सुरेश भाई

नदियों में लगातार बढ़ती गाद नदियों के अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही है। पिछले 60 वर्षों में नदियों में निरन्तर घट रही जल राशि के कारण कई नदियां सूख रही है। गंगा नदी की अविरलता में अब तक केवल बांध और बैराजों को सबसे अधिक बाधक माना जाता रहा है। लेकिन गाद का जमना एक ओर आयाम जुड़ गया है। अंधाधुंध वन कटान सड़कों का चैड़ीकरण और बदलते मौसम के कारण लाखों टन मलबा हर रोज नदियों में गिर रहा है।

मई के तीसरे सप्ताह में बिहार सरकार ने इण्डिया इन्टरनेशनल सेंटर, नईदिल्ली में गंगा की अविरलता में बाधक गाद के विषय पर आयोजित सेमिनार में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दे दिया है। अब तक केवल गंगा की अविरलता में बांध और बैराजों को सबसे अधिक बाधक माना जाता रहा है। किसी सरकारी विभाग के स्तर पर बिहार सरकार की यह पहल इसलिये नई है कि उन्होंने अपने हर बैनर में लिखा है कि ’गंगा की अविरलता के बिना निर्मलता नहीं हो सकती है।’ विभिन्न प्रस्तुतिकरण के आधार पर बांधों और बैराजों की उपयोगिता पर प्रश्न खड़ा कर दिया गया है। यह प्रयास उद्गम में भी गंगा की अविरलता पर खतरे के बादल से बचाया जा सकता है। यह स्वीकार किया गया है कि लगातार बढ़ रही गाद के कारण नदियों की गहराई अब आधी से भी कम हो गई है। वैसे पिछले 60 वर्षों में नदियों में निरन्तर घट रही जल राशि के कारण भी कई नदियां सूख रही है या नाले के रूप में परिवर्तित हो गई है। 

बक्सर से लेकर फरक्का बैराज तक गंगा में गाद के पहाड़ उगने लग गये हैं, जिस पर मुख्यमंत्री नितीश कुमार का कहना है कि बिहार में तटों पर निवास करने वाले लोग प्रतिवर्ष अपना नया घर तलाशने लग जाते हैं। वैसे नदियों में गाद भरना कोई नई बात नहीं है। बिहार में मिलने वाली गंडक, सोन, घाघरा, कोसी आदि नदियों के उद्गम भी हिमालय से है, जहां सभी नदियों के सिरहाने बाढ़ और भूकम्प के लिहाज से भूगर्भवेत्ताओं ने जोन 4 और 5 में रखे हैं, जो कई वर्षों से आपदाओं का घर बन चुकी है। इसको ध्यान में रखकर के पुराने तकनीकी के आधार पर बनाया गया फरक्का बैराज अब पुनर्विचार का मुद्दा बनता जा रहा है।

40-50 वर्षं पहले हिमालय से बाढ़ के साथ बहने वाली मिट्टी बिहार और उत्तरप्रदेश के किसानों की खेती को उपजाऊ बना देती थी। जिस वर्ष खेतों तक बाढ़ का पानी पहुंचता था उससे अच्छी पैदावार की आस बन जाती थी। अब अकेले बिहार में सन् 2012-16 तक 1053 करोड़ रूपये नदियों के किनारों से गाद हटाने पर ही खर्च हो रहा है। उत्तराखण्ड में भी नदियों पर एकत्रित गाद ने ही सन् 2013 में केदारनाथ आपदा को जन्म दिया है, जिस पर केन्द्र सरकार को 14 हजार करोड़ रूपये खर्च करने पड़ रहे हैं। इस तरह बाढ़ को लेकर बड़ा बजट हर वर्ष खर्च हो रहा है किन्तु गाद को कभी बाढ़ के समाधान से जोड़कर नहीं सोचा जाता है। फरक्का बैराज के डिजाइन में भी गाद के समाधान की अनदेखी हुई है। जिसके फलस्वरूप दिनों-दिन स्थिति इतनी बुरी हो रही है कि गंगा अपने वास्तविक घाटांे से 2 किमी दूर चली गई है।

