डॉ.ओ.पी.जोशी

हिन्दू परम्पराओं में लगभग सभी देवी-देवता पर्यावरण और उसके संरक्षण से जुडे हैं। इन दिनों श्रावण या सावन का महीना है जिसमें सतत शिव को स्मरण करते रहने का रिवाज है, लेकिन क्या हम कभी उस प्रकृति और पर्यावरण को भी याद करते हैं जिनका मूर्त रूप साक्षात शिव ही हैं? शिव को पूजते हुए पर्यावरण को नष्ट करते जाना हमारे जीवन के लिए कितना घातक है?

मौसम के हिसाब से सावन का महीना वर्षा से जुड़ा है एवं धार्मिक आधार पर यह भगवान शिव का माना गया है। कुछ प्राचीन मान्यताओं में शिव को प्रकृति या पर्यावरण का देवता बताया गया है। इस देवता का आवास पहाड़, कार्यक्षेत्र जंगल एवं जटाओं से नदियों का उदगम माना गया है। प्रकृति का विराट स्वरूप भी शिव के रूप में वर्णित है। शिव की पंसद के पौधे (भांग, मदार, धतूरा, बेलपत्र), वाहन नंदी एवं गले में विराजमान सर्प, एक प्रकार से भोजन श्रृंखला दर्शाते हैं। सभी हरे पेड़-पौधे सूर्य के प्रकाश में अपना भोजन प्रकाश-संश्लेषण (फोटोसिन्थेसिस) की क्रिया से तैयार करते हैं। शिव का वाहन नंदी (बैल) एवं अन्य शाकाहारी जीव पेड़-पौधों से अपनी उदर पूर्ति करते हैं।

सर्प एक मांसाहारी प्राणी है जो प्रमुख रूप से अनाज बर्बाद करने वाले चूहों को खाकर अनाज की सुरक्षा में सहायक होता है। चूहों की एक जोड़ी वर्ष भर में 860 संतानें पैदा करती है। वर्षों पहले थाईलैंड सरकार ने लगभग 13 लाख सर्प कई देशों को निर्यात किए थे। इससे वहां सर्पों की संख्या काफी कम हो गयी थी। चूहे अधिक हो गये एवं उन्होंने चार लाख हेक्टर में फैली धान की फसल बर्बाद कर दी थी। वहां की सरकार को सर्पों के निर्यात से जितनी राशि मिली थी उससे दो-गुनी राशि चूहों के नियंत्रण पर खर्च करनी पड़ी। परस्पर जीवों के खाने से बनी भोजन श्रृंखला जीवों की संख्या नियंत्रित कर संतुलन बनाये रखने में मददगार होती है।

एक कथा के अनुसार भागीरथ की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा ने कहा कि मैं धरती पर आने को तैयार हूं, परंतु मेरी तेज धारा को रोकेगा कौन? भागीरथ द्वारा इसका समाधान पूछने पर गंगा ने ही बताया कि भगवान शिव अपनी जटाओं की मदद से यह कार्य कर सकते हैं। अतः शिव की जटाओं से निकली गंगा वास्तव में जल, जंगल एवं जमीन के संबंध को दर्शाती है। पर्यावरण विज्ञान भी मानता है कि पेड़ जल-प्रवाह की गति को कम करके जमीन के कटाव को रोकते हैं एवं जल के लिए एक स्पंज की भांति कार्य करते हैं।

पर्यावरण के संदर्भ में सावन का महीना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस माह में प्रकृति में संचालित जल-चक्र के तहत वर्षा एवं बर्फ के रूप में जल पृथ्वी पर पहुंचता है। समुद्री सतह, नदी, नाले, तालाब, झील, भूमि एवं पेड़-पौधों से निकली वाष्प से बने बादल इसी माह में वर्षा के रूप में पानी (ऊंचे पहाडों पर बर्फ) गिराकर सभी जीवों के लिए जरूरी जल की पूर्ति करते हैं। जीवों के शरीर में पाया जाने वाला लगभग 80 प्रतिशत जल, वृद्धि एवं विकास के साथ कई जैव-रासायनिक क्रियाओं के लिए भी जरूरी होता है।

जीवों के लिए जरूरी जल की आपूर्ति के साथ-साथ सावन का वर्षा-जल वायुमंडल में उपस्थित विभिन्न प्रकार के प्रदूषणकारी पदार्थों, सूक्ष्म-कणीय एवं विषैली गैसों को हटाकर वायु-प्रदूषण में कमी लाता है। पिछले वर्ष 2021 में थोड़ी सी वर्षा के बाद ही मुंबई के अंधेरी (ईस्ट) में सूक्ष्म-कणीय पदार्थ पी.एम 2-5 एवं 10 क्रमशः 61.7 एवं 58.7 प्रतिशत कम हो गये थे। कोलकता के विधाननगर में भी वे 26 तथा 70 प्रतिशत घट गये थे। इसी वर्ष इन्दौर शहर में 13 एवं 14 जुलाई को हुई वर्षा से वायु गुणवता सूचकांक 36 से 46 के मध्य आ गया था। साफ मौसम के कारण यहां के एम.आर.10 के ब्रिज से 30 – 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित देवास की चामुंडा माता टेकरी नजर आने लगी थी।

शिव का आवास पहाड, कार्यक्षेत्र जंगल एवं जटाओं से निकली गंगा समान नदियां, बढ़ती मानवीय गविविधियों से संकट-ग्रस्त हो चुके हैं। जंगलों की कटाई बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के कार्य, सडकों का निर्माण एवं चौड़ीकरण आदि से पहाड़ कमजोर होकर दरक रहे हैं। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के प्रभाव से हिमालय के ग्लेशियर भी संकटग्रस्त हैं। पेड़ों की कटाई, नगरीकरण एवं औद्योगिकरण से शहरों का तापमान बढ रहा है। कई सहायक नदियां मौसमी हो गयी हैं एवं सहायक तथा उप-नदियों की हालत भी खराब है।  

शिवजी का सावन एवं उनका स्वरूप एक ओर हमें पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाने का संदेश देता है, तो दूसरी ओर चेतावनी भी देता है कि पर्यावरण के साथ अनाचार शिवजी के तांडव के रूप में प्रकट होगा। अत: पर्यावरण बचाने से ही शिव का सावन सार्थक होगा।(सप्रेस)

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