नरेन्‍द्र चौधरी

कोविड-19 को ‘परास्‍त’ करने की आपाधापी में कई तरह की गफलतें हो रही हैं और ऐसे में सरकारें अपनी-अपनी ‘पीठ ठुकवाने’ में मशगूल हैं। कहा जा रहा है कि महामारी मानी जाने वाली इस बला से हम अव्‍वल और बेहतर तरीकों से निपटे, निपट रहे हैं। तो क्‍या सचमुच हम इस नामुराद बीमारी को काबू कर पाएंगे?

कोरोना वायरस से उत्पन्न महामारी कोविड-19 से लड़ने के लिए प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा की थी। उन्‍होंने कहा था कि ‘महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीता गया था, हम कोरोना के खिलाफ जंग 21 दिन में जीतेंगे।‘ उसके बाद तीन बार, क्रमश: 19, 14 और 12 दिनों के लिए लॉकडाउन बढ़ाया गया। इससे कोविड-19 के प्रसार की दर भले धीमी हुई हो, लेकिन कोरोना से संक्रमित लोगों के मामले निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। अब तो ये प्रतिदिन इतने (लगभग19,000) बढ़ रहे हैं कि धीमी गति अर्थहीन हो गई है। जहां स्पेन, इटली, जर्मनी और इंग्‍लेंड आदि में लॉकडाउन समाप्त होने पर कोरोना के केस कम होने लगे हैं, वहीं भारत में इनमें तेजी से इजाफा हुआ है। पहले लॉकडाउन की घोषणा के दिन जहां कोविड-19 संक्रमितों के लगभग 500 मामले थे, वहीं आज यह संख्या पौने छह लाख पार कर चुकी है।

वैसे भी लॉकडाउन से बीमारी के फैलने की गति धीमी भर की जा सकती है, इसे रोका नहीं जा सकता। इसका यह फायदा जरूर हुआ है कि ‘नमस्ते ट्रम्प’ में व्यस्त हमारे देश को टेस्टिंग किट, ‘पर्सनल प्रोटेक्‍शन इक्विपमेंट’ (पीपीई) किट, मास्क वेंटिलेटर और अस्पतालों में कोविड-19 के पृथक वार्ड बनाने का समय मिल गया। हालांकि आधी-अधूरी तैयारी से लगे इस लॉकडाउन से मजदूरों को अभूतपूर्व, असहनीय तकलीफों से गुजरना पड़ा, लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा, एक बड़ी जनसंख्या आर्थिक परेशानी में पड़ गई और मजदूरों की घर वापसी के कुप्रबंधन से न सिर्फ मजदूरों ने गहन पीड़ा भोगी, वरन् इस अफरा-तफरी में उनमें से अनेक कोविड-19 से संक्रमित भी हो गए। अपने गृह-नगर या गांव पहुंचकर वे इस संक्रमण को अन्य लोगों में भी फैला सकते हैं। अब हम सब इस बात में एकमत हैं कि कोविड-19 की बीमारी जल्दी नहीं जाने वाली। ‘नारायण हेल्थ’ के डॉ. देवी शेट्टी के अनुसार एक-दो साल तक भारत में कभी-न-कभी बड़ी संख्या में लोग संक्रमित होते रहेंगे। उनके मुताबिक समय के साथ-साथ कोरोना वायरस भी स्वतः कमजोर व कम घातक होता जाएगा।  

‘केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय’ की यह तुलना कि चूंकि हमने उचित समय पर लॉकडाउन किया था, हमारे यहां अमेरिका की तुलना में कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या व उसके कारण मरने वालों की संख्या कम है, उचित नहीं है। यह इसलिए क्‍योंकि अमेरिका व यूरोप में कोविड-19 बीमारी का जितना व्यापक पैमाने पर प्रसार हुआ है, उतना अभी दक्षिण-एशिया के देशों, विशेषकर भारत व उसके पड़ोसी देशों में नहीं हुआ है। इसकी वजह दोनों जगह के पर्यावरण की भिन्नता, आबादी की जैव-संरचना की विशिष्‍टता, एशिया के देशों में ‘बीसीजी’ (‘बैसीलस कैलमिटी गुएरिन,’ क्षय-रोग से बचाव के लिए बच्‍चों को लगाई जाने वाली एक वैक्‍सीन) का लगना, भारत जैसे देश की औसत आयु का युवा होना (29 वर्ष), कम घातक स्वरूप का वायरस (हैदराबाद के ‘सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मालीक्यूलर बॉयलॉजी’ के अनुसार 41 प्रतिशत वायरस, कम घातक स्वरुप का) आदि हो सकते हैं। हालांकि यह विस्तृत अनुसंधान का विषय है।

