महोदव व्रिदोही

स्वतंत्रता सेनानी और समाजसेवी एचएस डोरेस्वामी का 104 साल की उम्र में निधन। हाल में ही कोरोना को दी थी मात। डोरेस्वामी कभी किसी राजनीतिक पद पर नहीं रहे हैं, लेकिन उन्होंने अपना जीवन लोगों की सेवा में लगा दिया। इतने लंबे सार्वजनिक जीवन पर उनमें कहीं कोई दाग़ नहीं लगा और यह उन्हें सिस्टम से लड़ने की ताक़त देता रहा।

वरिष्ठतम सर्वोदय कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी और कर्नाटक सर्वोदय मंडल के पूर्व अध्यक्ष श्री हरोहल्ली श्रीनिवासैया दोरेस्वामी (एच एस दोरेस्वामी) का मौन हो जाना रचनात्‍मक समाज के लिए बडी क्षति है। वे जीवनभर असत्य और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे। उनका 26 मई को दोपहर 1.30 बजे बंगलुरू के जयदेव हॉस्पिटल में हृदय गति रुक जाने के कारण निधन हो गया। वे 103 वर्ष के थे। वे कोरोना से संक्रमित हुए थे, पर स्वस्थ हो गये। स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण 14 मई को उन्हें पुनः अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। डाक्टरों ने उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की पर वे सफल नहीं हो सके।

श्री दोरेस्वामी का जन्म 10 अप्रैल 1918 को मैसूर राज्य के हारोहल्ली गांव में हुआ था। 5 वर्ष की उम्र में ही उनके पिता का निधन हो गया। दादा-दादी ने डोरेस्वामी को पाला पोसा। उन्होंने बंगलोर के सेन्ट्रल कॉलेज से विज्ञान में स्नातक की डिग्री हासिल की। जून, 1942 में डोरेस्वामी ने पढ़ाई पूरी करने के बाद स्थानीय हाई स्कूल में गणित और भौतिक विज्ञान पढ़ाना शुरू किया।  दिसंबर, में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। बाद में उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत की और ‘पौरवानी“ नाम से एक अख़बार प्रकाशित करना आरम्भ किया। 1951 में वे आचार्य विनोबा के नेतृत्व में भूदान आन्दोलन में शामिल हुए । उन्‍होंने एक साक्षत्‍कार में कहा था कि  “15 साल की उम्र में नौवीं में पढ़ता था, तब मैंने महात्मा गांधी की लिखी पुस्तक माय अर्ली लाइफ़ पढ़ी। उससे मेरे जीवन की दिशा बदल गई। स्वतंत्रता आंदोलन में मेरी दिलचस्पी पैदा हो गई।

अगस्त में महात्मा गांधी ने देश व्यापी भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया और डोरेस्वामी इस आंदोलन में कूद पड़े।  स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के कारण 1943- 44 में उन्हें 14 महीने कारावास की सजा हुई। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 23 वर्ष थी। आज़ादी के बाद मैसूर के महाराजा भारतीय संघ में शामिल नहीं होना चाहते थे, इसके विरुद्ध ‘चलो मैसूर’ आन्दोलन में अगली पंक्ति में थे।

1950 के दशक में उन्होंने विनोबा भावे के साथ भूदान आंदोलन में हिस्सा लिया। वे बताते थे कि “हम गांव गांव घूमते थे। गांव वालों से खाने और रहने की जगह मिल जाती थी। मुझे 100 रुपये महीने की पगार मिलती थी, वह पैसे में अपनी पत्नी को दे देता था, घर चलाने के लिए.”

डोरेस्वामी की शादी ललिताअम्मा से 1950 में हुई। डोरेस्वामी तब 31 साल के थे और ललिला 18 साल की। दोनों की मुलाकात एक कॉमन दोस्त के घर हुई और दोनों पहली नज़र में एक दूसरे के हो गए।

आज़ादी के बाद भी वे जीवनभर असत्य और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे। 1975 में जब आपातकाल लगा तो उन्होंने खुलेआम इसका विरोध किया। 1980 में उन्होंने कोदुगु (कूर्ग) जिले के आदिवासियों को उनकी जमीन पर से बेदखल करने के खिलाफ संघर्ष किया। 1993 में कारगिल नाम की एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी गुजरात के कंडला में नमक बनाने के लिए आने वाली थी। सर्व सेवा संघ ने इसके विरुद्ध साबरमती से कंडला तक पैदल मार्च आयोजित किया, श्री दोरेस्वामी इस मार्च में शामिल थे।

ख़ास बात ये है कि डोरेस्वामी कभी किसी राजनीतिक पद पर नहीं रहे हैं, लेकिन उन्होंने अपना जीवन लोगों की सेवा में लगा दिया। इतने लंबे सार्वजनिक जीवन पर उनमें कहीं कोई दाग़ नहीं लगा और यह उन्हें सिस्टम से लड़ने की ताक़त देता रहा।

हमेशा राजनीति के सम्प्रदायीकरण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के विरुद्ध रहे। जब केंद्र सरकार नागरिकता संसोधन बिल लेकर आयी 2020 में वे 102 वर्ष की ऊम्र में भी पांच दिनों तक धरने पर बैठे थे। उनकी इस भागीदारी के कारण भाजपा के विधायक विजयपुरा बासनगौड़ा ने श्री दोरेस्वामी को पाकिस्तानी एजेंट घोषित कर दिया।

श्री दोरेस्वामी के सौवें जन्म दिवस पर सर्व सेवा संघ की ओर से उन्हें ‘सर्वोदय सम्मान’ से सम्मानित किया।

उनके जाने देश और सर्वोदय आंदोलन की अपार क्षति हुई है आजीवन योद्धा और सत्याग्रही श्री दोरेस्वामी को शत –शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि.

[block rendering halted]

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें