राजकुमार सिन्हा

मध्यप्रदेश में बिजली की आपूर्ति का कारनामा अब ठीक वह कर रहा है जिसे मुहावरे में ‘माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम’ कहा जाता है। एक तरफ, सरकारी जल-विद्युत परियोजनाओं की सस्ती बिजली को ठेंगे पर मारते हुए जिन निजी कंपनियों से बिजली खरीदी जाती है वे बिना कोई उत्पादन किए सरकारी खजाने से हजारों करोड़ रुपए वसूल रही हैं और दूसरी तरफ, सरकारी कंपनी की ही देखरेख में हो रहे भारी-भरकम ‘लाइन-लॉस’ की मार्फत बिजली बर्बाद की जा रही है। तो क्या इसका कोई कारगर हल निकाला जा सकता है?

बिना कुछ किए किसी को करोडों रुपए दे दिए जाएं और इसके नतीजे में हुए घाटे की भरपाई के लिए उपभोक्ताओं की जेबें खाली करवाई जाएं तो इसे लोक-कल्याणकारी राज्य के किस खांचे में फिट किया जा सकेगा? सरकारी जल-विद्युत परियोजनाओं की सस्ती बिजली को अनदेखा करके खुले बाजार से मंहगी बिजली खरीदकर आम उपभोक्ताओं की जेबें काटी जाएं तो उसे कौन-सा जनहित कहा जाएगा?

आप मानें, ना मानें, यह कारनामा मध्‍यप्रदेश सरकार की बिजली व्यवस्था में बेखौफ जारी है। राज्य में बिजली की बाजीगरी हर बार उपभोक्ताओं की जेब पर ही बोझ बढाती है। निजी विद्युत उत्पादन कम्पनियों से बिना बिजली खरीदे हजारों करोड़ रुपयों का भुगतान करने का कारनामा मध्यप्रदेश की बिजली कम्पनियां कर रही हैं। सरकारी पावर प्लांट को भले ही कम बिजली उत्पादन करना पङे, लेकिन निजी बिजली खरीदी भरपूर हो रही है।

मध्यप्रदेश सरकार की यह कारस्तानी 2020-21 के लिए विद्युत-दर निर्धारण हेतु ‘विद्युत नियामक आयोग’ के समक्ष लगाई गई याचिका से उजागर हुई है। इस याचिका के अध्ययन से पता चला है कि 8 निजी बिजली कम्पनियों से बिना एक भी यूनिट बिजली खरीदे 3329 करोड़ रुपए और बिजली पारेषण शुल्क 516 करोड़ रुपए ‘पावर ग्रिड कार्पोरेशन’ को देने का प्रावधान किया गया था। दूसरी तरफ, वर्ष 2015 से 2020 के बीच बिजली दर 23 प्रतिशत बढाया जा चुका है। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल ने एक मई 2021 को ‘राज्य विद्युत नियामक आयोग’ के समक्ष मांग की थी कि इस गैर-वाजिब व अन्यायी बोझ को सामान्य उपभोक्ताओं के माथे न डाला जाए।

श्री अग्रवाल की उक्त याचिका को अनदेखा करते हुए बिजली कंपनियों ने 6 सितंबर 2021 को कनेक्शन, विच्छेदन, पुनर्स्थापन, टेस्टिंग, नाम-परिवर्तन, पंजीयन शुल्क जैसी विभिन्न प्रकार की सेवाओं और विद्युत भार वृद्धि के नाम पर ‘राज्य विद्युत नियामक आयोग’ के समक्ष 68 से 70 प्रतिशत की भारी वृद्धि प्रस्तावित की है।

