डॉ.ओ.पी.जोशी

पिछली दो-ढाई सदी में सूचना – प्रौद्योगिकी ने कमाल की प्रगति की है, लेकिन उसी अनुपात में इस तकनीक ने जैविक, इंसानी जीवन के लिए खतरे भी खडे कर दिए हैं। क्या हैं ये खतरे? और किस तरह से मानव जीवन उनसे प्रभावित होता है? ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ (5जून) पर इसकी पडताल करता डॉ.ओ.पी.जोशी का लेख।

‘विश्व पर्यावरण दिवस’ ( 5जून )

वर्तमान समय सूचना-प्रौद्योगिक का है जिसके तहत दुनिया के कई देश अपना सारा कार्य डिजीटल बनाने हेतु प्रयासरत हैं। विशेषकर विकासशील देश कम्प्यूटर्स, मोबाईल फोन, सर्वर, टावर्स, नेटवर्क, गूगल, ई-मेल, वाट्सएप, एसएमएस एवं वाय-फाय आदि इस प्रौद्योगिकी से जुडे़ आयाम है। पिछले कुछ वर्षों में किये गये अध्ययन दर्शाते हैं कि बढ़ती डिजीटल दुनिया से पर्यावरण पर भी खतरे बढ़ते जा रहे हैं।

ग्लोबल-वार्मिग में इंटरनेट की भूमिका बढ़ती जा रही है। फ्रांसीसी थिंकटेंक तथा ‘शिफ्ट प्रोजेक्ट’ के शोधकर्ताओं द्वारा जुलाई 2019 में जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में इंटरनेट की भागीदारी 04 प्रतिशत है जो 5-जी के विस्तार के चलते 2040 तक बढ़कर 25 प्रतिशत से ज्यादा हो सकती है। इसके साथ ही दुनिया की कुल बिजली खपत का पांचवा हिस्सा (20 प्रतिशत) इंटरनेट उपयोग में लगेगा। जहां बिजली नहीं पहुंची है या हमेशा उपलबध नहीं रहती है वहां यह कार्य डीजल जनरेटर से किया जाता है।

हमारे देश में टेलिकाम इंडस्ट्री प्रतिवर्ष 02 हजार करोड़ लीटर डीजल का उपयोग नेटवर्क चलाने हेतु करती करती है। इससे कार्बन उत्सर्जन होता है। इंटरनेट कार्यो से पैदा कार्बन उत्सर्जन की मात्रा उड्डयन उद्योग से जुड़े सारे कार्यो से अधिक बतायी गयी है। नेट-वर्क से जुड़े कुछ कार्यो से उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाय-आक्साइड की मात्रा का भी अध्ययन किया गया है।

दुनियां में रोजाना लगभग 35 से 40 करोड़ ई-मेल्स किये जाते है जिनसे 14 मीट्रिक टन कार्बन डाइ-आक्साइड का उर्त्सजन होता है। गूगल से भी प्रत्येक बार खोज करने पर 02 से 05 ग्राम का उत्सर्जन होता है। सामान्य एवं जटिल वेबसाईट सर्च करने पर क्रमश : प्रति सेकंड 20 तथा 300 मिलीग्राम का उर्त्सजन होता है।

‘लाईन वीडियो स्ट्रीमिंग’ (वीडियो देखना, वीडियो कांफ्रेंस) को भी खतरनाक बताया गया है। एक आधे घंटे की वीडियो स्ट्रीमिंग में उर्त्सजित कार्बन की मात्रा एक सामान्य कार के छः किलोमीटर चलने पर उर्त्सजित मात्रा के बराबर होती है। फ्रांस के शोध संस्थान ‘शिफ्ट प्रोजेक्ट’ के अध्ययन के अनुसार वर्ष 2018 में वीडियो स्ट्रीनिंग से उतना कार्बन उत्सर्जित हुआ जो स्पेन एक वर्ष में करता।

