11 सितंबर विनोबा भावे की 125 वां जयन्ती वर्ष

अनिल त्रिवेदी

महात्‍मा गांधी के आध्यात्मिक अनुयायी माने जाने वाले विनोबा अपने विचारों और उन विचारों के क्रियान्‍वयन में अनूठे थे। विडम्बना यह है कि सन्त, महात्‍मा और ईश्‍वर के दर्जे पर रखने के लिए हमेशा उतावले हमारे देश ने विनोबा सरीखे विचारक और बेहद सक्रिय व्‍यक्ति को भी महानता तो दी, लेकिन कभी उनकी बातों को गौर से नहीं सुना। यदि सुना होता तो हमें अपने आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन की मौजूदा बदहाली नहीं भुगतनी पडती।

11 सितम्बर 1895 को जन्मे संत विनोबा भावे का आज 125 वां जयन्ती वर्ष पूरा हो रहा है। ‘गांधी-150’ में ‘विनोबा-125।’ महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन में विनोबा को ‘पहला’ और ‘पूर्ण सत्याग्रही’ माना था। मूलत: आध्यात्मिक वृत्ति के युवा विनोबा हिमालय में जाने का सोच रहे थे। गांधी की ऊर्जामयी वैचारिक प्रेरणा के सम्पर्क से उपजी जिज्ञासा विनोबा को बापू के पास ले गयी और विनोबा को बापू के सानिध्य से हमेशा के लिये सर्वोदय की साधना का पथ स्पष्ट हो गया। आजादी के आन्दोलन का सत्याग्रही स्वरूप और आजादी के बाद ‘भूदान आन्दोलन’ के प्रणेता ये दोनों रूप एक ही हैं। संत विनोबा दुनिया के इतिहास में एक ऐसी विभूति के रूप में याद किये जाते हैं, जिन्होंने सत्य, प्रेम और करूणा को आधार मानकर, आजादी के पहले और बाद भी, लम्बे समय तक न केवल भारत में, वरन समूची मनुष्यता को सदैव ‌‍‌सहज और सरल रूप से क्रियाशील रहते हुए, अपनी वैचारिक ऊर्जा के प्रयोग से शांत और सेवामय जीवन जीने की राह दिखाई।

विनोबा के अध्ययन की गहराई पढे-लिखे लोगों के साथ-साथ निरक्षरों के दिल-दिमाग में भी स्वत:स्फूर्त रूप से बैठ जाती थी। गीता जैसे जीवन के भाष्य को विनोबा ने, बिना पढ़ी-लिखी गांव की महिलाओं को भी आसानी से समझ आ सके ऐसी भाषाशैली में, ‘गीताई’ ग्रंथ की रचना की। सच्चा और सरल विद्वान ही लोकसमाज को उसकी भाषा में जीवन का मर्म और अर्थ समझा सकता है। विनोबा ने अपने जीवन से यही सिखाया कि जीवन का अर्थ लोगों के साथ एक रूप हो जाना है। सेवाग्राम और पवनार आश्रम भारत की आजादी के जीवन्त तीर्थ हैं। जो भी लोग अपने जीवन में सर्वोदय के साधना पथ को जानना और समझना चाहते हैं उनके लिये विनोबा के विचार एकदम सहज सरल हैं। अंदर बाहर एक समान, कहीं कोई बनावटीपन नहीं।

आजादी के बाद विनोबा ने निरन्तर चौदह वर्षों तक पदयात्रा की। देश के हर हिस्से और अड़ौस-पड़ौस के देशों में भी पैदल ही घूमे। विनोबा की पदयात्रा, याने हर दिन नयी जमीन और हर दिन नये आसमान तले जीने का प्रत्यक्ष अनुभव। हर दिन नये-नये लोगों के साथ सहजीवन। सुबह चार बजे लालटेन लेकर विनोबा की पदयात्री टोली निकल पड़ती, अपने नये पड़ाव की ओर। हमारे देश में पदयात्रा लोक-सम्पर्क और अध्ययन का बहुत पुराना तरीका है। आदि शंकराचार्य ने भी पैदल भ्रमण कर ही भारत की आत्मा और प्रज्ञा को आत्मसात किया था और भारत की लोक-संस्कृति को एकरूपता का दर्शन कराया था। संत विनोबा ने ब्रम्हविद्या का व्यापक स्वरूप हमारे मन में बैठाया।

गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन के पर्याय थे संत विनोबा। दुनिया के सारे धर्मों का गहन अध्ययन कर प्रत्येक धर्म का सार लिख देना मनुष्यता को विनोबा की साकार देन है। इस कारण उन्होंने सारे धर्मों के समन्वयक की भूमिका व्यापक रूप से निभायी। विनोबा का मानना था – हम बच्चों को जो कहानियां कहते हैं, वे एक ही धर्म की न होकर अनेक धर्मों की होना चाहिए। बच्चे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई नहीं होते, वे परमात्मा के बच्चे होते हैं। यानी वे धार्मिक, पांथिक नहीं होते हैं। बच्चे तो जन्मना शुध्द आध्यात्मिक स्वरूप के होते हैं। भारत देश का बड़ा वैभव है कि अनेक धर्मो के लोग यहां रहते हैं, इसलिए इस व्यापक दृष्टि से ही हमारा हर दिशा में समग्र और सारभूत चिन्तन होना चाहिए।

