सुरेश भाई

महात्मा गांधी ने आजाद भारत के लिए कई तरह की योजनाओं, कार्यक्रमों और नीतियों की कल्पना की थीं, लेकिन दुर्भाग्य से वे आजादी के साढे पांच महीनों में ही हम से सदा के लिए विदा हो गए। बाद में उनके कुछ अनुयायियों ने अपनी तरह से गांधी के विचारों को अमली जामा पहनाने की भरसक कोशिशें कीं।

भारत की आजादी के संघर्ष के दिनों में महात्मा गांधी को महसूस होने लगा था कि यदि देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो गया तो वह सात लाख गांवों में ‘ग्राम स्वराज्य’ का काम पूरा करेंगे। उसके लिए उन्होंने देशवासियों के समक्ष अट्ठारह रचनात्मक कार्य प्रस्तुत किए थे, जिनमें मुख्य रुप से ‘सर्व धर्म समभाव,’ ‘हरिजन सेवा’ और ‘बुनियादी शिक्षा’ को प्रमुखता दी गई थी। आजादी के आंदोलन में रात-दिन संघर्ष कर रहे नेताओं को वे कहते रहते थे कि अपने अंदर की हिंसा त्यागकर समाज और देश में अहिंसा की ताकत से प्रत्येक जाति व धर्म के लोगों का मन जीतकर गुलामी का प्रतिकार करें।

जब देश आजाद हुआ तो हिंदू-मुस्लिम के बीच भाईचारा स्थापित करने के लिए गांधीजी ने स्वयं ही निर्भीकता से सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वालों के बीच जाकर समझाने का काम किया था। दुनिया के लोगों ने भी गांधी के सत्य, अहिंसा, शांति, करुणा, सर्वधर्म समभाव के संदेश को सर-माथे पर रखकर प्रेरणा ली है। बापू को दुनिया में प्रसिद्धि भी इसीलिए मिली कि वे हर हिंसा का जवाब अहिंसा से देते थे। इसके बावजूद यह इंकार नहीं किया जा सकता कि हिंसा और सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाली ऐसी ताकतें हमेशा मौजूद रही हैं जिन्हें गांधी के रास्ते पर चलना पसंद नहीं है।

हिंसा का प्रभाव कम न होने से सामाजिक सद्भावना उजड़ती रहती है। जब तक गांव के लोग मोती की तरह एक ही माला में पिरोकर रहने लग जाते हैं तो वही कुछ दिनों बाद फिर कई कारणों से बिखरती भी दिखाई देती है। नफरती हिंसा के नाम पर बयान देने वाले लोग इसके लिए दोषी हैं। हर रोज कितना भी गांधी, अंबेडकर का नाम ले लो, लेकिन उनके विचारों के अनुरूप समाज बनाने की शक्ति कमजोर होती जा रही है, जिससे अलग-अलग धर्मों के बीच समरसता बनाने वाली रस्सी भी टूट कर बिखरती रहती है।

भारत में दूसरे धर्मों के मुकाबले हिंदू धर्म के लोगों की संख्या कहीं अधिक है। हिंदुओं के बीच चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शिल्पकार जाति के लोग हैं जिनके बीच छुआछूत कम नहीं हो रही है। हिंदू समाज में उच्च और निम्न वर्ग की मानसिकता के कारण असमानता बनी हुई है। जिसमें जातिवादी समाज के बीज बहुत गहरे तक बो दिए गए हैं।

समाज की इस सच्चाई को देखकर आजादी के बाद गांधी विचार से जुड़े सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने 50- 60 के दशक में उत्तराखंड में अनुसूचित जाति के शिल्पकार, जो मंदिर में नहीं जा सकते थे उन्हें सबसे पहले चार धाम के मंदिरों में प्रवेश करवाया गया था। उस समय तक शिल्पकार अपने बेटा-बेटी की शादी डोली अथवा घोड़े में बैठाकर नहीं कर सकते थे। उस दौरान गांव में कहीं पर दलित वर्ग के लोगों ने इसका थोड़ा भी प्रयास किया तो उन पर तरह-तरह के जुल्म ढाए गए थे।