तुलना ही करना है तो हमें चीन से करना चाहिए जहां कोरोना के जितने मामले हुए हैं, उससे अधिक मामले अकेले महाराष्ट्र में हैं। विश्व के देशों में जहॉ अमेरिका 26,93,736 संक्रमित व 1,29,007 मौतों के साथ शीर्ष पर है, वहीं रूस और ब्राजील के बाद भारत 5,74,926 संक्रमित व 17,038 मृत्यु के साथ चौथे स्थान पर है। यह तो तब है, जब हमने पर्याप्त टेस्टिंग नहीं की है व मृत्यु के आंकड़ों को ठीक से दर्ज नहीं किया है। चीन, जो विश्व में अब 22 वें स्थान पर है, को पीछे छोड़कर भारत कोरोना संक्रमित मामलों और मृत्यु की संख्या में दक्षिण-एशिया में प्रथम पायदान पर है। पाकिस्तान 2,09,337 संक्रमित एवं 4,304 मृत्यु के साथ 12 वें, बांग्‍लादेश 1,45,483 संक्रमित एवं 1,847 मृत्यु के साथ 17 वें और श्रीलंका 2,047 संक्रमित तथा 11 मृत्यु के साथ 108 वें स्थान पर है (लेख के सारे आंकड़े 30 जून 2020 तक के हैं)। प्रति 10 लाख की जनसंख्या पर अमेरिका में 8,138 संक्रमित लोग पाये गए जबकि चीन, भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और श्रीलंका में क्रमश: 58, 417, 948, 883 व 96 संक्रमित लोग मिले। ऐसे ही कोरोना से मृत्यु के मामले में भी प्रति 10 लाख जनसंख्या पर अमेरिका में 390 मौतें हुई, वहीं एशिया के देशों चीन, भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और श्रीलंका में क्रमश: सिर्फ 3, 12 ,19 ,11 ,0.5 मौतें हुईं। जांच के मामले में हम अमेरिका तथा यूरोप के देशों से काफी पीछे हैं।

इन ऑकड़ों से अमेरिका सहित यूरोप के देशों की तुलना में दक्षिण-एशिया, विशेषकर भारत व उसके पड़ोसी देशों में कोरोना के व्यवहार में अंतर स्पष्ट दिखाई देता है। दक्षिण-एशिया के देशों में चीन व श्रीलंका की स्थिति हमसे बेहतर है। पाकिस्तान में, जो आर्थिक रूप से दिवालिया स्थिति में है, भारत की तुलना में दुगने से थोड़े अधिक संक्रमित व डेढ़ गुनी मृत्यु-दर पायी गई है, पर अमेरिका की तुलना में उसकी स्थिति बहुत बेहतर है। प्रकृति के इस सहयोग से स्पष्ट है कि हमारे जैसे देशों के पास प्रबंधन के बेहतर अवसर थे।

हमारे जैसे देशों ने प्रति दस लाख की जनसंख्या पर अत्यंत अपर्याप्त जांच की है। इसका कारण टेस्ट किट की कमी, उसका मंहगा होना, सरकार की बीमारी को कम दिखाने की मंशा और भर्ती के लिए पर्याप्त सुविधाओं का अभाव आदि हैं। अपर्याप्त जांच से एक बड़ा नुकसान यह है कि ऐसे संक्रमित लोग, जिन्हें बहुत हल्के लक्षण हैं या जिनमें नहीं के बराबर लक्षण हैं, की खोज जांच के अभाव में नहीं हो पाती और वे अन्य लोगों के संपर्क में आकर उनमें बीमारी फैलाते हैं। इससे संक्रमण की श्रंखला टूट नहीं पाती व बीमारी फैलती रहती है। गुजरात के अहमदाबाद के मामले में स्वयं गुजरात सरकार ने कोर्ट में स्वीकार किया है कि अधिक जांच से अधिक संक्रमित (70 प्रतिशत तक) निकलेंगे जिससे लोगों में भय की मानसिकता बढ़ेगी। जबकि संक्रमण की श्रंखला को समाप्त करने के लिए जांच से बीमारों की खोज, उनका इलाज, संपर्क वालों का क्वारेंटाइन, बीमारों का आइसोलेशन एवं नागरिक में जागरुकता अत्यंत आवश्यक उपाय हैं जिन्‍हें केरल राज्य ने किया भी है।

