राहुल बनर्जी

कृषि से केवल 16% जीडीपी आती है जब कि उसमें 65% लोग कार्यरत है और कृषि समेत कुल अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत लोग 92 % है जबकि इससे जीडीपी में केवल 54 % आती है। इस प्रकार जीडीपी का मोटा आंकड़ा से यह नहीं पता चलता है कि देश में कितनी आर्थिक असमानता है जिसके कारण देश के कुल आर्थिक तरक्की का बड़ा भाग चंद लोगों को और अमीर बनाने में जा रहा है जबकि अधिकतर लोगों की बदहाली में लगातार बढ़ोत्री हो रही है। इसका अंदाज़ इससे भी मिलता है कि विश्व में भारत असमानता में 9वें स्थान पर है। राहुल बनर्जी आर्थिक मामलों पर ‘सप्रेस’ के ‍लिए ‍लिखने तैयार हैं। उनका यह पहला लेख।

हाल ही में इस घोषणा से खलबली मच गई थी कि इस वर्ष के अप्रैल से जून माह की पहली तिमाही में गत वर्ष की तुलना में जीडीपी  (GDP) 23.9 % घट गई है। परंतु इस खबर की अहमियत समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जीडीपी (GDP) है क्या। GDP यानि Gross Domestic Product  किसी एक वर्ष में किसी देश या प्रदेश में उत्पादित तमाम वस्तु एवं सेवाओं का कुल मूल्य है जिसे हिन्दी में सकल घरेलू उत्पाद नाम दिया गया है। यानि यह देश में चल रही तमाम आर्थिक गतिविधियों का एक माप है। जिस प्रकार हम अपनी घरेलू आर्थिक स्थिति का आकलन हमारी आय से करते है उसी प्रकार एक पूरी अर्थव्यवस्था का आकलन जीडीपी से किया जाता है।

जीडीपी का आकलन दो विधियों से किया जाता है। एक विधि में कारखानों, खेतों और सेवा संस्थाओं जैसे अस्पताल, बैंक आदि में किया गया उत्पादन और दिये गए सेवाओं का मूल्य एवं सरकार द्वारा एकत्रित किया गया वस्तु एवं सेवा करों को जोड़ा जाता है और इससे सरकार द्वारा दिया गया अनुदान को घटाया जाता है। दूसरी विधि में घरेलू उपभोग, व्यावसायिक निवेश एवं क्रय, सरकारी निवेश एवं क्रय और सरकारी कर एवं अनुदान का शेष को जोड़ा जाता है एवं उससे आयात एवं निर्यात का शेष मूल्य, जो कि हमारे देश के लिए ऋणात्मक है, को घटाया जाता है। दोनों ही विधियों से एक ही नतीजा आना चाहिए परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता है और दूसरी विधि से जीडीपी का मान अधिक होता है क्योंकि उसमें सही सही आंकड़े समय पर प्राप्त नहीं होते है एवं अंदाज़ से आकलन किया जाता है। अर्थव्यवस्था में किसी को भी वस्तु या सेवा के लिए किया गया भुगतान आगे चलकर उसके द्वारा या तो बचत किया जाता है या किसी और को वस्तु या सेवा के लिए भुगतान किया जाता है एवं अंततः बचत का निवेश किया जाता है। इन सारे भुगतानों और निवेशों और करों और निर्यात और आयात के शेष को जोड़कर जीडीपी आकलित होता है।

इसे एक सरल सांख्यिकी उदाहरण के साथ समझा जा सकता है। मान लीजिये कि –

1. किसी सरकारी अफसर को 50000 रुपये तनखाह मिलती है तो उसकी सेवा का मूल्य हुआ रु 50000

2. वह अपने ड्राईवर को तनखाह देता है 10000 रुपये, तो ड्राईवर की सेवा का मूल्य हुआ रु 10000 और अफसर की बचत हुआ रु 40000।

3. ड्राईवर अपने पिता के लिए दवाई खरीदता है 500 की तो दवा का मूल्य हुआ रु 500 और उसकी बचत है रु 9500।

4. दवा का दुकानदार दवा बनाने वाली कंपनी को 400 रुपये चुकाता है तो दुकानदार की सेवा की मूल्य हुआ रु 100 और दवा कंपनी को मिला रु 400

5. दुकानदार 25 रुपये की सब्जी खरीदता है तो सब्ज़ी का मूल्य हुआ रु 25और बचत हुआ रु 75।

6 .दवा बनाने वाली कंपनी को मिले थे 400 रुपये , जिसमे से वह 100 रुपये तनखाह बाँट देती है तो कारखाने में काम करने वाले की सेवा का मूल्य हुआ रु 100 और कंपनी की बचत रु 300.

