर ही हमला हो जाता है।  

बाल-विवाह केवल एक सामाजिक बुराई नहीं, अपितु यह देश के आर्थिक विकास को भी प्रभावित करता है। आर्थिक विकास के विश्लेषण के लिए ऐतिहासिक, संस्थागत, सामाजिक, सांस्कृतिक, जनसांख्यिकीय, राजनीतिक और पारिस्थितिक कारक बहुत महत्वपूर्ण हैं। विकास की अवधारणा अकेले आर्थिक विकास की अवधारणा से कहीं अधिक व्यापक है। विकास में स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रौद्योगिकी या जीवन-प्रत्याशा जैसे विभिन्न प्रकार के सामाजिक संकेतकों में व्यापक परिवर्तन शामिल हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक परिवर्तनों से जुड़े हैं। बाल-विवाह स्वास्थ्य, बीमारी, मृत्युदर, जीवन-प्रत्याशा और शिक्षा के स्वतंत्र पहलुओं के रूप में महत्वपूर्ण हैं। इन पहलुओं को कई आर्थिक कारक भी प्रभावित करते हैं।

सामाजिक बैज्ञानिकों द्वारा बाल-विवाह रोकथाम के लिए जितने भी मॉडल सुझाये गए हैं, उनमें बालिकाओं की शिक्षा, सुरक्षा, परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार, सामुदायिक जागरूकता और प्रचार-प्रसार शामिल हैं। सांख्यकी बिज्ञान में बहुत सी पद्धतियाँ हैं जिनका उपयोग कर सटीक निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है। उदाहरण के लिए ‘सह सम्बन्ध सांख्कीय पद्धति’ से इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि प्रति व्यक्ति आय, बालिका शिक्षा या अपराध दर कैसे और कितनी बाल-विवाह को प्रभावित करती है। स्केल पर मापें तो पाते हैं कि देश के जिन राज्यों में प्रतिव्यक्ति आय अधिक है उन राज्यों में बाल-विवाह की दर कम है। निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि से बाल-विवाह की दर को कम किया जा सकता है।

इसी प्रकार ज्यादा-से-ज्यादा स्कूल में रहने या शिक्षा जारी रखने से बाल-विवाहों की दर प्रभावित होती है। उन जिलों में जहाँ 15-49 वर्ष की महिलाओं ने कक्षा 10 या उससे ज्यादा शिक्षा प्राप्त की, उनमें बाल-विवाह की दर में नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई है। इसके विपरीत जहां कक्षा 10 या उससे कम शिक्षा प्राप्त की उन जिलों में बाल-विवाह की दर में सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई है। यहाँ शिक्षा और वाल विवाह की दर में सकारात्मक संबध है। बालिकाओं की सुरक्षा बाल-विवाह को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक है। बालिकाओं की सुरक्षा के भय से भी बाल-विवाह होते हैं। जिन जिलों में प्रति लाख अपराध अधिक हैं वहां बाल-विवाह की दर अधिक है।  

बाल-विवाह रोकथाम अथवा इसकी दर कम करने के लिए तीन प्रमुख तरीके उपयोगी होंगे। पहला, सरकारी योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन अथवा हितधारकों तक सेवाओं की पहुँच, दूसरा, सामाजिक व्यवहार परिवर्तन के लिए हस्तक्षेप और तीसरा, युवाओं, बच्चों की भागीदारी एवं प्रभावी निगरानी-तंत्र। बाल-विवाह को प्रभावित करने वाले शिक्षा, रोजगार आदि संकेतकों और इनसे जुडी योजनाओं की प्रगति की जिला एवं अनुभागवार समीक्षा की जानी चाहिए। अंतर्विभागीय समन्वय के लिए राज्य स्तर पर मुख्य सचिव, जिला स्तर पर कलेक्टर और सक्षम अधिकारी और अनुभाग स्तर पर अनुविभागीय अधिकारी की अध्यक्षता में बैठकें कर रणनीति तैयार करना चाहिए।  

शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ आदि संकेतकों में पिछड़े जिलों के अंदर ब्लाक /ग्राम /वार्ड आदि के आधार पर ‘हॉट पॉकेट’ की पहचान कर कार्यवाही आवश्यक है। युवाओं और बच्चों की भागीदारी के मंचों और प्लेटफार्म को सशक्त करना चाहिए, जहाँ वे शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार आदि मुद्दों पर बात रख सकें। बालिकाओं की सेकंड्री स्तर पर शिक्षा प्रोत्साहन परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार, बालिकाओं की सुरक्षा परोक्ष रूप से बाल-विवाह की दर में कमी लाते हैं। बाल-विवाह न केवल स्वास्थ सम्बंधित संकेतकों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है, बल्कि लम्बे समय में आर्थिक संकेतकों को भी कमजोर करता है। (सप्रेस)

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