राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति – 2020

अनुराग बेहार

पिछले महीने आई ‘राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति – 2020’ को लेकर राजनीतिक दलों और शिक्षा के काम में लगे कई समूहों में बेचैनी है। वे मानते हैं कि इस नीति की दम पर शिक्षा का निजीकरण किया जा सकता है और निजीकरण, जाहिर है, समाज के हाशिए के लोगों को कोई लाभ नहीं पहुंचाता। क्‍या सचमुच इस नीति में निजीकरण की वकालत ही की गई है?

केंद्रीय मंत्रिमंडलद्वारा 20 जुलाई को अनुमोदित राष्ट्रीय नीति 2020 (एनईपी) ने 1986 की नई शिक्षा नीति की जगह ले ली। हालांकि ऐसा नहीं है कि इन 34 वर्षों में हुए हस्तक्षेपों से शैक्षिक नीतियों में बदलाव या सुधार नहीं हुआ है। लेकिन तीन दशकों से भी अधिक समय के बाद भारतीय शिक्षा के लगभग सभी पहलुओं को संबोधित करते हुए एक व्यापक नीति बनाई गई है।

यह ख्याल रखना अहम होगा कि एनईपी क्या नहीं है। यह क्रियान्‍वयन योजना नहीं है। क्रियान्‍वयन योजना को अब केंद्र व राज्यों द्वारा विकसित किया जाना चाहिए। यह कोई कानून भी नहीं है जिसमें संसद और राज्य विधानसभाओं इन दोनों के द्वारा इसके क्रियान्‍वयन के लिए कई मामलों में विधायी कार्यवाही की जरूरत होगी।

एनईपी के मूलतत्व की बात की जाए तो यह एक सुसंगत ढांचा है जो प्रासंगिक तंत्र, संस्थानों, मानदंडों और संसाधनों के जरिए भारत की शिक्षा के लक्ष्यों व उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बनाया गया है। 66 पन्नों का यह दस्तावेज कस्तूरीरंगन समिति द्वारा विकसित 484 पृष्ठों के राष्ट्रीय नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट (डीएनईपी) पर आधारित है जो मई 2019 को केंद्र को प्रस्तुत किया गया था। मैं डीएनईपी की ड्राफ्टिंग समिति का सदस्य था।

कुछ ही मामलों मे एनईपी, डीएनईपी से काफी हद तक विचलित हुई है। डीएनईपी में प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (एजुकेशन कमीशन) को एनईपी में स्थान नहीं मिला है। लेकिन इसकी गौरमौजूदगी डीएनईपी की भावना या इरादे को कमजोर नहीं करती है। कुछ और मामले भी हैं जिनका मैं यहां उल्लेख नहीं करूंगा। मैं उन छोटे अंतरों की संकीर्णता (नार्कोसिस्म ऑफ स्माल डिफरेंस) का शिकार नहीं होना चाहता जिन पर मैंने अन्य क्षेत्रों में लिखा है जिसमें किसी बड़े समझौते के बावजूद, असहमति पर अपनी ऊर्जा को बेवजह खर्च करूं। 

शिक्षा नीति पूरी तरह से विवादास्पद मामला है। लिहाजा सभी लोगों की उम्मीदों और आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए ही इसे निवेश किया जाता है। गहरे अर्थों मेंसत्ता, राजनीति और विचारधारा के लिए – शिक्षा नीति एक साधन, प्रक्रिया और रंगमंच है। ज्ञानात्मक सुदृढ़ता और शैक्षिक प्रभावशीलता को सुनिश्चित करते हुए इन सब पर समझौता करते हुए और सीमित संसाधनों के साथ इसे लागू करना चाहिए।

इसलिए एनईपी के लिए सकारात्मक व्यापक प्रतिक्रिया गौरतलब है। यहां तक कि विपक्षी राजनैतिक दलों के कुछ नेता भी इसकी सराहना करने के लिए बाध्य हुए हैं। शिक्षा से जुड़े लोगों द्वारा इसे समान रूप से सकारात्मकता के साथ स्वीकार किया जबकि कुछ ने इसका तीव्र विरोध किया है।