एक सवाल यह भी उठता है कि जो लोग अपने घर, वापस गांव जा रहे हैं, क्या वे अपने साथ संक्रमण को ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं ले जायेंगे? ग्रामीण क्षेत्र अभी तक इस संक्रमण से लगभग मुक्त थे। बिहार के वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारी गौरव सिन्हा के अनुसार दिल्ली से आये मजदूरों में से दर्जनों मजदूर कोरोना से संक्रमित पाये गये हैं। इसके अलावा गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों से आये मजदूर भी संक्रमित पाए गए हैं। बिहार के 38 में से 37 जिलों में संक्रमण फैल गया है। अकेले बिहार में एक लाख से ज्यादा मजदूर लौटे हैं। केन्द्र सरकार ने स्वयं सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि इन मजदूरों में एक तिहाई संक्रमित हो सकते हैं। पूर्व में बिहार में दो प्रतिशत संक्रमित निकल रहे थे, अब यह दर 3.46 प्रतिशत हो गयी है। झारखंड राज्य के स्वास्थ्य सचिव के अनुसार पांच मई के बाद पाये गए कोविड-19 के लगभग सभी मामले वापस आये हुए मजदूरों के ही हैं। उड़ीसा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, केरल आदि राज्यों में भी लौटे हुए मजदूरों में संक्रमण की कमोबेश यही स्थिति पाई गई है। यदि केन्द्र सरकार ने मजदूरों की समस्या पर समय रहते ध्यान दिया होता, तो न सिर्फ वे संक्रमण और परेशानी से बचते, बल्कि अपने राज्यों में संक्रमण के वाहक भी न बनते और शायद आर्थिक गतिविधियों को बेहतर तरीके से शुरू किया जा सकता।

कोरोना वायरस से लड़ने में विभिन्न राज्यों की भूमिका का तुलनात्मक अध्ययन भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय है और वैश्‍वीकरण के बाद अधिकांश राज्यों में स्वास्थ्य का सरकारी ढ़ांचा कमजोर हुआ है। हमें पुनः इस बात पर विचार करना चाहिए कि स्‍वास्थ्य सुविधाओं के निजीकरण की बजाए शासकीय स्वास्थ्य सुविधाओं को ही मजबूत किया जाए। 

कोरोना से हमारी लड़ाई लंबी चलने वाली है। वैक्सीन आने में एक से डेढ़ साल लग सकते हैं। हालांकि हमारे देश की ‘भारत बॉयोटेक कंपनी’ ने ‘भारतीय चिकित्‍सा अनुसंधान परिषद’ (आईसीएमआर) के साथ मिलकर एक वैक्सीन बनाई है जिसे ‘क्लीनिकल ट्रायल’ की अनुमति मिली है। फिलहाल हमारे 70 प्रतिशत संक्रमित 10 से 12 शहरों में हैं। उनमें ‘आईसीएमआर’ ‘हर्ड इम्यूनिटी’ (60 से 70 प्रतिशत जनसंख्या प्रभावित होकर अपने में एंटीबॉडी बनाती है, जिससे बीमारी का प्रसार रुक सकता है) की जॉच कर रही है, लेकिन हमारा देश काफी बड़ा है, लॉकडाउन खुल गया है जिससे और नये-नये क्षेत्रों में बीमारी फैल सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार जुलाई से सितंबर के बीच बीमारी अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचेगी। जहां एक लाख मामले होने में 111 दिन लगे थे, वहीं दो लाख होने में सिर्फ 14 दिन और तीन लाख होने में सिर्फ 10 दिन लगे। पहले प्रतिदिन औसतन 15 लोग कोरोना से मर रहे थे, आज औसतन 239 लोग मर रहे हैं। दिल्ली, मुम्‍बई, अहमदाबाद, चैन्नई जैसे शहरों के अस्पताल में बिस्तर का अभाव हो रहा है। हमारा सीमित मानव संसाधन (डॉक्टर्स, नर्सें, स्वास्थ्य-कर्मी) दबाव में हैं। संक्रमितों की संख्या के मामले में जल्दी ही हम दुनिया में दूसरे नम्बर का देश बन सकते हैं। अतः रोजगार व आर्थिक गतिविधियों के साथ हम इस बीमारी से कैसे निपटेंगे, हमें सोचना होगा।

सरकार ने वादा किया था कि स्वास्थ्य पर ‘सकल घरेलू उत्‍पाद’ (जीडीपी) का 2.5 प्रतिशत खर्च करेंगे, उसे पूरा करना चाहिये। स्वास्थ्य सेवाओं में निजी भागीदारी को घटाना चाहिए। इस बीमारी से लड़ने के लिए हम अपने सीमित संसाधनों का बेहतर प्रबंधन के साथ अधिकतम उपयोग कैसे कर सकते हैं, इस पर विभिन्न क्षेत्र के विशषज्ञों की राय से योजना बनाने की आवश्यकता है। (सप्रेस) 

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