अरुण डिके

चहुंदिस फैली कोरोना की मारामार में यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि आखिर इस व्याधि से कैसे निपटा जा सकता है? हमारे समाज में ही कुछ लोग हैं जो अपने कामकाज से इसके संकेत देते रहे हैं।

कोरोना वायरस की विपदा को सालभर से ऊपर हो चुका है, लेकिन हमारा समाज आज भी भयभीत है। कोरोना से कम, उसके डर से ज्यादा। ये डर उन लोगों में ज्यादा है जो पढ़े-लिखे हैं, भद्र समाज में आधुनिक सुविधाओं के साथ जीते हैं, अधिकतर धनवान हैं और शहरों में रहकर व्यापार, व्यवसाय और रोजगार में लिप्त हैं। जबकि दूर-दराज के गांवों में, जंगलों में सुबह-शाम की रोटी की तलाश में व्यस्त चरवाहा, गडरिया या हाली इस वायरस से उतना प्रभावित नहीं दिखता।  

तो क्या ये साक्षर-निरक्षर का भेद है? नहीं ! ये डर अपनी भारतीयता खोते हुए समाज में फैला डर है। कहने को हम सकुचाते नहीं हैं कि ये हजारों सालों की संस्कृति और सभ्यता संभाले हुए देश की धरती है। ये हमारी भारत माता है, ये राम और कृष्ण की भूमि है, लेकिन जिन हजारों ऋषि-मुनियों ने, साधु-संतों ने धन-धान्य की विपुलता और जैव-विविधता को संरक्षित कर भारतवर्ष खड़ा किया है, उसकी समझ हममें कितनी है? पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों में मग्न हमारे समाज ने भारतीयता कितनी संरक्षित की है? कितनी पाठशालाओं और कॉलेजों में विद्यार्थी हजारों जनजातियों में बंटा, फिर भी एक माला में पिरोया हुआ भारत सीखते हैं?

भारत की 7 लाख जनता से 44 लाख एकड़ भूमि भूदान के नाम से प्राप्त करने वाले विनोबा भावे में वह भारतीयता कूट-कूट कर भरी थी। भारतीयता का यह गुरू मंत्र उन्होंने अपनी माँ से ही सीखा था कि पेट भर अन्न, अंग भर वस्त्र और सिर पर छप्पर के अलावा कुछ भी अपने पास नहीं रखना। सन् 1951 से 1964 तक भारत की 60 हजार किलोमीटर भूमि पैरों से नापते इस संत ने जो किताबें लिखीं वो लाखों प्रतियों में जनजन तक पहुंच चुकी हैं। इतना सब होते हुए भी विनोबा चरखे से सूत कातकर पेट भरने आठ आने रोज कमाते थे। ये शुद्ध भारतीयता उन्होंने अपने गुरू गांधी से सीखी थी जो स्वयं महावीर, गौतम की तरह रईसी जीवन छोड़ करोड़ों भारतीयों को स्वावलंबी बनाने के लिए फकीर बन गये थे।  

धर्मपाल जी ने उन्हीं का काम आगे बढ़ाया। देश-विदेश के अभिलेखागारों से सामग्री जुटाकर धर्मपालजी ने 9 पुस्तकें लिखीं। उन्होंने बताया कि जिस विदेशी प्रौद्योगिकी की हम तारीफ करते थकते नहीं हैं, वह प्रौद्योगिकी तो कई सदियों से भारत के पास थी। हम प्रकृति को छेड़े बगैर ऊंचे दर्जे का लोहा तैयार करना जानते थे, नमक बनाना जानते थे और बर्फ तैयार करना जानते थे।

गांधी और धर्मपालजी के कार्य को आगे बढ़ाया, आदिलाबाद (तेलंगाना) के भारतीयता के भाष्यकार दिवंगत रवीन्द्र शर्मा ने। मूलतः पंजाब के, लेकिन अपने पिताजी की नौकरी हेतु उनका परिवार तेलंगाना के आदिलाबाद में आकर बस गया था। पांच सितंबर 1952 को जन्मे रवीन्द्र का बचपन से ही कला और कारीगरी की ओर झुकाव हो गया था। उन्होंने हैदराबाद के ‘जवाहर लाल नेहरू टेक्नालॉजिकल विश्वविद्यालय’ से कला में स्नातक की डिग्री प्राप्त की और छात्रवृत्ति पर बड़ौदा के ‘महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय’ से ललित कला संकाय में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की। वहाँ की व्याख्याता की नौकरी और पेरिस में मिले काम के प्रस्ताव को छोड़ वे वापस आदिलाबाद पहुँचे और आदिलाबाद के 20 किलोमीटर परिधी के गांवों की कारीगरी और रहन-सहन का उन्होंने गहराई से 22 साल अध्ययन किया।