चूंकि शिक्षक (एज्यूकैटर्स) अहम भूमिका अदा कर सकते हैं, इसलिए इस क्षेत्र में मुझे सभी को एनईपी के क्रियान्‍वयन का पूरे मनोयोग से समर्थन करने के लिए मनाने की कोशिश करना चाहिए। साथ ही रचनात्मक आलोचना भी की जानी चाहिए जिससे इसमें सुधार हो सके। मैं केवल उन्हें ही राजी नहीं करूंगा जो व्यक्तिगत अपनी ताकत के नुकसान या व्यावसायिक हितों को झटका लगने की आशंका के कारण नकारात्मक प्रतिक्रिया दे रहे हैं। वे कुछ लोग अगर यह स्वीकार करें कि यह कोई क्रियान्‍वयन योजना नहीं है तो वे अपने द्वारा किए जा रहे हमलों को रोक सकते हैं। दरअसल उनकी खीज यह है कि ‘यह सब कुछ कैसे होगा‘ को लेकर है। दूसरों के एनईपी को लेकर अपने स्वयं के विशिष्ट मतभेद हैं जो उनकी प्रतिक्रियाओं को प्रभावित कर सकते हैं। उन्हें यह तय करना चाहिए कि कुछ असहमतियों पर पूरी नीति का विरोध करना कहां की समझदारी है।

इस हालात में ऐसे कईं लोग हैं जो एनईपी की भाषा और उसमें विवरण के अभाव से आशंकित और निराश हैं। उन लोगों को एनईपी का पाठ्य कईं मामलों में अस्पष्ट और टालमटोल करने वाला लगता है। यह तो प्रत्याशित ही है, क्योंकि किसी भी सरकार की औपचारिक लिखित भाषा स्वभाव से एहतियात लिए होती है। लेकिन यह निर्विवाद रूप से समस्याओं को जन्म दे सकती है। अभी ही नहीं बल्कि लंबे समय तक। असावधानीवश चूक वाली और प्रेरित दोनों व्याख्याएं संभव है और ये दोनों ही अच्छी शिक्षा के लिए विरोधी हो सकती है। दर्शन शास्त्र में ‘प्रिंसीपल ऑफ चेरिटी‘ इसका एक प्रभावशाली प्रत्यूत्तर हो सकता है। इसका मतलब है कि किसी लिखे हुए की सर्वोत्तम और सबसे मजबूत संभव व्याख्या का आरेख तैयार करना और उसे जल्दी से लागू करने के लिए पीछे से जोर लगाना। इस प्रकार चीज़ों को निर्धारित करना की बाद में छेड़छाड़ करना मुश्किल हो।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो नीति का विरोध कर रहे हैं क्योंकि केंद्र में राजनीतिक दल का विरोध करना उनकी मजबूरी है। कुछ का मानना है कि एनईपी का मूलपाठ ज्यादातर बढ़िया है लेकिन यह सरकार इसे कभी लागू नहीं करेगी। अन्य लोग सरकार के विरोध के कारण नीति के मूलपाठ की सबसे खराब व्याख्याएं कर रहे हैं। और फिर ऐसे लोग भी हैं जो बिना पढ़े ही एनईपी पर हमला करते दिखते हैं।

एनईपी का विरोध करना एक निष्प्रभावी राजनीतिक रणनीति है। एक शिक्षा नीति का विरोध करके किसी शक्तिशाली राजनीतिक दल को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। इसके बजाय वे एनईपी को ‘प्रिसीपल ऑफ चेरीटी‘ की रोशनी में अगर चीज़ों को देखें तो उन्हें वे सब मिलेंगी जो उन्होंने दशकों से शिक्षा के क्षेत्र में खुद लड़ी हैं। उदाहरण के लिए सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को एक जीवंत लोकतांत्रिक समाज की नींव के रूप में मजबूत करने के लिए इसके प्रति स्पष्ट प्रतिबद्धता। और फिर वे भी उन मामलों को अच्छी तरह से लागू करने के पीछे अपनी ताकत लगा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, यदि वे उन कथनों पर भरोसा नहीं करते हैं जैसा कि वे नीति में है तो वे उन कथनों को हकीकत बनाते हुए उन्हें दिखावा या चूक कह सकते हैं। ऐसे लोगों में से अनेक गहरे प्रतिबद्ध शिक्षक हैं। एनईपी के मामले में उन्हें शिक्षक के रूप में कार्य करने की जरूरत है न कि राजनेताओं के रूप में।

हमारे लिय भारतीय शिक्षा में यह एक ऐसा क्षण है जो प्रभावशाली हो सकता है। इसे प्रभावशाली बनाना हमारे ऊपर है। राजनीति, विचारधारा या असहमतियों के बावजूद, अगर हम एनईपी का हित में इस्तेमाल करते हैं और इसे हितकारक बनाते हैं तो हम शिक्षा को बदल देंगे और इस प्रकार भारत को बेहतर बनाने में मदद कर सकेंगे। (मिंट में प्रकाशित आलेख से अनुदित)

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