यूरोप की एक बड़ी आयटी कम्पनी ‘कम्प्यूटर-सेंटर’ के मेथ्यू पोगर के अनुसार एक एमबी के अटैचमेंट की ई-मेल से लगभग 19 ग्राम कार्बन का उर्त्सजन होता है। ई-मेल से भेजे जाने वाले अनचाहे संदेश (स्पेम) से भी 0.3 ग्राम कार्बन का उर्त्सजन होता है। ई-मेल की वजह से ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाले देशों में अमेरीका, चीन, ब्रिटेन एवं कनाडा के साथ हमारा देश भी शामिल है।

‘मेक मास्टर वि.वि.’ (हेमिल्टन, कनाडा) के प्रो.एल.वेलखीर ने चेतावनी देकर कहा है कि आने वाले वर्षो में पर्यावरण के लिए सबसे खतरनाक स्मार्टफोन होंगे। ये फोन कार्य करने पर ऊर्जा की खपत तो कम करते हैं, परंतु इनके निर्माण के दौरान होने वाली विभिन्न क्रियाओं से उत्सर्जित कार्बन का योगदान वैश्विक स्तर पर 50 प्रतिशत के लगभग आंका गया है। स्मार्टफोन के निर्माण में कई विरल एवं कीमती धातुओं का उपयोग किया जाता है। जिनके खनन कार्य में बड़ी मात्रा में ठोस व तरल अपशिष्ट (व्यर्य पदार्थ) निकलते हैं एवं आसपास प्रदूषण फैलाते हैं। कुछ अपशिष्ट पदार्थो में पारा (मरक्युरी) तथा सायनाइट भी पाये गये हैं।

दक्षिण-अमेरिका में सोने के खनन हेतु विश्व-प्रसिद्ध अमेजन के जंगल काटे जा रहे हैं। इंडोनेशिया के कुछ द्वीपों के पास समुद्र से टिन के खनन कार्य से मूंगे की चट्टानों (कोरल रीफ) पर विपरीत प्रभाव हो रहा है। लगभग 02 ग्राम की एक कम्प्यूटर चिप बनाने में उसके वजन से 26 गुना ज्यादा रासायनिक पदार्थ, 800 गुना ईंधन एवं 1600 गुना पानी की जरूरत लगती है।

इन सभी पर्यावरणीय समस्याओं के साथ ई-कचरे (ई-वेस्ट) की समस्या भी बढ़ती जा रही है। वैज्ञानिकों का आंकलन है कि विश्व में जमा ई-कचरे से चीन की दीवार से लम्बी दीवार बनायी जा सकती है। ई-कचरे में खतरनाक रसायन (सीसा, पारा, केडमियम, क्रोमियम आदि) होते हैं एवं यदि इनका निपटान उचित वैज्ञानिक तरीके से नहीं किया जाए तो इनसे वायु, जल एवं मिट्टी का प्रदूषण एवं मानव स्वास्थ्य पर विपरित प्रभाव होता है।

हमारा देश भी ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले देशों में अमेरीका एवं चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। हमारे देश में 11 लाख टन ई-कचरा प्रतिवर्ष पैदा होता है, परंतु 10 प्रतिशत का ही संग्रहण एव रिसायकलिंग उचित विधि से किया जाता है।

सूचना प्रौद्योगिकी से पैदा पर्यावरणीय समस्याओं को कम करने हेतु कुछ सुझाव भी सामने आये हैं, जैसे – पर्यावरण के वैश्विक सम्मेलनों में इंटरनेट से पैदा कार्बन उत्सर्जन पर भी चर्चा हो, इस पूरी प्रौद्योगिकी को अक्षय ऊर्जा से संचालित करने के प्रयास हों, ई-उपकरणों में उपयोगी धातुओं के खनन में नई तकनीकों का उपयोग हो या पुराने उपकरणों से इन्हें पृथक कर नए उपकरणों में उपयोग किया जाए, दैनिक कार्यों में गूगल, ईमेल आदि का उपयोग सावधानी से किया जाए, एवं बार-बार प्रोजेट्स बदलने के बजाए उनका लम्बे समय तक उपयोग किया जाए। निश्चित ही डिजिटल तकनीक ने हमारा जीवन सुविधा से भर दिया है। अब हम ध्यान रखें कि यह सुविधा पर्यावरण के लिए दुविधा नहीं बनने पाए। (सप्रेस)

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