‘विश्व पर्यावरण दिवस’ (5 जून) पर विशेष

सुदर्शन सोलंकी

हर साल पर्यावरण दिवस के बहाने हम लगातार बदहाल होते अपने परिवेश का लेखा-जोखा तो कर लेते हैं, लेकिन उसे लेकर गंभीरता से कोई पहल नहीं करते। क्या हमारा यह व्यवहार प्रकृति, पर्यावरण और खुद इंसानी जीवन के लिए खतरा नहीं बन रहा है?

पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की घोषणा ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की थी।

जीवाश्मों के अध्ययन से हमें  ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व को करीब 3.5 अरब साल हो चुके हैं। इतने समय में पृथ्वी ने कई तरह की आपदाओं को सहन किया है। साथ ही मानव ने पृथ्वी के संसाधनों का अनुचित दोहन किया है, जिसके परिणाम-स्वरूप जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग और जैव-विविधता की क्षति हुई है।

पर्यावरण में वायु, जल, भूमि, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, मानव एवं उनकी विभिन्न गतिविधियों के परिणामों का समावेश होता है। जब पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान होता है तो इसका सीधा प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। समस्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ जीव मानव है इसलिए पर्यावरण को स्वच्छ और स्वस्थ रखने की जिम्मेदारी भी हम मनुष्यों की ही है, किन्तु पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान भी हम लोग ही पहुंचा रहा हैं।

विस्फोटक रूप से बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण, शहरीकरण एवं विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य प्रकृति के हरे-भरे क्षेत्रों को समाप्त कर पर्यावरण को प्रदूषित करता जा रहा है। रेडियोधर्मिता-प्रभाव, ग्लोबल-वार्मिंग, ओजोन परत में छिद्र, बढ़ती बंजर भूमि इत्यादि पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणाम के रूप में देखने को मिल रहे हैं।

मानव अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दुनिया भर में वनों की कटाई कर रहा है। इस तरह से हो रहे वनों के विनाश के कारण कई खतरनाक प्रभाव देखने को मिले हैं जिनमें से प्रमुख हैं, ‘ग्रीनहाउस गैसों’ में वृद्धि, वन्य-जीवों के आश्रयों का नाश, जिसके परिणाम-स्वरूप वन व वन्य-जीवों की कई प्रजातियों का विलुप्त होना, जैव-विविधता को नुकसान पहुंचना, भूमि के क्षरण में वृद्धि, अम्ल-वर्षा, मरुभूमि का विस्तार, जलवायु में परिवर्तन, भू-स्खलन में वृद्धि, ग्लेशियरों का पिघलना, तूफान, बाढ़, सूखा इत्यादि कई प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं।

धूल व धुएं के रूप में रसायनों, सूक्ष्म पदार्थों या जैविक पदार्थों के वातावरण में फैलने से वायु-प्रदूषण हो रहा है। वायु-प्रदूषण के कारण श्वास रोग व फेफड़े सम्बन्धी बीमारियां होती हैं जो मौत का कारण बनती हैं। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार हर साल 2 से 4 लाख लोगों की मौत का कारण सीधे-सीधे वायु-प्रदूषण है, जबकि इनमें से 1 से 5 लाख लोग आंतरिक वायु-प्रदूषण से मर जाते हैं। वायु-प्रदूषण के कारण ग्लोबल वार्मिंग भी बढ़ती जा रही है। वायु-प्रदूषण के कारण ओजोन छिद्र हुआ है जो मानव स्वास्थ्य के साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा है।

जल स्रोतों, जैसे – झीलों, नदियों, समुद्रों और भूजल आदि में प्रदूषकों को बिना किसी समुचित उपचार के सीधे जल धाराओं में विसर्जित कर देने के कारण पादप व जीव-जंतु प्रभावित होते हैं। जल-प्रदूषण के कारण पूरे विश्व में कई प्रकार की बीमारियाँ और लोगों की मौतें हो रही हैं।

लाउडस्पीकरों का अनियंत्रित उपयोग, वाहनों की तेज आवाज, पावर सायरन, हॉर्न तथा मशीनों के द्वारा होने वाले शोर इत्यादि के कारण ध्वनि-प्रदूषण के प्रभाव से श्रवण शक्ति कमजोर होना, सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, उच्चरक्तचाप एवं मनोवैज्ञानिक दोष उत्पन्न हो रहे हैं। नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य पर ध्वनि-प्रदूषण का बुरा प्रभाव पड़ता है तथा इससे उनमें कई प्रकार की शारीरिक विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं।

मनुष्य सीधे या परोक्ष रूप से मिट्टी में हानिकारक पदार्थों, रसायनों या वस्तुओं का प्रयोग करता है जिसके परिणाम-स्वरूप मृदा प्रदूषित हो जाती है जिसका प्रतिकूल प्रभाव वनस्पति और जंतुओं दोनों पर होता है।

रेडियोधर्मी पदार्थों से ऊर्जा उत्पादन प्रक्रिया के दौरान हो रहा प्रदूषण कितना खतरनाक है इसका पता दुनिया को 11 मार्च 2011 को जापान के सुनामी एवं भूकंप प्रभावित फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र के रिएक्टर में लगी आग एवं उससे हो रहे विकिरण के खतरे के बाद चला है। रेडियोधर्मी पदार्थ भारहीन एवं प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखने वाला पर्यावरण का प्रदूषक है। यह अन्य प्रदूषणों की तुलना में अधिक दीर्घकालीन, खतरनाक तथा हानिकारक होते हैं।

इन सबसे स्पष्ट है कि वर्तमान समय में जल, जंगल और जमीन से जुड़े सभी तत्व या तो प्रदूषित हो गए हैं या इनका अत्यधिक दोहन होने से ये विलुप्त होने की कगार पर हैं। इसलिए अब यह जरूरी हो गया है कि मनुष्य को पर्यावरण के प्रति अपनी आदत और व्यवहार को बदलना होगा एवं पर्यावरण हितैषी बनना होगा।

पर्यावरण को स्वस्थ रखने में वन एवं वन्य जीव का अत्यधिक योगदान होता है इसलिए जंगलों के विनाश को रोकना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए हमें सिंगल यूज प्लास्टिक को नकारना, रसायनों का कम-से-कम उपयोग एवं ‘कार्बन तटस्थ’ बनना होगा।  

‘सोसाइटी फॉर इकोलॉजिकल रेस्टोरेशन’ के अनुसार “प्राकृतिक पुनर्स्थापन बिगड़े हुए या तबाह हुए पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत को पुनः स्वस्थ अवस्था में लाने की प्रक्रिया है।’ ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ का आह्वान है कि दुनिया के सभी लोग धरती के उपचार के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करें व पर्यावरण सुधार के प्रयास वैश्विक आंदोलन बन जाएं।

पारिस्थितिक तंत्र पृथ्वी पर जीवन का मूल आधार है, यह तंत्र स्वस्थ होगा तब ही हम और पृथ्वी पर रहने वाले समस्त जीव स्वस्थ रह सकेंगे। साथ ही इससे जीवों की विलुप्ति को रोकने में भी मदद मिलेगी। (सप्रेस)

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