सुदर्शन सोलंकी

गंदे,‘अन-हाइजिनिक’,अस्वास्थ्यकर पुराने कपड़ों,पत्तों आदि से पीढियों से निपटाए जाते मासिक-धर्म को पिछले कुछ सालों से सैनिटरी पैड्स की स्वच्छता नसीब हुई थी, लेकिन दिन-दूनी, रात-चौगुनी आकार में बढ़ता इनका उपयोग कोई और संकट तो खड़ा नहीं कर रहा? एक तरफ बेहद मंहगे और दूसरी तरफ, 80-90 प्रतिशत सिंथेटिक सामग्री और प्लॉस्टिक से बने सैनिटरी पैड्स अब सवालों के घेरे में आने लगे हैं। क्या इनका कोई बेहतर विकल्प खोजा जा सकता है?

अब तक महिलाओं के ‘मासिक-धर्म’ या ‘पीरियड्स’ के दौरान सैनिटरी पैड्स के उपयोग को सर्वाधिक स्वच्छ माना जाता रहा है व नियमित अंतराल पर इसे बदलने की सलाह दी जाती है, किन्तु उपयोग के बाद इसका सही निपटान कैसे हो, उसके बारे में भारत में कोई ठोस योजना नहीं है। दूसरी ओर,  महिलाओं की मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियों व अंधविश्वास के कारण सैनिटरी पैड का सुरक्षित तरीके निपटारा होना भी एक बड़ी चुनौती है।

महिलाओं में होने वाला मासिक-चक्र एक शारीरिक प्रक्रिया है जिसमें दस से 14 वर्ष की लड़की के अंडाशय हर महीने एक विकसित डिंब उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं। वह अंडा फैलोपियन ट्यूब के द्वारा नीचे जाता है जो अंडाशय को गर्भाशय से जोड़ती है। जब अंडा गर्भाशय में पहुंचता है तो वह रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है और योनिमार्ग से बाहर निकल आता है। इसी स्राव को ‘मासिक-धर्म’ या ‘पीरियड्स’ या ‘माहवारी’ कहते हैं। यह चक्र हर महीने चलता रहता है।

एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में क़रीब 35.5 करोड़ महिलाएं और लड़कियां हैं जिन्हें ‘पीरियड्स’ होता है। सरकार के ‘नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे-4’ के अनुसार 15-24 साल की 42 फ़ीसद लड़कियां सैनिटरी पैड्स का उपयोग करती हैं। इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में बड़ी मात्रा में सैनिटरी पैड्स उपयोग में लाए जाते हैं।  ‘इको फेम्मे’ के अनुसार एक सैनेटरी पेड में 90 फीसदी से ज्यादा प्लास्टिक होता है जो चार प्लास्टिक बैग के बराबर है। भारत में हर महीने एक अरब से ज्यादा सैनिटरी पैड सीवर, कचरे के गड्ढों, मैदानों और जल-स्रोतों में जमा होते हैं, जो बड़े पैमाने पर पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं।

सैनिटरी पैड जैसे माहवारी से संबंधित उत्पादों को ‘ठोस कचरा प्रबंधन नियम – 2016’ के तहत ‘ड्राइ वेस्ट’ अर्थात सूखा कचरा माना गया है। ‘ड्राय वेस्ट’ मतलब इस तरह का कचरा जो जैविक रूप से विघटित न हो तथा जिसे या तो रिसाइकल कर पुनः इस्तेमाल में लाया जा सके या इसे किसी तरीके से नष्ट किया जा सके। सैनेटरी नैपकिन या  डायपर आदि का पुनः उपयोग नहीं किया जा सकता, किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि इसे बायोमेडिकल कचरे के तौर पर लिया जाए या नहीं। इसे कचरा बीनने वाले बिना किसी सुरक्षा के हाथों से ही अलग करते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य संबंधी अन्य खतरों की संभावना होती है।

