नरेन्द्र चौधरी

कोरोना वायरस की भीषण त्रासदी ने केन्द्र और राज्य सरकारों की लापरवाहियों की पोल खोलकर रख दी है। उन्होंने समय रहते थोडी समझदारी से काम लिया होता तो आज हम इस बदहाली में नहीं फंसे होते। वे केवल ‘केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय’ की ‘संसदीय समिति’ और अनेक राज्यों के हाईकोर्टों की ही सुन लेतीं तो इस मौजूदा संकट के असर को कम या उससे बचा जा सकता था। कोरोना से निपटने में हुई गफलतें आखिर क्या थीं?

कोरोना महामारी से निपटने में देश ने, विशेषकर हमारी सरकार ने जिस हद दर्जे की लापरवाही बरती है उससे नागरिकों को न सिर्फ अत्यधिक शारीरिक, आर्थिक व मानसिक दबाव से गुजरना पड़ रहा है, बल्कि उनकी जान पर बन आई है। दुख की बात यह है कि सरकार यदि समय रहते ध्यान देती तो बहुत सी परेशानियों व मौतों को रोका जा सकता था। मुंशी प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ी में दो जागीरदार अपने राज्य के लिए लड़ने के बजाय शतरंज की बाजी पर लड़ते हैं और अंग्रेजी फौज के आगमन पर भी लापरवाह बने रहते हैं। कोरोना के प्रति ठीक ऐसी ही आत्मसंतुष्टि व निष्चिंतता हमारी सरकार की थी। पहले दौर के बाद हमें टीकाकरण, ऑक्सीजन, वेन्टीलेटर व दवाओं आदि की उपलब्धता और इसके प्रबंधन पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता थी।

टीकाकरण, जो कोरोना से बचाव का फिलहाल एकमात्र उपाय है, पर सरकार की आधारहीन आत्मसंतुष्टि का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि 28 जनवरी 21 को ‘विश्‍व आर्थिक मंच’ पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वैक्सीन में हम आत्मनिर्भर हैं। इतना ही नहीं बल्कि भारत दुनिया भर के देशों को वैक्सीन दे रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि सिर्फ एक, ‘कोवैक्सीन’ स्वदेशी है। दूसरी, ‘कोविशील्ड,’ विदेशी ‘ऑक्सफोर्ड एस्ट्रेजेनेका’ कंपनी की है, जिसकी तकनीक का उपयोग एक करार के तहत निजी संस्थान ‘सीरम इंस्टीट्यूट’ कर रहा है।

दुनिया के देशों को गिफ्ट के तौर पर हमने लगभग एक करोड़ डोज ही दिये हैं जो हमारी घरेलू आवश्यकता (168 करोड़ डोज) का बूंद भर है। बाकी पांच करोड़ डोज इन देशों ने ‘सीरम इंस्टीट्यूट’ या ‘भारत बायोटेक’ से व्यावसायिक करार के तहत खरीदी हैं।

16 जनवरी 21 को हमने कोविड-19 का टीकाकरण प्रारंभ किया था, 30 अप्रैल तक सिर्फ 9.3 प्रतिशत जनसंख्या को इस टीके का पहला डोज एवं दो प्रतिशत जनसंख्या को ही दूसरा डोज लगा है। एक अप्रैल 21 से हमने 18 साल़ से अधिक उम्र की जनसंख्या को टीका लगाने की घोषणा कर दी, लेकिन टीका उपलब्ध ही नहीं था। इसने हमारी आत्मनिर्भरता के झूठे दावे की पोल खोल दी है। सरकार ने ताबड़तोड़ तरीके से रूस की ‘स्पूतनिक वैक्सीन’ के आपात्कालीन उपयोग की मंजूरी दी है।

