कीर्ति त्रिवेदी

खादी, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम का एक सर्वमान्य प्रतीक है, सरकारी नीतियों के चलते क्या अपने मूल स्वरूप में बच पाएगी? क्या सर्वग्राही बाजार और आधुनिक फैशन उसे भी धीरे-धीरे ‘सिन्थेटिक’ वस्त्रों की जमात में शामिल नहीं कर देंगे?

बर्लिन में भारतीय समुदाय को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि आज़ादी के बाद पहली बार खादी का व्यापार 1 लाख करोड़ रूपये से ज़्यादा हुआ है और यह एक गर्व की बात है, लेकिन इसी से जुड़ा दूसरा तथ्य यह भी है कि ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ द्वारा देशभर में संचालित खादी-भंडारों में अब शुद्ध खादी मुश्किल से मिलती है। पोलीवस्त्र और मिल में बनी खादी ही अब खादी भंडारों में उपलब्ध मुख्य कपड़े होते हैं। शुद्ध खादी खादी भंडारों में मिलना बन्द कैसे हुई, इसकी एक कहानी है।

गाँधीजी के लिए चरखा और खादी करोड़ों भारतवासियों को स्वराज दिलाने का मुख्य तरीक़ा था। उन्होंने कहा था- ‘खादी वृत्ति’ का अर्थ है, संसार के प्रत्येक प्राणी के साथ अपनापा। इसका अर्थ है, प्रत्येक उस वस्तु का संपूर्ण त्याग जो हमारे भाइयों को हानि पहुँचा सकती है। गाँधीजी के अनुसार हमारी घरेलू अर्थ-रचना में देशी या विदेशी, किसी भी मिल के कपड़े का कोई स्थान नहीं है।

हाथ से कते, हाथ से बुने और प्राकृतिक धागे से बने कपड़े को खादी कहते हैं। सन् 1956 के खादी ग्रामोद्योग आयोग एक्ट में खादी की इस परिभाषा को और विस्तार दिया गया हैः कपास, रेशम और ऊन के धागों को हाथ से कातकर और हाथ से ही बुनकर बना कपड़ा खादी है। उक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि कपास के साथ पोलीएस्टर मिलाकर बने धागे से बुना कपड़ा खादी नहीं है। कपास का धागा पूर्णतः प्राकृतिक है। पोलीएस्टर प्राकृतिक नहीं, मनुष्य द्वारा बनाया पदार्थ है।

पोलीएस्टर पेट्रोलियम से बनता है, इथिलीन ग्लायकोल और टेरेफ्थालिक एसिड के सम्मिश्रण से। अधिकांश पोलीएस्टर बायोडिग्रेडेबल नहीं होते। इसका मतलब यह है कि पोलीएस्टर का कपड़ा 20 से 200 साल तक ज़मीन में नहीं जाएगा। पेट्रोलियम उद्योग दुनिया का सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाला उद्योग है। वैसे भी पोलीएस्टर पानी नहीं सोखता, इसलिए पोलीएस्टर के कपड़े पसीना नहीं सोख पाते। कपास के कपड़े पसीना सोखकर शरीर को स्वस्थ रखते हैं।

पोलीएस्टर खादी कैसे और कहाँ से आई? 1970 के दशक में पोलीएस्टर और कपास के रेशे को मिलाकर खादी का एक नया स्वरूप विकसित किया गया जिसे पोलीएस्टर-खादी कहा गया। संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों के सांसदों ने पोलीएस्टर खादी के विचार का विरोध किया। एक विशेष संसदीय समिति गठित की गई। जार्ज फ़र्नाडिस ने ‘खादी एक्ट’ में संशोधन का एक प्रस्ताव रखा जिसके पास होने से पोलीएस्टर खादी को मान्यता मिली। ग़ाज़ियाबाद, उत्तरप्रदेश की ‘स्वदेशी पोलीटेक्स लिमिटेड’ कपड़ा बनाने के इतिहास में पहली ऐसी कम्पनी बनी जिसने संसदीय विधान को बदलकर उत्पादन करने की अनुमति पाई।

शुद्ध खादी बनाने के लिए प्राकृतिक कपास लगता है। अलग-अलग जगहों के कपास का रंग थोड़ा अलग होने से खादी में एक प्राकृतिक विविधता और असमानता होती है जो उसकी विशेषता है। आजकल जो खादी के नाम से बेचा जा रहा है, वह खादी जैसा दिखने वाला हैंडलूम का कपड़ा या मिल के धागे से बना और स्क्रीन प्रिंटिंग से छपा पोलीएस्टर-युक्त कपड़ा होता है। भारत सरकार ने अपने सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के यूनिफ़ॉर्म के लिए पोलीवस्त्र अनिवार्य किया है। इनमें रक्षा मंत्रालय, रेल मंत्रालय, संचार मंत्रालय आदि आते हैं। इससे खादी के उपयोग को बढ़ावा मिलेगा यह तर्क दिया जाता है।

पिछले साल भारत के राष्ट्रीय ध्वज मानक 2002 में गृह मंत्रालय ने संशोधन किया और राष्ट्रीय ध्वज को पोलीएस्टर से और फ़ैक्ट्री में बनाने को मान्यता दे दी गई। इससे पहले राष्ट्रीय ध्वज केवल खादी और हाथ की सिलाई से ही बनना मान्य था। ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव’ के ‘हर घर तिरंगा’ कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए यह संशोधन किया गया। इस कदम से एक ओर तो पोलीएस्टर उद्योग को बहुत फ़ायदा हुआ वहीं दूसरी ओर हज़ारों खादी कार्यकर्ताओं, बुनकरों, रंगरेजों और सिलाई करने वाली महिलाओं से उनकी आय बढ़ाने का एक मौक़ा छीन लिया गया।