अब यहाँ रुक कर हम जीडीपी को जोड़ें तो वह होगा –

खर्च – (50,000+10000+500+400+25+100= 61025) + बचत/निवेश – (40000+9500+75+300=49875) + सरकारी कर – अनुदान + सरकारी निवेश एवं क्रय + निर्यात – आयात।

क्योंकि महंगाई लगातार बढ़ती रहती है इसलिए इस आंकलन से जीडीपी का जो मान निकलता है उसे किसी आधार वर्ष में रुपये का जो मूल्य था, उसी में परिवर्तित कर दिया जाता है ताकि इसे पहले के वर्षों के जीडीपी से तुलना किया जा सके। इस प्रकार जीडीपी के दो माप आते है – एक रुपये के वर्तमान मूल्य पर आंकलित जिसे सांकेतिक जीडीपी कहा जाता है और दूसरी किसी आधार वर्ष में रुपये के मूल्य पर आंकलित जिसे असल जीडीपी कहा जाता है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था में हो रहे परिवर्तन का सही आंकड़ा प्रस्तुत करता है।

अभी हम समझ सकते है कि जीडीपी घटने से इतनी खलबली क्यों मची। एक प्रकार से देश की जीडीपी किसी परिवार की आमदनी जैसी है जो तरक्की के लिए लगातार बढ़ते जाना चाहिए। परंतु क्योंकि कोविड-19 बीमारी के कारण तालाबंदी के दौरान इस वर्ष की पहली तिमाही में बहुत कम काम हुआ था इसलिए अधिकतर परिवारों की तरह देश की भी आमदनी में जबर्दस्त कमी आ गई थी।

परंतु जीडीपी देश की आर्थिक स्थिति का सही आंकलन नही है। मसलन देश के स्तर पर कुल जीडीपी के हिसाब से भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व में 7वें स्थान पर है पर प्रति व्यक्ति जीडीपी में, यानि कुल जीडीपी का मान को अगर कुल जन संख्या से भाजित किया जाए तो, भारत का स्थान विश्व में 157 है एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश की ताज़ी घोषणा के अनुसार अब बांग्लादेश की प्रतिव्यक्ति जीडीपी इस साल भारत से अधिक हो जाएगी!! इसका मतलब है कि यद्यपि भारत की कुल जीडीपी तेज़ी से अन्य देशों की तुलना में बढ़ रही है परंतु इस वृद्धि का लाभ चंद लोगों को ही मिल रहा है और व्यापक जनता आर्थिक बदहाली में जी रहे है। प्रमुख कारण है कि कृषि से केवल 16% जीडीपी आती है जब कि उसमें 65% लोग कार्यरत है और कृषि समेत कुल अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत लोग 92 % है जबकि इससे जीडीपी में केवल 54 % आती है। इस प्रकार जीडीपी का मोटा आंकड़ा से यह नहीं पता चलता है कि देश में कितनी आर्थिक असमानता है जिसके कारण देश के कुल आर्थिक तरक्की का बड़ा भाग चंद लोगों को और अमीर बनाने में जा रहा है जबकि अधिकतर लोगों की बदहाली में लगातार बढ़ोत्री हो रही है। इसका अंदाज़ इससे भी मिलता है कि विश्व में भारत असमानता में 9वें स्थान पर है।

यही नहीं जीडीपी के आंकलन में और भी समस्याएँ है। केवल वही वस्तुओं एवं सेवाओं को जीडीपी में शामिल किये जाते है जिन्हें बाज़ार में खरीदी बेची जाती है। इसके चलते कुछ मुसीबतें और खड़ी हो जाती है। सर्व प्रथम यह कि पानी, हवा, पेड़, पौधे और प्राणी जैसी चीज़ें अगर खरीदी बेची नहीं जा रही हो तो उनका आंकलन नहीं होता है। फल स्वरूप एक पेड़ अगर जंगल में खड़ा है तो उसका कोई मूल्य नहीं है पर उसे अगर काटकर बेचा जाता है तो जीडीपी में इजाफा होता है!! इस प्रकार जिन चीजों को हमें पर्यावरण की दृष्टि से संरक्षित करनी चाहिए, उन्हें हम जीडीपी बढ़ाने के खातिर नष्ट कर देते है। इसी प्रकार खनिज़ पदार्थों के दोहन और औद्योगिक उत्पादन के लिए भी पर्यावरण का नुकसान बेतहाशा हो रहा है पर क्योंकि इस नुकसान का कोई बाज़ार मूल्य नहीं है इसलिए इसे नियंत्रित करने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए जा रहे है। इस हानी का असर सब से अधिक उन ग़रीब समुदायों पर पड़ता है जो पर्यावरण के करीब रहते है हालांकि इस के कारण हुए आर्थिक लाभ अन्य अमीर लोगों को मिलता है। कृषि में भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन भी इसीलिए हो रहा है कि उसका मूल्य नहीं है। इसी प्रकार महिलाओं द्वारा अपने घरों में परिवार के लिए किए गए अनेक कार्यों का भी कोई मूल्यांकन नहीं होता है क्योंकि इसके लिए उन्हें कोई मानदेय नहीं दिया जाता है, फलस्वरूप इसका भी आंकलन जीडीपी में नहीं होता है। महिलाओं का घरेलू काम का मूल्यांकन नहीं होने के कारण उनकी दोयम स्थिति में सुधार नहीं आ पाती है और उन्हें अधिक काम करना पड़ता है जिसका बुरा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है।

जाहिर है कि जीडीपी का आंकलन की वर्तमान विधि में सुधार की आवश्यकता है ताकि यह आर्थिक असमानता, पर्यावरणीय हानि एवं महिला अधिकारों का हनन जैसी महत्वपूर्ण समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित कर उनके समाधान के लिए सरकार को मजबूर कर सकें। इसके अलावा यह भी सवाल उठता है कि क्या आर्थिक विकास का मौजूदा ढांचा सही है जिसमें जीडीपी के लगातार वृद्धि के कारण पर्यावरण का अत्यधिक नुकसान हो रहा है।(सप्रेस)

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