हमें वैक्सीन के कुल कितने डोज चाहिए, इसकी संख्या निकालने के लिए भारी-भरकम गणना की जरूरत नहीं थी। इसे एक सामान्य व्यक्ति भी बता सकता है। जनसंख्या में ‘सामूहिक प्रतिरोध क्षमता’ (हर्ड इम्यूनिटी) प्राप्त करने के लिए कम-से-कम 60 प्रतिशत जनसंख्या का टीकाकरण आवश्यक है। हमारे देश में यह संख्या लगभग 84 करोड आती है। प्रति व्यक्ति दो टीके यानी 168 करोड़ डोज चाहिए। इतने डोज सीमित समय में उपलब्ध कराना ‘सीरम इंस्टीट्यूट’ व ‘भारत बायोटेक’ की क्षमता के बाहर है। सरकार को चाहिए था कि वह समय रहते विभिन्न वैक्सीन निर्माता कंपनियों से करार करती कि वे सरकार के रोडमैप के हिसाब से समय पर टीका उपलब्ध कराते, ताकि तेजी से टीकाकरण किया जा सकता, लेकिन झूठी आत्मनिर्भरता के गर्व से फूली सरकार ने ऐसा नहीं किया।

सरकार के कुप्रबंधन की एक बानगी यह भी है कि केन्द्र सरकार, जो मुफ्त टीके राज्यों को उपलब्ध करा रही थी, ने अचानक 18 से 44 आयु वर्ग (जो जनसंख्या का सबसे बड़ा समूह है) को टीके उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी है। उचित तो यह होता कि कि केन्द्र सरकार पूरी जनसंख्या को मुफ्त कोविड टीका उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी लेती। 168 करोड़ डोज एक बड़ी संख्या है, जिसके लिए कंपनी से मोलभाव कर उचित कीमत तय की जा सकती थी।

अब गफलत यह हो रही है कि जो टीका केन्द्र सरकार ने 150 रुपया में खरीदा है, उसे राज्यों को 300 रुपया (कोविशील्ड) व 400 रुपया (कोवैक्सीन) में खरीदना होगा। बाजार में इसकी कीमत रु 600 व 1200 होगी, जबकि ‘सीरम इंस्टीट्यूट’ के अदार पूनावाला ने कहा था कि 150 रुपए लेने में भी हमें मुनाफा हो रहा है। ‘वन नेशन, वन टैक्स’ की बात करने वाली सरकार ने ‘एक देश – टीके की एक कीमत’ का ध्यान क्यों नहीं रखा?

सुप्रीम कोर्ट ने भी केन्द्र की टीकाकरण नीति पर सवाल उठाते हुए कहा है कि कीमत और वितरण के लिए ‘राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम’ के मॉडल को क्यों नहीं अपनाया गया? जो वैक्सीन पुणे (भारत) में बन रही है उसे दूसरे देश हमसे भी सस्ती कीमत में खरीद रहे हैं। केन्द्र सरकार सस्ती कीमत पर 45 से अधिक आयु वर्ग के लिए ही टीके खरीद रही है, हालांकि उसकी उपलब्धता में भी निरंतरता नहीं है। यह सब तो तब है जब ग्रामीण क्षेत्र की बड़ी जनसंख्या टीकाकरण से वंचित है जिसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

विशेषज्ञों के अनुसार कोरोना की दूसरी लहर फरवरी में ही प्रारंभ हो चुकी थी, लेकिन सात मार्च को हमारे ‘केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री’ कह रहे थे कि हम कोरोना की समाप्ति के अंतिम पड़ाव पर हैं। सरकार के इस मुगालते ने तैयारियों पर विराम लगा दिया। पहली लहर के समय सरकार ने 162 ऑक्सीजन प्लांट लगाने की घोषणा की थी, इनमें से सिर्फ 11 (स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार 33) लगाये गये एवं मात्र 3 प्लांट उत्पादन की स्थिति में हैं। अब प्रधानमंत्री ने 150 नये प्लांट लगाने की घोषणा की है, बिना इस स्पष्टीकरण के कि पहले घोषित प्लांट क्यों नहीं लगाये गये?  