सन् 1975 में कोलकाता बंदरगाह को बचाने के लिये फरक्का बैराज बनाया गया था। अब इसमें फरक्का से पटना के बीच लगभग 400 किमी में इतना गाद भर गया है कि बैराज के फाटक तो बंद हो ही गये, साथ ही इसमें आबादी वाले इलाके तबाह हो रहे हैं। इसका कारण है कि बैराज के निर्माण के दौरान हिमालयी नदियों से आ रहे गाद का मूल्यांकन नहीं हुआ। बैराज के निचले हिस्से में भी पश्चिम बंगाल के मालदा और मुर्शिदाबाद के इलाकों में बाढ़ का कहर इतना बढ़ गया है कि प्रतिवर्ष कई लोग अपने घर और खेती-किसानी को गंवा कर सड़कों पर भीख मांग रहे हैं। फरक्का बैराज बनाने से पहले कोलकाता बंदरगाह पर 6 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद थी, जो अब 21 मिलियन क्यूबिक मीटर हो गई है। सन् 1960 तक 2 मिलियन टन गाद प्रतिवर्ष बंगलादेश जाती थी, अब यह इसके आधे के बराबर भी नहीं पहुंच पा रही है। अत; इस खुली बहस के साथ हिमालय की नदियों में रुक रही गाद के दुष्परिणामों को भी उजागर करना चाहिये। इसके बावजूद भी सच्चाई यह है कि इलाहाबाद से हल्दिया तक प्रस्तावित जल मार्ग के लिये 16 बैराज बनाने की महत्वाकांक्षी योजना है। यदि यह जमीन पर उतरी तो गंगा की अविरलता कहीं भी शेष नहीं बचेगी।

गंगा के उद्गम स्थल उत्तराखण्ड की ओर देखें तो यहां की सभी नदियों में हर वर्ष बाढ़ के कारण अपार जन धन की हानि हो रही है। यहां अंधाधुंध वन कटान सड़कों का चैड़ीकरण और बदलते मौसम के कारण लाखों टन मलबा हर रोज नदियों में गिर रहा है, जो सीधे मैदानी क्षेत्रों में बहकर जा रहा है। भागीरथी पर टिहरी, मनेरी और अलकनंदा पर श्रीनगर, विष्णुप्रयाग जैसे बड़े बांधों के अलावा यमुना पर बने बैराजों और झीलों में असीमित गाद जमा हो रही है। जिससे निपटने के लिये कोई योजना नहीं है। सन् 2008 में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ गांगोत्री और उत्तरकाशी के बीच गंगा के अविरल बहाव के नाम पर ही 800 करोड़ खर्च होने के बावजूद भी लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना (600 मेवा) को बंद दिया गया था, और इसके 100 कि.मी. क्षेत्र को इको सेंसेटिव झोन बनाकर यहां के प्रभावित गांव के साथ इको फ्रेंडली विकास का मॉडल प्रस्तुत किया गया है।

विशेषज्ञों की राय है कि उत्तरप्रदेश में कन्नौज व वाराणसी के बीच गंगा में गंदगी के ढेरों से निपटने के लिये घाटों का निर्माण जरूरी है। लेकिन इससे भी कहीं अधिक आवश्यकता है कि गंगा की धारा को अविरल बहाव का मार्ग मिलना चाहिये। अतः ऐसी सभी बाधाओं से मुक्त किया जाए जहां अविरल धारा को रोका गया है। हिमालय से लेकर केरल तक नदियों में बांध और बैराजों की संख्या लगभग 130 है।

नदियों का मूल धर्म मीठे जल के साथ गाद को समुद्र तक पहुंचाना है। इसके कारण समुद्री जल का खारापन नियंत्रित होता है। समुद्र के किनारों पर उपजाऊ डेल्टाओं को बनाती है और भूजल और मिट्टी के निर्माण में योगदान देती है। इसलिये संवेदनशील नये हिमालय की स्थिरता और यहां से आ रही नदियों की अविरलता सुनिश्चित करना राज्यों का काम है। गंगा जल को विशिष्‍ट गुण देने वाला वैक्टीरियोफॉज भी कमजोर पड़ गया है। बताया जा रहा है टिहरी में जल जमाव के कारण केवल 10 प्रतिशत वैक्टीरियोफॉज ही समुद्र तक पहुंच रहा है। अविरलता में आई इन बाधाओं को दूर करने के लिये राज्यों को बिहार की तरह अपने हकों की आवाज उठानी पड़ेगी। (सप्रेस)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें