प्रो. कन्हैया त्रिपाठी

तीन मई को मणिपुर के एक शहर चूराचांदपुर में मैतेई समाज को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के खिलाफ निकाले गए विशाल जुलूस के बाद भड़की भयानक हिंसा ने अब समूचे उत्तर-पूर्व को अपनी चपेट में ले लिया है। ऐसे में लोकतंत्र के सभी ‘स्तंभ’ निस्तेज और नकारा साबित हो रहे हैं। इन हालातों में आखिर क्या किया जाए? इस पर राय देता प्रो. कन्हैया त्रिपाठी का यह लेख।

हिंसा में लिप्त राज्य कभी भी उन्नति नहीं कर सकते, बल्कि उनकी संपूर्ण शांति पर ग्रहण लग जाता है। क्या भारत की भी कहानी मणिपुर जैसे हालात के साथ ऐसी ही स्थितियों की ओर बढ़ चली है? मणिपुर में दो लड़कियों के साथ सामूहिक बर्बर वारदात से पूरा देश बौखला गया है। सब सोच रहे हैं कि मणिपुर में ऐसा कैसे हो गया, लेकिन भारत में लोग बौखलाते बहुत हैं, पर उनकी बौखलाहट क्षणिक होती है। कुछ दिनों बाद पूर्ववत हो जाते हैं और ऐसी बर्बर व शर्मसार घटनाएँ पुनः घट जाती हैं। निर्भया-काण्ड के बाद दिल्ली में स्त्री सम्मान की सुरक्षा के लिए जो आन्दोलन हुआ वह अब पन्नों में दब गया है। उसके बाद न जाने कितनी घटनाएँ होती रहीं, पर देश में दावे और राजनीति की शिकार व्यवस्था स्त्रियों के लिए कुछ ठोस नहीं कर सकी।

भारत के लिए सच कहा जाए तो एक घटना के बाद फूटा गुस्सा जैसे ही ठंडा होता है, एक ऐसी ही ह्रदयविदारक नई घटना जन्म लेती है, फिर लोग आक्रोशित होते हैं। सवाल यह है कि इस पुनरावृत्ति से कोई भी हल निकलने वाला है क्या? उत्तर सभी जानते हैं कि बिलकुल नहीं, क्योंकि गुस्सा तो ‘कानून-व्यवस्था’ को संचालित कर रहे नेतृत्व को आना चाहिए। उसका क्रोध लुप्त सा है जिससे आज तक कुछ सकारात्मक पहल नहीं हो सकी। तो फिर आम आदमी के आक्रोश व गुस्से से केवल मीडिया की बाइट्स तैयार होंगी, हल नहीं निकलेगा। भारत की संवैधानिक शक्तियों के सहारे भारत की शासन व्यवस्था खूब चल रही है, लेकिन दुखद यह है कि भारत के मणिपुर और दूसरे कई राज्यों में हिंसाएँ हो रही हैं।  

मणिपुर में कुछ ज्यादा ही वीभत्स स्थिति हो गई थी जिससे पूरे देश का गुस्सा फूटना अवश्यम्भावी हो गया था। यदि इसके बाद भी उन बहनों की सिसकियों को सुनकर दुःख व चिंता के दो शब्द नहीं फूटें तो समझ जाओ वह मनुष्य नहीं, अधम है। इसको यूं न सोचें कि वहां पर कैसे ऐसा हो सकता है, बल्कि पीडिता की जगह खुद को रखकर व एहसास करके देखें तो रूह काँप जाएगी। मणिपुर में इतनी बड़ी हैवानियत कि निर्वस्त्र करके दो लड़कियों के साथ हज़ार पुरुष खेलते रहे, उनके प्राइवेट पार्ट्स के साथ खिलवाड़ करते रहे और उन्हें पुलिस ने महीनों बाद अब जाकर गिरफ्तार किया। वैसे मणिपुर में करीब 12 हफ्ते से हिंसा हो रही है। विडंबना यह है कि लोग, घर, संपत्तियां सब जले, जीवन का स्वर्णिम क्षण जलता रहा, लेकिन सब मौन होकर इसे देखते रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रदेश सरकार इंटरनेट बंद करके निश्चिंत हो गई कि होने दो, इस हिंसा व रक्तपात से कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ने वाला है।  

पूर्वोत्तर के राज्य व मणिपुर में वर्षों पहले स्थितियां बद-से-बदतर रहीं। उसके कारण कुछ और थे। उन दिनों स्त्रियाँ निर्वस्त्र, नग्न होकर भारत सरकार से मिलिट्री हटाने की मांग कर रही थीं, लेकिन मणिपुर में अब आज़ादी के 75 वर्ष बाद ‘अमृतकाल’ में भी कुछ नहीं बदला। अब तो भारत की बेटी को निर्वस्त्र करके घुमाया जाने लगा है। यह देश का दुर्भाग्य है कि भारत में मनुष्यता को तार-तार किया जा रहा है और दुर्भाग्य अपने होने पर इतरा रहा है। मणिपुर के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि ऐसी अनेकों घटनाएँ मणिपुर में होती रहती हैं, जबकि राज्यपाल एक इंटरव्यू में कहती हैं कि मुझे मणिपुर जैसी जघन्य स्थितियां देखने व सुनने को नहीं मिलीं, ऐसा मैंने अपने जीवन में कभी न देखा और न सुना। मैं मणिपुर की घटना से बहुत दुखी हूँ।  

