संजय घोष : 26 वीं पुण्यतिथि

अमन नम्र

आज संजय घोष की 26वीं पुण्यतिथि है, यह वैकल्पिक मीडिया और वालंटियर सेक्टर के लिए उन्हें और उनकी सोच को याद करने का सही अवसर है। दिल्ली में 1994 में चरखा डेवलमेंट कम्यूनिकेशन नेटवर्क की शुरुआत हुई थी। संजय घोष इसके संस्थापक थे, वे समतामूलक भारत के अपने सपने को आकार देने के लिए ऐसी संस्था शुरू करना चाहते थे जो मीडिया की लोकतांत्रिक शक्ति का उपयोग देश के अनसुने, वंचित नागरिकों को आवाज देने के लिए करे।

Sanjoy Ghose संजय घोष एक बहुत ही प्रभावशाली और पढ़े-लिखे परिवार से जुड़े थे। भास्कर घोष जो दूरदर्शन के महानिदेशक रहे, उनके चाचा थे। उनकी मौसी रूमा पाल सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश थीं, अरुंधति घोष, पूर्व राजनयिक और 1990 के दशक के दौरान यूएन में भारत की स्थायी प्रतिनिधि,  और पत्रकार उषा राय उनकी बुआ हैं। उनकी मां, विजया घोष, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स की संपादक हैं।  उनकी बहन सागरिका घोष मुख्यधारा की बड़ी पत्रकार और राजदीप सरदेसाई की पत्नी हैं। संजय के पिता शंकर घोष कारपोरेट सेक्टर में काफी जाने-पहचाने व्यक्ति थे। ऐसे में संजय एनजीओ, मीडिया और कॉरपोरेट तीनों ही क्षेत्र की काफी गहरी समझ रखते थे। 

Sanjoy Ghose

अगर उनकी पढ़ाई की बात करें तो संजय 1980 में आणंद में शुरू हुए ग्रामीण प्रबंधन संस्थान, इरमा के पहले बैच में शामिल थे। जबकि उस वक्त उनका दाखिला तीनों तत्कालीन आईआईएम, अहमदाबाद, बैंगलोर और कलकत्ता में हो  सकता था। आईआईएम में शामिल होने से अच्छे भुगतान वाले कॉर्पोरेट करियर का रास्ता भी सामने था, लेकिन उन्होंने गरीब और वंचित लोगों के लिए काम करने की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए आईआईएम के बजाय नए शुरू हो रहे इरमा को चुना। 1982 में इरमा से पीजी करने के बाद वे खेड़ा जिले के आणंद में एक छोटे से ग्रामीण विकास ट्रस्ट, त्रिभुवनदास फाउंडेशन में काम करने लगे। दो साल यहां काम करने के बाद, उन्होंने 1984 में ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में एमएससी की पढ़ाई करने चले गए।

ऑक्सफोर्ड के बाद वे भारत लौटे और 86 में राजस्थान के बीकानेर के रेगिस्तानी जिले में उर्मुल ग्रामीण स्वास्थ्य और विकास ट्रस्ट की स्थापना की। इस दौरान वे गरीबों, मरीजों, संभावित टीबी रोगियों पर काम करते थे। उर्मुल रूरल हेल्थ एंड डेवलपमेंट ट्रस्ट को राजस्थान में एक मुख्यधारा के एनजीओ के रूप में स्थापित करने के बाद, उन्होंने संगठन को एक उत्तराधिकारी को सौंप दिया, और दिल्ली चले गए।

यह भारतीय स्वैच्छिक एजेंसियों के लिए एक अभूतपूर्व निर्णय था – क्योंकि संस्थापक आमतौर पर मरने तक अपने नेतृत्व की स्थिति पर टिके रहते हैं। संजय हमेशा कहते थे कि विकास का काम करने वाले किसी भी संस्थान में 10 साल से ज्यादा नहीं रहना चाहिए। 10 साल का समय मुद्दे को समझने, स्थानीय लोगों में भरोसा जताने, उनका भरोसा जीतने और संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय नेतृत्व को तैयार करने में काफी है। 

संजय घोष ने बीकानेर के लूणकरणसर गांव में उरमूल ट्रस्ट के साथ अपने जमीनी अनुभवों के बारे में विस्तार से लिखा। द इंडियन एक्सप्रेस, ने ‘विलेज वॉयस’ नामक एक सफल मासिक कॉलम लॉन्च करने के लिए अपने लेखन का उपयोग किया। उन्होंने स्थानीय भाषाओं में बोली जाने वाली अनसुनी ग्रामीण आवाजों को मुख्यधारा के शहरी अंग्रेजी मीडिया में लाने में सफलता हासिल की।

ग्रामीण विकास के मुद्दों को उजागर करने और परिवर्तन या बदलाव को प्रेरित करने के लिए मुख्यधारा के मीडिया में लेखन की क्षमता को पहचानते हुए, संजय ने चरखा की कल्पना की। ग्रामीण विकास से संबंधित नीतियों को प्रभावित करने के लिए राष्ट्रीय मीडिया में अवसरों को बनाने और उनका फायदा उठाने के लिए चरखा शुरू किया गया। इसने इस चिंता को भी संबोधित किया कि इतने बड़े कार्य के लिए उनकी एकल आवाज की तुलना में अधिक समर्थन की जरूरत है।

मुझे याद है चरखा की शुरुआत में हमने चंडीगढ़ में एक बड़ी बैठक की थी, जिसमें उस समय के सभी मुख्यधारा राष्ट्रीय अखबारों के संपादक और एनजीओ सेक्टर के प्रमुख लोग शामिल थे। इनमें अवार्ड, वानी, वीहाई जैसे बड़े एनजीओ के नेटवर्क भी थे। इस बैठक में यह बात सामने आई कि विकास संचार के लिए समर्पित एक संगठन काम कर सकता है। चरखा एक मायने में “रूरल वॉयस” कॉलम के उनके अनुभव की सफलता को “संस्थागत” करने का एक प्रयास था। इस बैठक में मुख्यधारा के संपादकों, पत्रकारों और एनजीओ सेक्टर से जुड़े लोगों के बीच जो बात हुई वह शायद आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।

एनजीओ की शिकायत थी कि उनकी खबरें, उनकी सफलताएं, उनकी समस्याएं मीडिया में उतनी जगह नहीं पातीं, जितनी उन्हें मिलनी चाहिएं। वहीं मुख्यधारा मीडिया के पत्रकारों का कहना था कि एनजीओ केवल पब्लिसिटी के लिए मीडिया का स्पेस इस्तेमाल करना चाहते हैं। जब दो दिन की बैठक में उन्हें एनजीओ सेक्टर से जुड़े असल मुद्दों पर विस्तार से बताया गया तो उनका सुझाव था कि हमें एनजीओ से जुड़े लोगों में मीडिया की समझ पैदा करनी चाहिए। उन्हें मीडिया के लिए लेखन और एनजीओ के लिए लेखन का अंतर पहचानना आना चाहिए। उन्हें अपने मुद्दों की मीडिया के संदर्भ में प्रासंगिकता को समझने और लेखन कौशल सीखने की जरूरत है। 

इसके बाद संजय ने चरखा को विधिवत शुरू किया। मैंने 1995 में चरखा ज्वाइन किया, तब इसका ऑफिस दिल्ली में अवार्ड एसोसिएशन ऑफ वालंटरी एजेंसीज फॉर रूरल डेवलपमेंट के साथ था। 

चरखा शुरू करने के बाद संजय अवॉर्ड नॉर्थ ईस्ट के साथ काम करने असम के माजुली चले गए। संजय के माजुली में किए गए काम और उसके अंजाम को जानना भी सामाजिक संगठनों के लिए बेहद जरूरी है, क्योंकि ऐसे खतरे हमारे आपके सामने कभी भी आ सकते हैं। संजय ने अपने सात साथियों के साथ अप्रैल 1996 में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच बसे माजुली में काम शुरू किया।

तब माजुली द्वीप को हर साल बाढ़ और जमीन के क्षरण का सामना करना पड़ रहा था। करीब बीस वर्षों में यह द्वीप 500 वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ गया था। फरवरी 1997 के आसपास, उन्होंने और उनकी टीम ने स्वैच्छिक श्रम और स्थानीय संसाधनों और उनके ज्ञान का उपयोग करते हुए, तटबंधों का निर्माण किया और 1.7 किलोमीटर भूमि के कटाव से बचा लिया। इससे अगले वर्ष द्वीप का यह संरक्षित क्षेत्र बाढ़ से बच गया। महज एक साल में संजय ने माजुली में सामाजिक गतिविधियों में भी कई काम किए, स्वास्थ्य के क्षेत्र में मलेरिया की रोकथाम), आजीविका के लिए बांस और बुने हुए उत्पादों का डिजाइन और निर्माण, और शिक्षा के लिए ग्रामीण पुस्तकालय भी बनवाया।

लेकिन इस दौरान संजय और उनके समूह ने एक शक्तिशाली स्थानीय सरकारी काम करने वाले ठेकेदार लॉबी को नाराज कर दिया था। जिस तटबंध को संजय ने ग्रामीणों की मदद से बेहद मजबूत और सस्ते में बना दिया था, उसके लिए हर साल वह ठेकेदार लॉबी सरकार ने करोड़ों का ठेका उठाती थी, कमजोर तटबंध बनाती और हर बाढ़ में उसके बह जाने पर फिर अगले साल के तटबंध का ठेका हासिल करती थी। लेकिन संजय ने मजबूत तटबंध बनाकर इस भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया था।

इस ठेकेदार लॉबी को उस समय यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) भी संरक्षण मिला हुआ था। इसी दौरान 1 जून 1997 को संजय ने ग्रामीणों की एक बड़ी सार्वजनिक बैठक की, जिसमें बड़ी संख्या में ग्रामीणों ने भागीदारी की और संजय के रचनात्मक कार्यों के साथ एकजुटता दिखाई। उस समय ठेकेदारों ने उल्फा के स्थानीय नेताओं को यह कहकर गुमराह किया कि संजय वहां उल्फा के खिलाफ लोगों को भड़काने के लिए आए हैं। उल्फा ने इसे सही मानकर संजय को कई बार सार्वजनिक धमकियां दीं। इसके बाद स्थानीय पुलिस ने उन्हें सुरक्षा दी। लेकिन संजय ने यह कहकर सुरक्षा लेने से मना कर दिया कि “स्थानीय लोग मेरी सबसे अच्छी सुरक्षा हैं”।

पर उल्फा ने 4 जुलाई 1997 को संजय का अपहरण कर लिया। और अगले ही दिन उनकी हत्या कर शव ब्रह्मपुत्र में बहा दिया। बाद में उल्फा के केंद्रीय नेतृत्व ने अपनी गलती मानी और सार्वजनिक तौर पर माफी भी मांगी। यह मामला देश के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा में रहा। बाद में संजय की हत्या के लिए जिम्मेदार उल्फा के स्थानीय नेता को 19 जुलाई, 2008 को एक एनकाउंटर में मार दिया गया। संजय के असम के काम और उनके अनुभवों पर उनकी पत्नी सुमिता घोष ने एक किताब लिखी, “संजय का असम: संजय घोष की डायरी और लेखन। इसे 1998 में पेंगुइन बुक्स ने प्रकाशित किया। अगर आज संजय जिंदा होते तो शायद आज देश में वैकल्पिक मीडिया ही मुख्य मीडिया की जगह ले चुका होता। 

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