राजकुमार सिन्हा

आधुनिक विकास को विनाश में तब्दील होते देखना हो तो देश के ठीक बीच से प्रवाहित नर्मदा नदी के साथ किया जाने वाला दुर्व्यवहार देख लेना चाहिए। यह जानना सचमुच बेहद दुखदायी है कि कोई सत्ता और समाज कैसे अपनी सदानीरा, पुण्‍यसलिला, जीवन-दायिनी कहलाने वाली नदी को अपनी हवस के चलते ताबडतोड समाप्त करता है।

वन विभाग के 2020-21 के वार्षिक प्रतिवेदन के अनुसार मध्यप्रदेश में 1980 से 2020 तक 1163 विकास परियोजनाओं के लिए 2,84,131 हेक्टेयर वनभूमि को गैर-वनीकरण कार्य के लिए परिवर्तित किया गया है। इसमें से 279 सिंचाई परियोजनाओं के लिए 83,842 हेक्टेयर वनभूमि का इस्तेमाल हुआ है। सिंचाई परियोजनाओं से नर्मदा घाटी की सरदार सरोवर, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर और बरगी बांध में 63,810 हेक्टेयर वनभूमि डूब में आई है, जबकि नर्मदा घाटी की ही तवा, बारना, कोलार, सुक्ता, मटियारी बांध परियोजनाओं में डूबने वाली वनभूमि का अधिकारिक आंकङा उपलब्ध नहीं है।

मध्यप्रदेश की प्रस्तावित ‘केन-बेतवा नदी-जोङ परियोजना’ के कारण 6 हजार हेक्टेयर वनभूमि में से 21 लाख पेङ काटे जाना हैं। अशोकनगर के लोअर-ओर बांध में 968 हेक्टेयर वनभूमि की 70 हजार पेङ काटे जाएंगे। नर्मदा घाटी में प्रस्तावित मोरंड- गुंजाल बांध (हरदा-होशंगाबाद) में 2371 हेक्टेयर और बसनिया बांध (मंडला – डिंडोरी) में 2107 हेक्टेयर वनभूमि का घना जंगल डूब में आएगा। उक्त दोनों बांध आदिवासी इलाके में आता हैं।

जलसंसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार नर्मदा बेसिन का 32.88 फीसदी क्षेत्र वनों से ढंका  है, जबकि वास्तविकता यह है कि विगत कई वर्षो से नर्मदा बेसिन में जंगलों की अंधाधुंध कटाई हुई है। ‘वन स्थिति रिपोर्ट – 1991’ के मुताबिक मध्यप्रदेश के नर्मदा बेसिन के जिलों में वन आवरण कुल 52,283 वर्ग किलोमीटर था, जबकि 2019 की ‘वन स्थिति रिपोर्ट’ के अनुसार 48,188 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इसका मतलब है कि बीते 30 सालों में 4095 वर्ग किलोमीटर अर्थात चार लाख नौ हजार 500 हेक्टेयर वन आवरण कम हुआ है। इसे नर्मदा बेसिन के जिला मंडला के उदाहरण से समझा जा सकता है। वन विभाग के प्रतिवेदन के अनुसार 2015 में मंडला का कुल वन आवरण 2835 वर्ग किलोमीटर था, जो 2019 में घटकर 2577 वर्ग किलोमीटर हो गया है। यानि बीते चार सालों में 258 वर्ग किलोमीटर अर्थात 25,800 हेक्टेयर वन आवरण कम हो गया।

यह तथ्य नर्मदा बेसिन में जल संकट की ओर इशारा करता है। ‘जल संसाधन मंत्रालय’ की ‘वाटर ईयर बुक – 2014-15’ के मुताबिक नर्मदा बेसिन के जिलों में 1901-1950 के दौरान औसत वार्षिक वर्षा की तुलना 2006 – 2010 के बीच करने पर पता चलता है कि नर्मदा के उद्गम वाले जिले शहडोल में औसत वार्षिक वर्षा 1397 मिलीमीटर से घटकर 916 मिलीमीटर रह गई है। अपर नर्मदा के मंडला जिले में भी औसत वार्षिक वर्षा 1557 मिलीमीटर से घटकर 1253 मिलीमीटर रह गई है। बेसिन के अधिकांश जिलों की यही स्थिति है।

नर्मदा की कुल 41 सहायक नदियां है जो सतपुडा, विन्ध्य और मेकल पर्वतों से बूंद-बूंद पानी लाकर नर्मदा को सदानीरा बनाती हैं, लेकिन इनमें से कई नदियां सूखने की कगार पर हैं। ‘केंद्रीय जल आयोग’ के गरूडेश्वर स्टेशन से जुटाए गए वार्षिक जल आंकडों के अनुसार 2004-05 और 2014-15 के बीच नर्मदा के प्रवाह में 37 प्रतिशत की कमी आई है। वर्ष 1975 की गणना के अनुसार नर्मदा नदी में बहने वाले पानी की उपलब्धता 28 मिलियन एकङ फीट (एमएएफ) थी। ‘नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण’ ने 1980-81 से प्रतिवर्ष नर्मदा कछार में उपलब्ध जल की मात्रा को रिकार्ड किया है जिससे पता चलता है कि नर्मदा कछार में उपलब्ध जल की मात्रा घटती- बढती रहती है। वर्ष 2010 -2011 में नर्मदा कछार में 22.11 एमएएफ जल उपलब्ध था। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की अप्रेल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में नर्मदा नदी की जल उपलब्धता 14.66 एमएएफ थी।