गौरतलब है कि  2003 में तत्कालीन ‘विद्युत मंडल’ के घाटे को खत्म करने के लिए ‘टाटाराव समिति’ की अनुशंसाओं के आधार पर मध्यप्रदेश सरकार ने ‘मध्‍यप्रदेश विद्युत मंडल’ का विखंडन करके तीन बिजली कम्पनियों का गठन किया था। वर्ष 2000 में ‘मप्र विद्युत मंडल’ का घाटा 2100 करोड़ रुपए और दीर्घकालीन कर्ज 4892.6 करोड़ रुपए था। कंपनियों के हाथ में आ जाने के बाद वर्ष 2014 से 2020 के बीच यह घाटा बढकर 36812.37 करोड़ रुपए हो गया।

वर्तमान तीनों बिजली कम्पनियों पर 40 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज हो गया है। यानि हर उपभोक्ता पर करीब 25 हजार रूपए का कर्ज है। प्रदेश में 1.30 करोङ उपभोक्ता हैं। 21 हजार करोड़ रुपए की भारी सब्सिडी और सालाना 6 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा के कर्ज के बाद भी बिजली कंपनियों का घाटा खत्म नहीं हो रहा है, जबकि चार साल पूर्व राज्य सरकार ने बिजली कम्पनियों का करीब 26 हजार करोड़ रुपए का घाटा केन्द्र की योजना के तहत खुद पर ले लिया था।

राज्य सरकार ने निजी विद्युत उत्पादन कम्पनियों से 25 साल के लिए बिजली खरीदी का अनुबंध किया है। यह अनुबंध इस शर्त के आधीन है कि सरकार बिजली खरीदे या नहीं, फिर भी निर्धारित न्यूनतम राशि चुकानी होगी। वर्ष 2016 से 2018 के बीच सरकार द्वारा बिना बिजली खरीदे, निजी कंपनियों को 6626 करोड़ रुपए भुगतान किया गया है। इसी तरह 2020 में 2055 करोड़ रूपयों का भुगतान किया गया है।

बिजली कम्पनियों ने घाटे के दो मुख्य कारण – प्रदेश में सरप्लस उत्पादन व बिजली चोरी को बताया है। सरप्लस बिजली के चलते ‘विद्युत नियामक आयोग’ के टैरिफ आदेश 2019-20 में स्वीकृत 26003.63 करोड़ रुपए में 6935.3 करोड़ यूनिट बिजली खरीदने की बजाए कुल 32231.42 करोड़ रुपए में 7271.9 करोड़ यूनिट खरीदी गई। यानि 6227.79 करोड़ यूनिट बिजली ज्यादा खरीदी गई। वर्ष 2019-20 में मध्यप्रदेश सरकार ने ‘टोरेंटो कंपनी, अहमदाबाद’  सहित करीब दो दर्जन निजी कम्पनियों से बिजली खरीदी थी। ‘टोरेंटो’ से 24.18 रुपए प्रति यूनिट की दर से 21.72 मिलियन यूनिट बिजली खरीदी। इसके लिए 52.51 करोड़ का भुगतान भी किया गया।

वहीं मध्यप्रदेश ने खुली नीलामी के तहत अन्य राज्यों व एक्सचेंज को जो बिजली बेची है उसकी औसत कीमत 3.25 रुपए प्रति यूनिट है। महंगी बिजली (24.18 रुपए प्रति यूनिट) खरीदकर सस्ती में बेचने का कारनामा मध्यप्रदेश की सरकारी बिजली कंम्पनियों के नाम है। इस कुप्रबंधन के कारण बिजली कम्पनियों को 4200 करोड़ रुपए की हानि हुई है। राज्य को कुल करीब 79 हजार मिलियन यूनिट बिजली की जरूरत है, फिर भी खरीदी से करीब 30 हजार मिलियन यूनिट बिजली सरप्लस हो जाती है। इसमें करीब 5559 मिलियन यूनिट बिजली, ‘आयोग’ के मुताबिक, ‘इमर्जेंसी ब्रेकडाउन’ के लिए रखी जाती है और बाकी 24 हजार मिलियन यूनिट बिजली बिक्री लायक हो जाती है।

