डॉ. पराग महाजन

पढे-लिखे आधुनिक समाज में जंगल को बर्बरता, असभ्यता और पिछडेपन का ऐसा प्रतीक माना जाता है जिसमें ‘सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट’ यानि ‘सक्षम की सत्ता’ ही एकमात्र जीवन-मंत्र है, लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है? जंगल को जानने-समझने वाले इसके ठीक विपरीत बात कहते हैं।

भाषा, संस्कृति, जाति, धर्म और शासन को ठुकराकर यदि स्वतंत्रता देखनी हो तो वह केवल जंगल forest में दिखाई देती है। जो दुर्बल हैं, जगने लायक नहीं हैं उसे जीने के लिए संघर्ष करते-करते मरना पड़ता है और जो सशक्त हैं, जीने लायक हैं उनका जीवन भरा-पूरा है। इन दो ही तत्वों पर चलने वाले झाड़-झंखाड़, वन्यजीव और अन्य प्राणियों के साम्राज्य को जंगलराज कहते हैं। यहां कमजोर प्राणी दिखा कि बलवान प्राणी उसे मार डालता है, यह भ्रम है।

जंगल के प्राणी को भूख लगने पर ही वह शिकार करता है। यह हिंसा नहीं है, हमें समझना चाहिए। जब भूखा प्राणी अपना शिकार खोजता है तो कमजोर उसकी पकड़ में न आए, इसलिए विभिन्न तरह की आवाज करके सूचना देने वाले बंदर ऊँची डगाल पर बैठकर यह काम तो करते ही हैं, झाड़ की पत्तियां नीचे गिराकर हिरनों को खाना भी खिलाते हैं। प्राणी, पक्षी, वृक्ष, कीटक एक समूह में एक दूसरे की मदद करते रहते हैं। अपने स्वार्थ हेतु प्रकृति के नियमों के विरूद्ध कभी नहीं जाते।  

‘जंगल का कानून नहीं चलेगा’ या ‘क्या जंगली आदमी है’ – कहकर हम भले ही जंगलराज की खिल्ली उड़ाएं, मगर जंगल की प्रकृति Nature के कायदे से चलने वाली सुंदर व्यवस्था हमारे मानव समाज में देखने को नहीं मिलती। मजे की बात यह है कि बगैर किसी सरकारी नियम-बंधन, पुलिस-व्यवस्था और कोर्ट-कचहरी के लाखों सालों से यह जंगल राज अबाधित चल रहा है।

मेरे साथ जंगल में आने वालों के मन में भय रहता है कि क्या हम यहां सुरक्षित रह सकते हैं? किसी जंगली जानवर ने हम पर आक्रमण किया तो? उस पर मेरा एक ही उत्तर रहता है कि भारत के किसी भी शहर की बजाए जंगल के रास्ते ज्यादा सुरक्षित रहते हैं। मेरा यह दावा पिछले पचास सालों के जंगल भ्रमण पर आधारित है। जंगली जानवर शब्द को ही मैं गैर मानता हूं। मजे-मजे में पक्षी या शेर या हिरन का शिकार करने वाले हम शहरी लोग हैं। यह जंगल में होता तो हाथी चलते-चलते कई निर्बल प्राणियों को कुचल देता या शेर अपने पंजों से किसी को मार देता।

वास्तव में जंगल का राजा नाम की कोई चीज है ही नहीं। वहां सिंह या शेर को कोई विशेष दर्जा नहीं होता। जंगल में चूहे को अपना भोजन खोजने में जितना श्रम लगता है उससे कई गुना ज्यादा श्रम शेर या सिंह को लगता है। वह राजा है इसलिए कोई उसे भोजन लाकर नहीं देता। विशेषज्ञ कहते हैं कि शेर जब दस बार अपने शिकार को खोजने की कोशिश करता है, तो केवल एक ही बार सफल होता है। कभी-कभी तो उसकी कोशिशें दुगनी, बीस बार भी होती हैं।

देखा जाए तो हमारे जीवन में स्पर्धा रहती ही है, खासकर जंगल में। फिर वह स्पर्धा भोजन के लिए हो, जगह के लिए हो, प्रजनन के लिए साथी की हो या पीने के पानी या सूर्य प्रकाश मिलने के लिए। इसके लिए हर प्राणी को सशक्त रहना पड़ता है और उसके लिए हर प्राणी तंदुरूस्त रहने की कोशिश करता है। मोटा हिरन या बंदर शायद ही किसी ने देखा हो। मादा के लिए दो नरों का संघर्ष भी दिखता है, मगर जो जीत जाता है मादा उसे ही पसंद करती है क्योंकि उसकी अगली पीढ़ी तंदुरूस्त होना चाहिए। शायद हमारे यहां ‘स्वयंवर पद्धति’ इसी कारण प्रारंभ हुई होगी।