एक आंकलन के अनुसार 12.1 करोड़ महिलाएं सैनिटरी पैड्स का उपयोग करती हैं। यदि एक माहवारी साइकिल में महिलाएं आठ पैड्स का इस्तेमाल करती हैं तो एक महीने में वे एक अरब पैड्स का इस्तेमाल करेंगी। अर्थात एक साल में 1200 करोड़ पैड्स का इस्तेमाल होगा।  

एक सैनिटरी पैड को ‘डिकम्पोज़’ होने में 500-800 साल लगते हैं, क्योंकि इसमें उपयोग होने वाला प्लास्टिक ‘नॉन- बॉयोडिग्रेडेबल’ यानि नष्ट न होने वाला होता है। इस कारण यह बड़ी मात्रा में इकट्ठा हो रहा है। नतीजे में यह स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण के लिए ख़तरा बनता जा रहा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्लास्टिक पदार्थ से बने नैपकिन कैंसर का कारण भी हो सकते हैं।

सैनिटरी पैड को सिर्फ उपयोग कर फेंक देने से ही नहीं, बल्कि इनको बनाने की प्रोसेस व डिस्पोज या निष्पादित करने तक यह पर्यावरण को विभिन्न तरीके से नुकसान पहुंचाते हैं। इन पैड्स को बनाने के लिए क्रूड आयल व पेड़ों का उपयोग किया जाता है जिससे पेड़ों को नुकसान होता है। इन पैड्स में सेल्यूलोज, रेयॉन, डायोक्सिन और सुपर-अब्सॉर्बेंट पॉलिमर जैसे हानिकारक तत्व होते हैं जो पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। उपयोग के बाद इन्हें कचरे में फेंक दिया जाता है या जला दिया जाता है जिससे निकलने वाला धुआँ जहरीला और पशुओं, वनस्पतियों व मानवों के लिए खतरनाक होता है। इसके अतिरिक्त कचरे में फेंकने से इसे पशु खा जाते हैं जिससे उनकी मौत तक हो जाती है।

हालांकि भारत में ठोस कचरा प्रबंधन के कानून में उत्पाद बनाने वालों के लिए यह निर्देश हैं कि वे सेनिटरी पैड्स के इस्तेमाल के बाद उन्हें लपेटने वाले पाउच भी उपलब्ध कराएं। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा था, हम 2021 से ये नियम लागू करेंगे कि जो भी सैनिटरी पैड्स के निर्माता हैं उन्हें हर सैनिटरी पैड को फेंकने के लिए डिग्रेडेबल (जिन्हें नष्ट किया सके) बैग देने पड़ेंगे। यह नियम लागू तो हैं, किन्तु निर्माता कंपनियां इसका पालन नहीं करतीं, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में सैनिटरी नैपकिन्स को नष्ट करने के लिए प्लांट बनाए गए हैं, जहां इन्हें एक निश्चित तापमान पर जलाकर खत्म कर दिया जाता है।

हमारे देश में अब इन उत्पादों के पर्यावरण-अनुकूल उपयोग पर जोर दिया जा रहा है। जैविक रूप से नष्ट होने वाले पैड उपयोग के बाद छह महीने से एक साल की अवधि में ही समाप्त हो सकते हैं। कपड़ों के पैड को दो साल तक उपयोग में लाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यदि महिलाएं या युवतियां माहवारी के समय में ‘मेंस्रुअल कप’ का उपयोग करें तो यह पर्यावरण के लिए बेहतर साबित हो सकता है क्योंकि यह करीब दस साल तक उपयोग किया जा सकता है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जब यह डिस्पोज होगा तब भी पर्यावरण के लिए नुकसानदायक नहीं होगा।

स्पष्ट है कि यदि हमें सैनिटरी पैड्स के कचरे से होने वाले खतरे से बचना है तो इसके लिए माहवारी कप को बढ़ावा देना होगा या फिर सैनिटरी पैड्स का सही से निपटान करने के लिए सख्ती से ठोस कार्य योजनाओं का पालन करना या फिर इन्हें पर्यावरण अनुकूल प्रयोग में लाना आवश्यक होगा। (सप्रेस)

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