अनुराग बेहार

हमारा शिक्षा तंत्र बुनियादी समझ विकसित करने में जितना विफल रहा है उतना ही विफल आर्थिक एवं अन्य उद्देश्यों को पूरा करने में भी रहा है। युवाओं में बेरोजगारी एवं अल्प रोजगार दर बढ़ाने में इस तंत्र की मुख्य भूमिका रही है। बेशक इसकी एक वजह पर्याप्त संख्या में नौकरियों व आजीविका के नए अवसर पैदा न होना है परंतु निश्चित रूप से हमारी स्कूली व उच्च शिक्षा प्रणाली भी इस समस्या का एक हिस्सा है।

आप अपने बच्चों को स्कूल क्यों भेजते हैं? उन्हें शिक्षित क्यों करना चाहते हैं? – मैंने पूछा।  

अपनी अलग अलग यात्राओं के दौरान चाहे वे गढ़वाल क्षेत्र के कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग से पूर्वी छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर या दक्षिण कर्नाटक के चामराजनगर के तमाम छोटे कस्बे एवं गाँव हों, इन सभी जगहों में उपरोक्त प्रश्नों पर लगभग एक जैसे ही जवाब मिले। और देखा जाये तो कई वर्षों से यही जवाब चले आ रहे हैं। ये जवाब मुख्यत: तीन हिस्सों में हैं – पहला, बिना शिक्षा के आज समानता नहीं है। दूसरा, दुनिया से व्यवहार/निपटने के लिए शिक्षित होना बहुत ज़रूरी है, और तीसरा अच्छे रोजगार के लिए शिक्षा बहुत ज़रूरी है। जैसा की हमारी नीतियों में भी दर्शाया गया है, आम व्यक्ति कि ये अपेक्षाएँ सीधे तौर पर शिक्षा के उद्देश्यों और हमारे पाठ्यचर्या संबन्धित लक्ष्यों से जुड़ती है।

हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा शिक्षा तंत्र बुनियादी समझ विकसित करने में जितना विफल रहा है उतना ही विफल आर्थिक एवं अन्य उद्देश्यों को पूरा करने में भी रहा है।

युवाओं में बेरोजगारी एवं अल्प रोजगार दर बढ़ाने में इस तंत्र की मुख्य भूमिका रही है। बेशक इसकी एक वजह पर्याप्त संख्या में नौकरियों व आजीविका के नए अवसर पैदा न होना है परंतु निश्चित रूप से हमारी स्कूली व उच्च शिक्षा प्रणाली भी इस समस्या का एक हिस्सा है।

देखा जाए तो हमारी शिक्षा प्रणाली में मूलभूत गुणवत्ता और समता की विफलताओं का सभी मामलों पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ता है, जिसमें नौकरियों तक पहुँच और रोजगार तक पहुँच भी शामिल है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था और इसके दृष्टिकोण की दो मुख्य विशेषताएँ हैं जो आजीविका एवं रोजगार के मुद्दों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है, पहला यह कि हमारे समाज में शिक्षा में मस्तिष्क/सोच से किए जाने वाले कार्यों को उच्च दर्जा प्राप्त है बनिस्बत ‘हाथों द्वारा किए गए कार्यों’ के। अर्थात ‘हाथों से काम करना’ को हम बहुत ही निम्न स्तर के कार्य के रूप में आँकते हैं। इसकी पुष्टि न सिर्फ इस बात से होती है कि ‘व्यावसायिक शिक्षा’ को ‘अकादमिक शिक्षा’ की तुलना में कमतर माना जाता है बल्कि अकादमिक शिक्षा के क्षेत्र में भी ‘काम करने’ को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जाता। जिस तरह विज्ञान विषय में ‘प्रेक्टिकल’ को मूल्यांकन की प्रक्रियाओं के अंतर्गत बहुत ही कमतर आँका जाता है उसी तरह इंजीनीयरिंग कॉलेजों में  भी अभ्यास करने के बजाए बैठने और लिखने पर अधिक ज़ोर दिया जाता है।

दूसरा, यह दृष्टिकोण ‘चीजों को करने की क्षमता’ के विकास पर बहुत ही कम या कहें बिलकुल ध्यान नहीं देता, जिसे आमतौर पर ‘कौशल’ कहा जाता है। ‘कौशल’ मुख्य तौर पर हाथों से विभिन्न तरह (संचार, लोगों के साथ कार्य एवं अन्य) के कार्य करने का ढंग है। इसके कई निहितार्थ हैं। सबसे पहला तो यही कि यह ज्ञान और कौशल में कृत्रिम अलगाव पैदा करता है। जबकि वास्तव में ‘क्या जानें’ एवं ‘कैसे जानें’ में आपस में गहरा संबंध है अत: बेहतर प्रभाव के लिए आवश्यक है कि हाथ और दिमाग (दिल भी) मिलकर कार्य करें।

