1 से 7 जून 2023 तक नदी बचाओ- पर्यावरण बचाओ संघर्ष सप्ताह का आह्वान

नदियों पर अनुसंधान के लिए एक संस्थान बनाने की मांग

भोपाल, 30 मई । जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम) ने मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में 1-2 अप्रैल, 2023 को सम्‍पन्‍न हुए राष्ट्रीय जल-जंगल-जमीन और ‘विकास’ सम्मेलन में पारित प्रस्ताव अनुसार 1 से 7 जून, नदी बचाओ, पर्यावरण बचाओ संघर्ष सप्ताह के रूप में मनाया जाएगा।

राष्ट्रीय नदी घाटी मंच (जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय) व बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े राज कुमार सिन्हा ने कहा कि विनाशकारी “विकास”,  कार्पोरेट लूट और दमन के खिलाफ नदियों, जल स्रोतों, प्राकृतिक संसाधनों और अपने अधिकारों के संघर्षरत समुदायों की आवाज को मिलकर एक साथ उठाना समय की मांग है। हमारे देश में भी, त्रुटिपूर्ण ‘विकास मॉडल’ के परिणामस्वरूप, विनाशकारी नीतियों और महाकाय परियोजनाओं ने लंबे से नदी घाटियों व पर्यावरण को रौंदते हुए, लोगों को उनकी भूमि, आवास और संस्कृतियों से विस्थापित किया है, जो आज भी चल रहा है। सबसे बुरा प्रभाव आदिवासियों व मूलवासियों, दलितों, छोटे, सीमांत किसानों, भूमिहीन लोगों, मछुआरों, महिलाओं और सामाजिक रूप से वंचित वर्गों पर पड़ता है।

उन्‍होंने कहा कि देश के जनप्रतिनिधियों को पत्र लिखकर आह्वान किया है कि प्राकृतिक संसाधन जीवन का आधार होता है, जिससे भोजन, आवास, प्राणवायु, पानी जैसी जरुरतों का पूर्ति होता है। हम चाहते हैं कि इसका अंधाधुंध दोहन न हो। अवैध रेत खनन जल चक्र तोड़ कर नदी के जल प्रवाह में बड़ी गिरावट लाता है। बहती हुई नदी में शहरों की गंदगी, नदी किनारे के खेतों में उपयोग किए जाने वाले रसायनिक खाद एवं कीटनाशक और औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थ मिलने से पानी पीने लायक शुद्ध या निर्मल नहीं रहा है।

उन्‍होंने मांग की कि संविधान के अनुच्छेद 48,51 तथा विविध पर्यावरणीय कानून और समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिये गए आदेशों का संपूर्ण पालन हो। जरूरी है “विकास ” की अवधारणा बदलने और चुनौती स्वीकार करने का है। विकेंद्रित जल एवं उर्जा नियोजन के साथ बड़े बांधों का विनाश टालने के लिए छोटे तालाब, बांध आदि से जल ग्रहण क्षेत्र का विकास हो। चुने हुए जनप्रतिनिधि के नाते आपके क्षेत्र, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उठाए जा रहे जल जंगल, जमीन और विकास के उपरोक्त मुद्दों पर जनता का प्रतिनिधित्व करें।

श्री सिन्‍हा ने कहा कि भयावहता का अंदाजा केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के इस आकलन से लगाया जा सकता है कि देश की 450 में से 350 नदियां प्रदूषित है। 10 साल पहले 121 ही प्रदूषित नदियां थी। करोड़ों रुपए नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर खर्च हो चुके हैं, लेकिन अभी तक कोई भी सरकार यह दावा करने में समर्थ नहीं हो पाई है कि उसने अपने यहां से बहने वाली नदियों प्रदूषण मुक्त कर दिया है।

उन्‍होंने सुझाव देते हुए कहा कि नदियों का प्रशासकीय प्रबंधन की जगह पर्यावरणीय प्रबंधन की दृष्टि से निगरानी तंत्र विकसित करना चाहिए। जिसमें पारिस्थितिकीय तंत्र, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की समझ रखने वाले विशेषज्ञ को शामिल किया जाना आवश्यक है।

दूसरा, नदी किनारे के गांव में शत-प्रतिशत जैविक खेती करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाए। 

तीसरा, नदी को प्रदूषित करने वाले कल कारखाना, हास्पिटल, गैराज आदि पर टैक्स लगाया जाए। उस राशि को नदी में मिलने वाली प्रदूषित पानी को ट्रीटमेंट प्लांट में खर्च किया जाए। 

चौथा, स्थानीय समुदाय ही नदी को अवैध खनन से बचा सकता है इसलिए निगरानी के लिए बनने वाली समितियों में स्थानीय लोगों को अनिवार्य तौर पर शामिल करना चाहिए। 

पांचवां, रेत की तुलना में प्रमुख खनिज के तौर सूचीबद्ध कोयले के लिए पर्यावरणीय अनुमति सख्त है। माइन्स एंड मिनरल रेगुलेशन एक्ट 1957 में प्रमुख और उपखनिज को परिभाषित किया है। 1957 से अब तक स्थिति बदल चुकी है और रेत का इस्तेमाल की गुणा बढ़ गया है। रेत को भी प्रमुख खनिज में शामिल कर सख्त पर्यावरणीय अनुमति का प्रावधान किया जाए। 

छटा, वर्ष 1985 में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय बनने के 37 वर्षो बाद भी नदियों पर अनुसंधान के लिए एक संस्थान तक तैयार नहीं किया है इसलिए नदियों पर अनुसंधान के लिए एक संस्थान बनाया जाए। 

पर्यावरण, प्रकृति-आधारित व श्रमिक समुदायों के जल, जंगल, जमीन, जीवन और आजीविका की रक्षा के लिए संघर्षों को जारी रखते हुएराज्य दमन और सामाजिक असमानताओं को चुनौती देते हुए फिर से आमजन को एकजुट होने हेतु आव्‍हान करते हैं। 

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