तत्कालीन समाज सुधारक जयानंद भारती, सोहनलाल भूभिक्षु, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट, इंद्रमणि बडोनी ने सामाजिक एकता व सद्भावना के लिए प्रयास किए थे। इन नेताओं में सुंदरलाल बहुगुणा को विशेष रूप से इसलिए याद किया जाता है कि उन्होंने ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर शिल्पकारों को बड़ी संख्या में मंदिर प्रवेश करवाया और छुआछूत करने वालों के बीच एक भय का माहौल पैदा किया, जिसके कारण कई स्थानों पर उच्च जाति के लोगों ने शिल्पकारों के ऊपर हो रहे अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया।

उस दौर में जब देश को आजाद हुए कुछ ही वर्ष हुए थे तब टिहरी जनपद के थाती-बूढ़ा केदार नाथ गांव में धर्मानंद नौटियाल, बहादुर सिंह राणा, भरपुरु नगवान जो क्रमशः ब्राह्मण, ठाकुर, शिल्पकार वर्ग में आते थे, उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में अपने बीच की रिश्तेदारी का सर्वस्व त्यागकर एक दशक से अधिक समय तक इन तीन परिवारों ने मिलकर साथ खाना खाया और एक ही मकान में रहे। खेती-बाड़ी का काम भी उन्होंने साथ-साथ किया। ये तीनों लोग गांधी के परम अनुयायी थे। सुंदरलाल बहुगुणा इनके साथ थे जिसने उन्हें छुआछूत की जलती ज्वाला के बीच छलांग लगाकर समाज को एक सूत्र में बांधने का संदेश दिया था।

दिवंगत पत्रकार और चिपको नेता कुंवर प्रसून ने इसका उदाहरण अपने कई लेखों में लिखा है। इन तीन परिवारों के संघर्ष के बीच से पैदा हुए प्रसिद्ध समाज सुधारक बिहारी लाल जी पर हाल ही में लिखी दो किताबों में इसका वर्णन भी किया गया है। वर्तमान सामाजिक परिवेश के सामने इस तरह के दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए पाठ्यक्रम में इसे स्थान मिलना चाहिए था।

देश के कई हिस्सों में आज भी छुआछूत है और डोली पर बैठकर दलित वर्ग के लोग शादी नहीं कर पाते हैं। हाल ही में अल्मोड़ा जिले के थल्ला-तडियाल गांव में अनुसूचित जाति के एक दूल्हे को घोड़े से उतारकर उसे पैदल जाने के लिए बाध्य किया गया था। ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैं जिस पर वोट लेने वाली पार्टियां मौन हो जाती हैं। सिर्फ मीडिया ही एक माध्यम है, जिससे खबर मिलती है, लेकिन वर्तमान में इस तरह की घटनाओं का खुलकर विरोध करने वाली शक्तियां न जाने क्यों बिखर गई है।

इस वर्ष अप्रैल-मई में हरिद्वार में हुई एक धर्म-संसद में धार्मिक भावना पर भड़काऊ टिप्पणी रोकने और मौजूदा विषय पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इससे देश का माहौल खराब होता है। सुप्रीम अदालत ने कहा है कि यदि कोई ऐसा करता है तो उसे देश से माफी मांगनी चाहिए। सांप्रदायिक तनाव को रोकने के लिए लेखिका नयनतारा सहगल, पूर्व मुख्य सचिव एसके दास के साथ दर्जनों लोगों ने देहरादून में मिलकर मुख्यमंत्री को पत्र भी लिखा है। सामाजिक सद्भावना के लिए नवयुवकों ने ‘उत्तराखंड सर्वोदय मंडल’ के बैनर तले एक ‘सद्भावना यात्रा’ भी निकाली है। जिसका समापन 44 दिनों बाद 21-22 जून को देहरादून में किया गया है। समाज में हर वर्ग, हर जाति का व्यक्ति सर उठाकर जी सके उसके लिए जितने प्रयास हों वे भी कम हैं। (सप्रेस)

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