इसी प्रकार पहली लहर के समय सरकार कह रही थी कि हम वेंटीलेटर बनाने में आत्मनिर्भर हो गये हैं एवं निर्यात कर रहे हैं। आज स्थिति यह है कि हमें ऑक्सीजन, वेंटीलेटर व आवश्यक सामग्री दूसरे देशों से, यहां तक कि चीन से भी ऐन मौके पर आयात करना पड़ रही है। ऑक्सीजन की उपलब्धता और महामारी से लड़ने में कुप्रबंधन को लेकर उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय ने तीखी टिप्पणियां की है। चिकित्सा विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका लेन्सेट ने सरकार को इस कुप्रबंधन का जिम्मेदार बताया है।

इस मामले में सरकार को केरल मॉडल से सीखना था। पहली लहर के समय केरल ऑक्सीजन के लिए दूसरों पर निर्भर था। आज ऑक्सीजन में वह न सिर्फ आत्मनिर्भर है, बल्कि गोवा, कर्नाटक, और तमिलनाडु को ऑक्सीजन प्रदान कर रहा है। केरल अकेला राज्य है जिसके पास उसकी आवश्यकता से अधिक ऑक्सीजन है। पहली लहर के बाद इस राज्य ने ‘गहन चिकित्सा इकाई’ (आईसीयू) की संख्या भी बढ़ा ली है एवं वेंटीलेटर की संख्या दुगनी कर ली है। परिणामस्वरूप केरल में कोविड से मृत्यु-दर देश में सबसे कम है।

देश ऑक्सीजन, वेंटीलेटर, मरीजों के लिए बिस्तर, और दवाइयों आदि की कमी से जूझ रहा है। दवाओं की कालाबाजारी हो रही है और निजी अस्पताल मनमाने ढ़ंग से पैसा वसूल रहे हैं। बड़ी संख्या में लोगों को बीमारी के इलाज में अपनी जमा पूंजी से हाथ धोना पड़ रहा है। यदि सरकार सही समय पर निर्णय लेकर उचित कदम उठाती तो ऐसी अफरातफरी न मचती। कोरोना के 85 से 90 प्रतिशत मरीज ‘होम आइसोलेशन’ या ‘आइसोलेशन सेंटर’ (जिनके घर में पृथक कमरा नहीं) में 500 रुपया से 1000 रुपया की दवा में ठीक हो जाते हैं। जिन 10 से 15 प्रतिशत को अस्पताल में दाखिल होने की आवश्‍यकता होती है उनकी दवाओं पर भी बहुत ज्यादा खर्च नहीं आता। वहीं निजी अस्पताल 25 हजार से लेकर 50 हजार रुपया रोज या उससे भी अधिक वसूल रहे हैं, जबकि विदेशों से हमें सहायता मिल रही है। वे भी डरे हुए हैं कि यदि वायरस के नये ‘वेरिएंट’ भारत से दुनिया के अन्य देशों में फैलते हैं तो कहीं उनके किये-कराये पर पानी न फिर जाये। नया ‘वेरिएंट’ उन देशों को भी प्रभावित कर सकता है जहां टीकाकरण हो गया है।

पिछले साल, नवंबर 20 में ‘संसदीय समिति’ ने ऑक्सीजन व अस्पताल में बिस्तर की कमी पर सरकार को चेताया था। फरवरी 21 में विशेषज्ञ कोरोना की सुनामी की चेतावनी भी दे रहे थे। यदि सरकार ने इस पर ध्यान देते हुए ऑक्सीजन, बिस्तर, वेंटीलेटर, ‘आइसोलेशन सेंटर’ एवं चीन की तरह अस्थाई आपातकालीन इकाईयों का निर्माण किया होता और चुनाव रैलियों, कुंभ में  कोविड की रोकथाम के नियमों में ढील न दी होती, वैक्सीनेशन तेजी से किया होता तो कोरोना को हम बेहतर तरीके से नियंत्रित कर सकते थे।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि ‘यदि लोग ऑक्सीजन की कमी से मरते हैं तो यह एक आपराधिक कृत्य है व नरसंहार से कम नहीं है।’ देखा जाये तो अपने ही लोगों की मौत के आंकड़े हम छुपा रहे हैं। ‘विश्‍व  स्वास्थ्य संगठन’ की प्रमुख वैज्ञानिक एवं ‘भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद’ की पूर्व महानिदेशक डा. सौम्या स्वामीनाथन ने भारत के कोविड-19 के संक्रमण और ‘मौत की दर’ को चिंताजनक बताते हुए सरकार से वास्तविक संख्या बताने करने को कहा। इस गंभीर लापरवाही में हम सबके हाथ अपने ही लोगों के खून में सने हैं। अब हमें कोरोना की रोकथाम के लिए गंभीरता व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तीव्र गति से कार्य करने की आवश्यकता है। (सप्रेस)  

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