इस बीच एक महत्त्वपूर्ण वक्तव्य मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड की ओर से आया है कि मणिपुर की घटना बर्दाश्त से बाहर हो गई है, इस पर सरकार ने कार्रवाई नहीं की तो हम करेंगे। यह हिदायत और सन्देश केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को है। मुख्य न्यायधीश का यह कथन मामूली ही लगा। वीडियो वायरल होने के बाद महिलाओं द्वारा जो पीड़ा, बर्बरता और अमानवीयता की स्थितियां सामने आईं, उस पर तो स्वतःसंज्ञान लेकर मुख्य न्यायधीश को प्रदेश के मुख्यमंत्री को बर्खास्त करने और पुलिस की आलाकमान को सश्रम कारावास की सजा देनी चाहिए थी। केंद्र सरकार से भी इस पर स्पष्टीकरण मांगने चाहिए थे कि इतने लम्बे समय से मणिपुर जल रहा है, आपके पास आईबी है, सीबीआई है और दूसरी खुफिया एजेंसीज हैं, आप सूचना के अभाव में रहे या जानबूझकर चुप रहे? यदि जानबूझकर चुप रहे तो इसके पीछे क्या वजहें हैं? इस संपूर्ण हिंसा में क्षति की प्रतिपूर्ति कौन करेगा?

वर्तमान स्थितियों में मीडिया पर भी बड़ा सवाल है। मीडिया असली चेहरा सामने आ जाने के बाद अब बडबडा रहा है, बुदबुदा रहा है, ढोंग कर रहा है। वैसे तो मीडिया के लोग बड़े-बड़े दावे करते हैं कि वे सब जानते हैं, सब सच दिखाते हैं, सबसे आगे हैं, नंबर एक हैं, लेकिन मणिपुर ने बता दिया कि मीडिया वाले जो दावा करते हैं, वह सफ़ेद झूठ है। जब वीडियो वाइरल हुआ तो सबके चैनल से शोर निकला कि हम शर्मसार हैं, देश शर्मसार है, पर वे अब तक कहाँ थे? घटना तो मई की है, तब से ये लोग कहाँ थे? क्यों नहीं दिखाए सच, सबसे आगे, सबसे तेज?

सामूहिक अपराध की बढती प्रवृत्ति भारत के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। अपराध आने वाले समय में तेजी से बढ़ेंगे, ऐसी आशंका है, क्योंकि अब जनभागीदारी से सहयोग की जगह जनभागीदारी से अपराध,  हिंसा, बलात्कार जैसी घटनाएँ ज्यादा हो रही हैं। यह ‘स्वच्छ प्रशासन’ और ‘कानून व्यवस्था’ के लिए खतरा है। सामाजिक स्थितियां यदि हिंसक हो जाएँगी तो देश का क्या होगा, सोचकर मनुष्यता में विश्वास करने वाले लोग, सहिष्णु सभ्यता के हितधारक दुखी हो जाते हैं। सबसे अहम् बात यह है कि इस अपराध व हिंसा में युवाओं की संख्या बढी है जो भावी सामाजिक संरचना के लिए पीड़ादायी बनने वाले हैं। 

देश के प्रधानमंत्री ने मणिपुर की घटना पर गहरा रोष व्यक्त तो किया, लेकिन देरी से। विपक्ष इसे काफी नहीं मान रहा है। काफी है भी नहीं, क्योंकि प्रधानमंत्री से देश उम्मीद करता है। जब राज्य सरकारें व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में विफल होती दिखें तो नागरिक प्रधानमंत्री से ही उम्मीद करेंगे, यह स्वाभाविक भी है। मणिपुर मामले में कहीं-न-कहीं चूक तो हुई है। मणिपुर की क्रूर सचाई आज सबके आक्रोश का विषय बन गई है। आग जो मणिपुर में है वह और भी जगह फ़ैल सकती है। ये आदतन अपराधी बनते अन्य नागरिकों को हिंसा और बर्बरता से अभिशप्त कर सकती हैं। पडौसी राज्य मिजोरम में इसके संकेत मिलना शुरु भी हो गए हैं। आज अच्छा यही होगा कि भारत की ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की विरासत को बचा लें। मानवता की रक्षा करें, नहीं तो हमारे लिए यह सब काला धब्बा बन जाएगा और दुनिया हमारा मजाक उड़ाएगी। (सप्रेस)

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