वन्य-प्राणियों के अलावा ये स्पर्धा वनस्पतियों में भी होती है। वह खासक जगह मिलने, सूर्य के प्रकाश और जल प्राप्ति के लिए होती है। हर वृक्ष ऊँचा होने के लिए सूर्य के प्रकाश के लिए स्पर्धा करता है। कुछ वनस्पतियां उसके लिए संघर्ष भी करती हैं जिसे ‘स्ट्रगलर फिग’ कहते हैं, जैसे – बड़, पीपल या गूलर का पेड़। इन वृक्षों के बीज पक्षियों के मल से किसी भी वृक्ष के पत्तों पर या घर की दीवार पर (जहां दरार या छेद हो) गिरते हैं और वहीं पर उनका अंकुरण भी होता है। वह इतनी तेजी से होता है कि मूल वृक्ष के चारों ओर लिपटता जाता है।

जंगल में मैंने देखा है कि भरपेट भोजन किये हुए और सोए हुए शेर के पास हिरन आसानी से निकल जाता है, इसे मारो ऐसा मैंने कभी देखा नहीं। दो प्राणियों या वनस्पतियों के बीच संघर्ष होता ही है, ऐसा नहीं है। एक-दूसरे की मदद करते हुए भी वे दिख जाएंगे। गाय की पीठ पर बैठकर गोचिडी खाने वाले पक्षी भी मैंने देखे हैं। उसी तरह मसालों में शैवाल और फफूंद भी एक-दूसरे की मदद से बढ़ते हैं।

वन्य-प्राणियों में बाल संगोपन और पिल्लों की प्राथमिक शिक्षण व्यवस्था भी रहती है। स्तन्य प्राणियों में यह जिम्मेदारी मादा लेती है, तो पक्षियों में ये काम नर और मादा दोनों करते हैं। मुर्गी के पिल्लों पर यदि कुत्ता झपटता है तो मुर्गी उस पर आक्रमण कर देती है। यह शेर, सिंह या अन्य प्राणियों में भी देखा गया है, लेकिन वही पिल्ले थोड़े बड़े हुए तो मादा उसे स्वयं के बल पर चलने के लिए बाध्य करती है।

जंगल में आपको कहीं भी कचरा नहीं दिखेगा और अगर होगा भी तो उसके विघटन की व्यवस्था भी वहां उपलब्ध रहती है। जैसे तेंदुए ने यदि हिरन को मारा है तो हिरन को बची हुई हड्डियां, चमड़ा और बाल खाने के पहले लकड़बघ्घा आकर बची हुई चमड़ी खाता है, बचा हुआ मांस गिद्ध खाते हैं। फिर भी यदि कुछ बच गया तो फफूंद और मिट्टी के सूक्ष्म जीवाणु उसे खा जाते हैं। इस प्रकार वह परिसर तो साफ होता ही है, मिट्टी भी उपजाऊ हो जाती है जो वनस्पति और अन्य प्राणियों को जन्म देती है।

दरअसल जंगल की ये स्पर्धा सकारात्मक है, बाल सांगोपन आदर्श हैं। कहीं भी ऊंच-नीच और भेदभाव नहीं है। प्रदूषण और कचरे की समस्या नहीं है। हिंसा नहीं है, लालच नहीं है। बिना वजह की सहूलियत नहीं है। प्रकृति के कायदों का बारीकी से पालन और अनुशासन है, मजे-मजे में दंगामस्ती करने वाले, आपस में खेलने वाले पिल्ले हैं। और उनका पालन करने वाले पालक भी हैं। ऐसे जंगल को आदर्श परिसंस्था कहना उचित होगा। हमारे सभ्य कहे जाने वाले समाज में हिंसा, अराजकता, भ्रष्टाचार, एक दूसरे की लूट-खसोट करने की वृत्ति, लालच, सत्ता-संघर्ष और प्रकृति से छेड़छाड़ करने की लालसा देखते हुए यहां अगर हमने जंगल राज लागू नहीं किया, तो हमारा विनाश निश्चित है। (सप्रेस) (अनुवाद- अरूण डिके)

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