नर्मदा घाटी में बाक्साइट जैसे खनिजों की मौजूदगी भी नर्मदा के लिए संकट की वज़ह बनी है। नर्मदा के उदगम वाले क्षेत्रों में 1975 में बाक्साइट का खनन शुरू हुआ था जिसके कारण वनों की अंधाधुंध कटाई हुईं। जहां निजी क्षेत्र की ‘बालको कम्पनी’ ने 920 हैक्टर क्षेत्र में खुदाई कर डाली, वहीं सार्वजनिक क्षेत्र की ‘हिंडालको’ ने 106 एकड़ क्षेत्र में खनन किया था। अब खनन कार्य पर रोक लगा दी गई है, परन्तु अब तक पर्यावरण को काफी क्षति पहुंच चुकी है। दिसंबर 2016 में डिंडोरी जिले में बाक्साइट के बङे भंडार का पता चला था। इसका पता लगते ही ‘भौमिकी एवं खन-कर्म विभाग’ सक्रिय हो गया, परन्तु विरोध एवं सरकार के हस्तक्षेप के कारण अभी यह लंबित है।

अपर नर्मदा बेसिन के डिंडोरी और मंडला जिलों में वनस्पति और जानवरों के जीवाश्म बहुतायत से पाये जाते हैं। रेत खनन जैसे मौजूदा हमले नर्मदा बेसिन को खोखला बना रहे हैं। ‘बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल’ के ‘सरोवर विज्ञान विभाग’ ने नर्मदा के तटीय क्षेत्रों पर किए गए अध्ययन में बताया है कि जो क्षेत्र कभी 500 से 1000 मीटर तक हुआ करते थे, वे अब सिमटकर बिलकुल किनारे तक आ गए हैं।

सौंदर्य की नदी नर्मदा में जितना भी सौंदर्य बचा है, वह यात्रा वृत्तांत के पन्नों भर में सिमटने वाला है। नर्मदा नदी के किनारे प्रस्तावित 18 थर्मल एवं परमाणु बिजली परियोजनाओं की स्थापित क्षमता 25 हजार 260 मेगावाट है। 22 हजार 460 मेगावाट के थर्मल पावर प्लांट में से झाबुआ, घंसौर (सिवनी), बीएलए, गाडरवारा (नरसिंहपुर), एनटीपीसी, गाडरवारा (नरसिंहपुर), सिंगाजी(खंडवा) और एनटीपीसी (खरगोन) के छह हजार 900 मेगावाट क्षमता वाले थर्मल पावर प्लांट शुरू हो चुके हैं।

एक मेगावाट बिजली बनाने हेतु प्रति घंटा लगभग तीन हजार 238 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। प्रस्तावित थर्मल बिजली परियोजना लगने पर नर्मदा से प्रति घंटा सात करोड़ 27 लाख 25 हजार 480 लीटर पानी निकाला जाएगा। एक मेगावाट बिजली उत्पादन करने के लिये 0.7 टन कोयला के हिसाब से 15 हजार 722 टन कोयला प्रति घंटा जलेगा और छह हजार 289 टन राख प्रति घंटा निकलेगी जिसका निपटारा करना सरल नहीं होगा। सारणी के ‘सतपुड़ा थर्मल पावर प्लांट’ के अनुभव से पता चलता है कि इससे निकलने वाली राखङ तवा नदी में बहाने से पानी दूधिया हो जाता है और मछलियाँ मर जाती हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि नदी में नहाने से चमड़ी बहुत जलती है और त्वचा तथा फेफड़ों से जुड़ी कई तरह की बीमारियां हो जाती हैं।

बरगी बांध के विस्थापित गांव चुटका में प्रस्तावित 2 हजार 800 मेगावाट की परमाणु उर्जा  परियोजना की अलग ही कहानी है। चुटका परियोजना में भारी मात्रा में, लगभग 3 हजार 400 डिग्री सेंटीग्रेड गर्मी पैदा होगी जिसे ठंडा करने के लिए 7 करोड़ 88 लाख 40 हजार घन मीटर पानी प्रति वर्ष लगेगा। यह पानी काफ़ी मात्रा में भाप बनकर उड जाएगा तथा जो पानी बचेगा वो विकिरण युक्त होकर नर्मदा नदी को प्रदूषित करेगा। विकिरण युक्त इस जल का दुष्प्रभाव जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, बडवानी, अंकलेश्वर सहित नदी किनारे बसे अनेक शहरों और ग्रामों पर पङेगा, क्योंकि वहां की जलापूर्ति नर्मदा नदी से होता है।

रेडियो धर्मी पानी से जलाशय की मछलियाँ और वनस्पति प्रदूषित होंगी तथा उन्हें खाने वाले लोगों को कैंसर, विकलांगता और अन्य बीमारियों का खतरा रहेगा। जैसे-जैसे बिजली परियोजना का जाल फैलेगा उनके पीछे-पीछे उनसे भी घना उद्योगों का जाल फैलेगा। अतः नर्मदा विकास के तीन दशक पहले खींचे गए खाके के समाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय नफे-नुकसान का आंकलन करना जरूरी है। बङे बांधों की श्रृखंला निर्मित होने से नर्मदा के बदलते स्वरूप और पर्यावरण में आ रहे बङे बदलावों को ध्यान में रखते हुए इस बात की आवश्यकता है कि उठाये जा सकने योग्य कदम अविलम्ब उठाए जाएं। इसे टालना आत्मघाती सिद्ध होगा। (सप्रेस)

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