दुनिया में पोलीएस्टर की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 6 किलोग्राम है, जबकि भारत में यह 3 किलोग्राम और चीन में 11 किलोग्राम है। कपास की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत विश्व में 28 किलोग्राम, भारत में 54 किलोग्राम और चीन में 18 किलोग्राम है। इससे स्पष्ट है कि कपास की खपत को गिराकर ही भारत में पोलीएस्टर की खपत बढ़ाई जा सकती है। भारत के कपड़ा उद्योग का औद्योगिक उत्पादन में 14 प्रतिशत योगदान है, 6 प्रतिशत जीडीपी में और 17 प्रतिशत निर्यात कपड़ा उद्योग से है। यह भारत में कपास की खेती करने वाले लाखों किसानों और बुनकरों की मेहनत का नतीजा है, जिसे सुनियोजित तरीक़े से हटाकर पोलीएस्टर को बढ़ावा देने का कार्यक्रम चल रहा है।

मई 2021 में दिया गया एक ट्रिब्युनल का फ़ैसला, असली खादी के खादी भंडारों से ग़ायब होने का एक और कारण बना है। इस फ़ैसले के अनुसार ‘खादी’ एक आम भाषा का शब्द न होकर, ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ का ‘ट्रेडमार्क’ है और केवल उसे ही अपने कपड़े को खादी कहने का वैधानिक अधिकार है। ‘नेशनल एक्सचेंज आफ इंडिया डोमेन डिस्प्यूट पालिसी आर्बिट्रेशन ट्रिब्युनल’ ने – ‘खादी आम भाषा का शब्द है और इसलिए ट्रेडमार्क नहीं हो सकता’ – इस दावे को ख़ारिज किया। ट्रिब्युनल ने कहा कि ‘यह निर्विवाद तथ्य है कि खादी ग्रामोद्योग आयोग ही ‘खादी-खादी इंडिया’ ट्रेडमार्क का वैधानिक स्वामी है और उसने यह अधिकार ‘ट्रेडमार्क एक्ट – 1999’ के ‘सेक्शन – 17’ के प्रावधानों से पाया है। क़ानून की दृष्टि से यह फ़ैसला सर्वथा ग़लत है, क्योंकि सौ साल से ज़्यादा समय से ‘खादी’ आम भाषा के शब्द के रूप में उपयोग होता आ रहा है। खादी पर गाँधीजी के 1922 में लिखे गए लेख इसका प्रमाण हैं। इसलिए ‘खादी’ को ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ का ‘ट्रेडमार्क’ करार देना और उसे ‘खादी’ शब्द का पूर्ण स्वामित्व देना सर्वथा ग़लत है।

यह एक विडंबना ही है कि उसी ‘खादी कमीशन’ ने ‘अरविन्द मिल्स’ से अहमदाबाद में एक करार किया है जिसके अन्तर्गत ‘अरविंद मिल्स’ की बनाई खादी, डेनिम और अन्य खादी उत्पादों को खादी आयोग का प्रमाणपत्र दिया गया है। जहां ‘अरविन्द,’ ‘रेमंड्स’ जैसी विशाल मिलों को खादी का प्रमाणपत्र दिया जा रहा है, वहां आम बुनकर के लिए ‘खादी मार्क’ प्रमाणपत्र पाना लगभग असंभव है। प्रमाणित करवाने के लिए आनलाइन आवेदन करना पड़ता है, कम-से-कम 25 कारीगरों का समूह ही आवेदन कर सकता है और पूरी प्रक्रिया में लगभग 50,000 रुपये का खर्च आता है, जो आम बुनकर की आर्थिक क्षमता में संभव नहीं है। इसका सीधा असर यह हुआ है कि खादी उत्पादन अब बुनकरों के हाथ से निकल कर व्यवसायियों के हाथ में चला गया है। खादी बनाने में उपयोग किए जाने वाला धागा केवल ‘खादी कमीशन’ या ‘काटन कार्पोरेशन आफ इंडिया’ से ही लेना अनिवार्य है। अपने गाँव के खेत की कपास से बना कपड़ा अब खादी नहीं माना जाएगा।

गाँधीजी ने ‘यंग इंडिया’ के 10.5.1928 के अपने लेख में मिलों में खादी बनाने के बारे में लिखा था – ‘यह तो स्पष्ट ही ग़रीबों के मुँह का कौर छीन लेना है और वह भी एक ऐसे आन्दोलन के मार्फ़त जिसका हेतु करोड़ों भूखों की सहायता करना था। इससे अधिक नीचता और क्या हो सकती है?’ नमक की बिक्री पर ब्रिटिश सरकार के एकाधिकार के विरोध में गाँधी जी ने ‘नमक सत्याग्रह’ किया था। खादी आयोग ने खादी के व्यापार में वैसा ही एकाधिकार कर असली खादी बनाने वालों का खादी बेचने का हक़ और उनका स्वराज छीन लिया है। क्या ‘खादी सत्याग्रह’ का समय आ गया है? (सप्रेस)

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