जो 30 हजार मिलियन यूनिट बिजली सरप्लस है, वह लगभग पूरी निजी कंपनियों से खरीदी गई होती है। यानि इसे एक हाथ से खरीद कर दूसरे हाथ से बेच दिया जाता है। बीच में खरीदी  और बिक्री कमीशन का मुनाफा रहता है। बिजली व्यापारी, अफसरशाही और नेताओं का गठजोड़ ऐसा है कि बिना बिजली खरीदे भी करोङों का भुगतान होता है। बिजली कम्पनियों ने अपने टैरिफ-प्लान में बिजली खरीदी की औसत दर 3.15 रुपए प्रति यूनिट बताई है।

कंपनी के ही आंकडों के आधार पर ‘नियामक आयोग’ का आंकलन बताता है कि खरीदी के बाद स्टेट-ग्रिड पर बिजली की कीमत करीब 3.50 रुपए प्रति यूनिट हो जाती है। ट्रांसमिशन चार्जेज आदि जोङकर यह कीमत करीब 4 रुपए प्रति यूनिट हो जाती है। इसके बाद बिजली उपभोक्ताओं के घर पहुंचाने के चार्जेज अलग रहते हैं। नतीजे में उपभोक्ताओं को यह बिजली औसतन 6 रुपए प्रति यूनिट तक पङती है।

जाहिर है, प्रदेश में उधार की बिजली का बोझ जनता के माथे पर पड रहा है। हर साल तीनों कम्पनियां औसतन 6 हजार करोड़ रुपए का कर्ज लेती हैं, जिसका सलाना ब्याज औसतन 850 करोड़ रुपए देना होता है। बिजली कंपनियों का सरकारी विभागों के पास ही 1575 करोड़ रुपए बकाया है जिसमें 90 प्रतिशत ‘नगरीय निकाय’ और ‘पंचायत एवं ग्रामीण विकास’ विभाग का है।

बिजली कंम्पनियों की टैरिफ याचिका के मुताबिक प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में 7 लाख 46759 बिजली कनेक्शन बिना मीटर के और 76 लाख 48922 कनेक्शन मीटर वाले हैं। खेती के ट्रांसफार्मर पर करीब 5 लाख 48993 मीटर वाले कनेक्शन और 98975 बिना मीटर वाले कनेक्शन हैं। अर्थात 18% कनेक्शन बिना मीटर के हैं। योजना के मुताबिक 2005 तक सम्पूर्ण मीटरीकरण पूर्ण कर लेना था।

प्रदेश में बिजली की मौजूदा प्रतिदिन उपलब्धता लगभग 21500 मेगावाट है, जबकि औसतन रोजाना मांग 11 हजार मेगावाट से ज्यादा नहीं रहती। ऐसे में 21500 मेगावाट तक के करार कर उपलब्धता दर्शाई गई है। इससे बिजली सरप्लस बताई जाती है। कृषि फीडर पर औसतन 10 घंटे और घरेलू फीडर पर 24 घंटे बिजली दी जाती है। ट्रिपिंग की समस्या बरकरार है। वर्ष 2017- 18 में मध्यप्रदेश की ‘मध्य-क्षेत्र कम्पनी’ में 39.37%, ‘पूर्व-क्षेत्र कंपनी’ में 29.6% और ‘पश्चिम-क्षेत्र कंपनी’ में 16.74% लाइन लॉस था। अगर इस लॉस को कम करके 15% पर ले आया जाए तो विद्युत दर में कमी लाई जा सकती है।

सवाल है कि क्या बिजली कम्पनियां अपने घाटे का भार अन्ततः उपभोक्ताओं से ही वसूल करेंगी और अपने कुप्रबंधन को नजरअंदाज करती रहेंगी? लिहाल तो छोटे उपभोक्ता महंगी बिजली दर की मार से और राज्य सरकार बिजली कम्पनियों को दिए जाने वाले अनुदान से परेशान है।(सप्रेस)

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