हम जिनको हेय दृष्टि से देखते हैं वे कुम्हार, लुहार, सुतार, सुनार, चर्मकार, जुलाहे, तेली, नाई, मिस्त्री, रंगारी, भिश्ती, गडरिये, दर्जी, मूर्तिकार, पसारी, किसान, चरवाहे, वैद्य, पुरोहित, महाजन, कथाकार, साधु-संत और विभिन्न कार्यों में लगी जातियाँ सब मिलकर एक ऐसे सशक्त समाज की रचना करते हैं जहाँ मानव श्रम की प्रतिष्ठा होती है और किसी के भी स्वाभिमान को ठेस पहुँचाएं बगैर हर एक को खाना मिल जाता हैं। यही वह जैविक समाज है जहाँ मशीनों का, रसायनों का या पर्यावरण प्रदूषित करते किसी भी बाहरी आदान का प्रयोग निषिद्ध है।

रवीन्द्र शर्मा ने भारत की विभिन्न आयआयटी, आयआयएम जैसी उच्च शिक्षण संस्थाओं को भारतीय संस्कृति और सभ्यता की मूल थाती से अवगत कराया था।भारतीयता के निचोड़ को रेखांकित करते हुए रवीन्द्र शर्मा, जिनको श्रद्धा से ‘गुरूजी’ कहा जाता था, के कुछ निरीक्षण गौर करने लायक हैं। वे कहते हैं:-

1) कलाकार कोई विशिष्ट व्यक्ति नहीं, बल्कि हर व्यक्ति एक विशिष्ट कलाकर होता है।

2) गुरू शिष्य नहीं व्यक्तित्व बनाता है।

3) कुछ देखने घर से बाहर मत निकलो, बल्कि कुछ भी देखने निकलो और तुम्हें सैकड़ों चीजें दिख जाएंगी।

4) भारत के किसी भी गांव या कस्बे के आसपास 20 किलोमीटर की परिधि में आप घूमोगे तो एक जैसा भारत पाओगे।

5) भारत में हम जिसे ‘जाति’ कहते हैं वो ‘ज्ञाति’ का अपभ्रंश है। जिस विषय का जो ज्ञाता होता है वह उस जाति का हो जाता हैं ।

6) जब एक व्यक्ति सम्पन्न होने लगता है तो गांव कंगाल हो जाता है और जब गांव सम्पन्न होता है तो गांव का कंगाल से कंगाल भी सम्पन्न हो जाता है।

7) छोटी टेक्नालॉजी को समाज संभालता है, बड़ी टेक्नालॉजी समाज को संभालती है। छोटी टेक्नालॉजी में विविधता होती है, विभिन्न रंग होते हैं, बड़ी टेक्नालॉजी एक जैसी होती है।

8) प्राकृतिक रूप से, बगैर रसायनों के खेत में खड़ा एक पौधा संपूर्ण स्वस्थ पर्यावरण है। उसकी जड़ें मिट्टी के अंदर पल रहे खरबों सूक्ष्म जीवाणुओं का भोजन हैं, तना पशुओं का, पत्ते भूमि का, फूल मधुमक्खियों और तितलियों का, दाना पक्षियों, गांव में सत्संग करने आए साधु-संतों का और घर के परिवार का।

9) उस गांव को अपना घर बनाओ जहाँ ज्यादा-से-ज्यादा कारीगर रहते हों।

विगत् दिनों में जो भय का वातावरण निर्मित हुआ है, उसके परिप्रेक्ष्य में हर एक को अपनी-अपनी भारतीयता टटोलकर देखना चाहिए। (सप्रेस)

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1 टिप्पणी

  1. बेहद उम्दा लिखा संतुलित ,प्रभाव पूर्ण, विचारोत्तेजक ,संक्षिप्त पर बड़ी गहराई की जानकारी से समाहित लेख समाज व सरकारों की आंखों को खोलने वाला है। अरूण जी की लेखनी के बड़े दिनों वाचन के लिए मिली।साधुवाद।

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