विनोबा ने ‘जय जगत’ कहा, याने मनुष्य का समग्र चिन्तन जागतिक और समूचा कृतित्व स्थानीय होगा, तो यही बात स्वावलम्बन और जागतिक जीवन का मूल आधार बनेगी। जहां हमारी देह का आवास है वहीं निरन्तर श्रमनिष्ठ जीवन, साथ ही राग द्वेष से परे बंधनमुक्त चिंतन से ओतप्रोत मन मस्तिष्क। यही ‘जय जगत’ का मूल विचार है। गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को बाबा ने – “सबै भूमि गोपाल की, सब सम्पत्ति भगवान की” – इस सूत्र के माध्यम से हम सबको सरलतम रूप में समझाया। ग्रामस्वराज्य से ही टिकाऊ स्वावलम्बी समाज बनेगा। गांव टिकेंगे तो देश टिकेगा।

भारत में जनसंख्या बढ़ रही है, यह गंभीर चिंतन, मनन की बात है, डरने की नहीं। चिंता की बात यह है कि निस्तेज प्रजा बढ़ रही हैं। प्रजा अगर तेजस्वी, कर्मयोगी और दक्ष हो, तो जो संख्या पैदा होगी, उसका भार सहन करने को यह वसुन्धरा समर्थ है, ऐसा विनोबा का विश्वास रहा है। लेकिन जो लाचार और निस्तेज प्रजा बढ़ रही है, ऐसा क्यों? ऐसा इसलिये कि देश में संयम का सहज वातावरण नहीं है। जो साहित्य लिखा जा रहा है, जो सिनेमा वगैरह चल रहे हैं, वे सब भारत देश के वातावरण को पूर्णत: लाचार और निस्तेज बना रहे हैं। ऐसे वातावरण में हमारी तालीम पर यह जिम्मा आता है कि हमारे बच्‍चे बचपन से ही संयमी बनें, तेजवान बनें, कर्मशील बनें।

‘हस्तसंयतो, पादसंयतो, वाचासंयतो’ – ऐसा बुद्ध ने कहा था। हस्तकौशल तो हम देखें, लेकिन हस्तसंयम भी देखें। इन्द्रिय-कौशल के साथ इंद्रिय संयम की भी शक्ति होनी चाहिए। जहां संयम की शक्ति नहीं है, वहां कौशल मनुष्य को बर्बाद करने के काम आता है। उससे मनुष्य को लाभ नहीं होता, केवल शक्ति में लाभ नहीं है, केवल कौशल में भी लाभ नहीं हैं। लाभ है, शक्ति का और कौशल का कल्याणकारी उपयोग करने में, लेकिन इस ओर हमारा ध्यान ना के बराबर है।

जीवन जीने की शिक्षा को समझाते हुए विनोबा जी कहते हैं – अर्जुन के सामने प्रत्यक्ष कर्तव्य करते हुए सवाल पैदा हुआ था। उसका उत्तर देने के लिए भगवद्गीता निर्मित हुई। इसी का नाम शिक्षा है। बच्चों को खेत में काम करने दो। वहां कोई सवाल पैदा होने दो, तो उसका उत्तर देने के लिए सृष्टि-शास्त्र अथवा पदार्थ-विज्ञान की या दूसरी जिस चीज़ की जरुरत हो, उसका ज्ञान दो। यह सच्चा शिक्षण होगा। बच्चों को रसोई बनाने दो। उसमें जहां जरूरत हो, रसायन शास्त्र सिखाओ। असली बात यह है कि उन्हें जीवन जीने दो। ‘शिक्षक’ नाम के किसी स्वतंत्र धंधे की जरूरत नहीं है, न विद्यार्थी नाम के मनुष्य-कोटि से बाहर के किसी प्राणी की। “क्या करते हो” पूछने पर, “पढ़ता हूं” या “पढ़ाता हूं”, ऐसे जवाब की जरूरत नहीं है। “खेती करता हूं” अथवा “बुनता हूं” ऐसा शुद्ध पेशेवर कहिए या व्यावहारिक कहिए, पर जीवन के भीतर से उत्तर आना चाहिए।

विनोबा ने बार-बार अध्ययन के विषय में चिंता प्रगट की है। क्रांति का वाहक, विचारों का परिचायक अध्ययन रहित हो तो कैसे चलेगा? कार्य का अपना महत्त्व है, लेकिन कार्यकर्ता के लिए ज्ञान का महत्व उससे भी अधिक है। अपने कार्य का, मिशन का, स्पष्ट दर्शन और निष्ठा अत्यंत जरूरी है। विचार की छानबीन तो होनी ही चाहिए। विविध विचारों का अध्ययन भी विचार-सफाई के लिए जरूरी है। इतना सब होने पर भी कार्यकर्ताओं का आपस में विश्वास और प्रेम का नाता न हो तो सामूहिक कार्य आगे नहीं बढ़ सकता। विनोबा कहा करते थे कि “शरीर में जो स्थान सांस का है, समाज में वह स्थान विश्वास का है,” लेकिन यह सारा सेवाकार्य, विचार-प्रचार आदि किसलिए? इस सारे सेवायोग को विनोबा ने भक्ति-मार्ग ही माना है। अर्थात् इस सेवायोग द्वारा चित्तशुद्धि प्राप्त कर आत्म-साक्षात्कार कर लेना है – ऐसी विनोबा की विराट दृष्टि है। सेवाकार्य अलग है और आध्यात्मिक साधना भिन्न, ऐसा विनोबा ने कभी नहीं माना। (सप्रेस)

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