एक और निहितार्थ है व्यावसायिक एवं अकादमिक शिक्षा की एक दूसरे से दूरी। पिछले कुछ दशकों में एक ‘सम्पूर्ण कौशल प्रशिक्षण तंत्र के उदय’ के कारण इन दोनों के बीच की खाई और अधिक गहरी हुई है।

देखा जाए तो हमने दो अविकसित एवं अपर्याप्त तंत्र बनाए हैं। एक हमारा अकादमिक शिक्षा तंत्र जो ‘कैसे जानें’ अथवा जानने की प्रवृत्ति को नज़र अंदाज़ करता है। और दूसरा कौशल प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा प्रणाली है जो ‘क्या पता है’ के अभाव में उथली हुई प्रतीत होती है। इस पूरी प्रक्रिया में हमने सामाजिक धारणाओं/पूर्वाग्रहों को प्रबल किया है और उन लोगों के बीच असमानताओं को और गहरा किया है जो अकादमिक शिक्षा तक पहुँच सकते हैं और जिन्हें व्यावसायिक शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण हेतु मजबूर किया जाता है। देखा जाये तो हमारे सिस्टम की संरचना ही इसी प्रकार की है। गुणवत्तापूर्ण परिणाम एक अलग मुद्दा/प्रश्न है।

हालांकि उम्मीद अभी भी बाकी है, उम्मीद हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लागू होने से हम ऐसे कई मुद्दों का समाधान कर पाएंगे। सर्वप्रथम यह नीति शिक्षा के लक्ष्यों में ‘मस्तिष्क द्वारा किए गए कार्यों’ एवं ‘हस्तकार्यों’ की बराबरी सुनिश्चित करती है और यह स्वीकारती है कि ‘कैसे जानें’ एवं ‘क्या जानें’ को अलग नहीं किया जा सकता।

दूसरा, यह अकादमिक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा एवं कौशल प्रशिक्षण के बीच के अंतर को खत्म करता है तथा शिक्षा तंत्र के अंतर्गत स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक इन सभी पहलुओं को एकीकृत रूप से शामिल करता है, ताकि इस खाई को पाटा जा सके।

तीसरी बात यह है कि इसमें कई छोटे-छोटे मुद्दे शामिल किए गए हैं जैसे सभी बच्चों के लिए व्यावसायिक शिक्षा कोर्स की सुनिश्चितता न कि केवल उनके लिए जो अकादमिक दुनिया में अपनी पहुँच नहीं बना पाए। जो निश्चित तौर पर करने एवं सोचने के बीच के पदानुक्रम को तोड़ने में मददगार होगी। इसमें यह भी सुनिश्चित किया गया है कि व्यावसायिक शिक्षा एवं कौशल प्रशिक्षण को सबसे प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। इससे आसपास की दुनिया में सीखी जा रही तमाम विषयों की सामग्रियों को आपस में जोड़ने संबन्धित शैक्षणिक नज़रिये का छात्रों पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त और भी कई बातें इस नीति का हिस्सा है ।

तंत्र की कमियों को दूर करने से ऐसे लोगों को आगे बढ़ने में मदद मिलेगी जिनके पास स्कूल में ही बच्चों को काम के अनुरूप ढलने और तेजी से बदलते श्रम बाज़ारों के अनुकूल तैयार करने की क्षमता है। हालांकि यह इस पूरे मसले का मात्र एक पक्ष है। इसका दूसरा हिस्सा हमारी अर्थव्यवस्था में बेहतर एवं पर्याप्त रोजगार पैदा करने की बात करता है। निस्संदेह, इसके लिए अच्छे रोजगार सृजन को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है क्योंकि एक बेहतर शिक्षा तंत्र मात्र युवाओं के लिए सकारात्मक दीर्घकालिक आर्थिक मार्ग की ओर नहीं ले जा सकता।

अत: रोजगार सृजन के लिए हमें एक ऐसी बेहतर राष्ट्रीय रणनीति की तत्काल आवश्यकता है जिसमें न सिर्फ हमारे देश की वास्तविकता का खयाल रखा जाए जो वैश्विक, आर्थिक एवं तकनीकी बदलाव के लिए भी पूरी तरह से जिम्मेदार हो। हमें यह गहराई से समझना होगा कि ‘आर्थिक तरक्की के लिए भले ही अच्छी शिक्षा एक अनिवार्य शर्त है लेकिन यही एकमात्र शर्त नहीं हैं’।

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