इस अशांत समय में, मौत की आहट

कल्पना मेहता की याद में

सईदा हमीद

महिला अधिकारों की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने वाली, सभी जन संघर्षों की सक्रिय साथी, नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ हमेशा खड़ी रहने वाली वर्षों की साथी कल्पना मेहता का 27 मई 20 की शाम निधन हो गया। वे 67 वर्ष की थी। पिछले दो साल से बीमारी से जूझते हुए वे जीवन संघर्ष कर रही थी। भारत में महिला आंदोलन के शुरुआती समूह का हिस्सा रही थी और तबके विख्यात महिला समूह ‘सहेली’ की स्थापना में उसकी खासी भूमिका थी। कल्पना मेहता की विदाई पर उनकी मित्र सईदा हमीद की टिप्पणी। आलेख का अनुवाद अनिल सिंह ने किया है। – संपादक

फोन पर विनीत तिवारी ने जानकारी दी “आपा एक बुरी खबर है।” मन हुआ कहूँ “मत बोलो; मैं ये सुन नहीं सकूँगी।” लेकिन सच का सामना तो करना ही पड़ता है। यह कल्पना की मौत की ख़बर थी। मेरी जिगरी दोस्त कल्पना मेहता हमारे बीच से रुखसत हो किसी दूसरी बेहतर जगह चली गई। शायर और हम सबकी अजीज दोस्त कमला भसीन के शब्दों में- हम भी सूखे हुये पत्तों की तरह टूट जाएंगे, फिर हवाओं पे मुनहासिर है कितनी दूर जाएंगे।

      मैं उससे 1988 में इंदौर में मिली थी। कल्पना यहाँ हमारा स्वागत करने के लिए थी। हम ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ की एक टीम के रूप में ‘महेश्वर बिजली परियोजना’ के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली महिलाओं के साथ पुलिस द्वारा की गई हिंसा, बल प्रयोग और गिरफ्तारी की जांच के लिए आए थे। इंदौर सर्किट हाउस में ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ की अध्यक्ष मोहिनी गिरि ने आयोग की सदस्य के रूप में मुझे, विषय विशेषज्ञ के रूप में कल्पना मेहता को और जिला महिला एवं बाल विकास अधिकारी संध्या को लेकर एक टीम बनाकर घटना स्थल भेजा। उन दिनों ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ राष्ट्रीय फ़लक पर एक मुद्दा बनकर उभर रहा था। मेधा पाटकर जन संघर्ष और जन आंदोलनों का एक चेहरा बन रही थीं।

      हमारी छोटी सी टीम मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में मंडलेश्वर के नजदीकी गाँव जलूद के लिए रवाना हुई। इस पूरी कवायद के पीछे कल्पना का हौसला और जुनून था। अंततः मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को आयोग के सामने उपस्थित होना पड़ा और अपनी कानून व्यवस्था की असफलता के बारे में सफाई देनी पड़ी। भारत के जाने-माने शिक्षाविद् प्रोफेसर कृष्ण कुमार ने 24 जुलाई 1998 के ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में लिखा “ग्रामीण महिलाओं द्वारा पुलिस की बर्बरता की जांच के लिए ‘’राष्ट्रीय महिला आयोग’’ को लेकर आना, पचास साल पुराने इस गणतन्त्र के लिए कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।” यह ताकत, हार न मानने वाली कल्पना मेहता की प्रेरणा और कड़ी मेहनत का नतीजा थी।

      यह कहानी लंबी है जिसके तमाम नतीजे रहे, कुछ अच्छे और कुछ निराश करने वाले, लेकिन यह कल्पना थी जो इस पूरी यात्रा में मेरी आँखों में चमकती रही। इस नर्मदा अत्याचार की कहानी लिखने के मामले में मैं एक नौसिखिया सदस्य थी। कल्पना ने मेरा हाथ थामा, और इस मसले के हर ब्योरे को उसने अपने इंजीनियरिंग के नज़रिये से बयां किया। उसने मुझे वहाँ गाँव और अस्पताल में मिली महिलाओं के अनुभवों को सुनना और जज़्ब करना सिखाया। उस उथल-पुथल भरे दिन, देर रात वह अपना पोर्टेबल टाइप-राइटर लेकर बैठी और लगभग अधिकांश रिपोर्ट लिख डाली। यह ‘’राष्ट्रीय महिला आयोग’’ की सबसे अच्छी रिपोर्टों में से थी और इसका पूरा श्रेय कल्पना को जाता है।

      यह हमारी उस दोस्ती की शुरुआत थी जो फिर 22 सालों तक चली। इसमें लंबे अंतराल भी रहे, लेकिन प्रेम कभी कम न हुआ। उसके व्यक्तित्व के अनेक पहलू थे जो हर बार उससे मिलने पर मुझे और नयी ऊर्जा से भर देते थे। वह मुझे भुट्टे का कीस और तमाम स्वादिष्ट व्यंजन का स्वाद चखाने इंदौर के पुराने शहर के सराफा बाज़ार ले गई। यह मेरी जीभ और मेरी नज़रों के लिए आनंद का विषय था, इन सबके लिए कल्पना का शुक्रिया। उसने अपनी अनूठी चिकित्सा पद्धति से मेरा इलाज किया जिसने जीवन की सारी मनोधारणाओं को सकारात्मकता में बदल डाला। मैं उसके बताए हुये नुस्खे को सालों तक अमल में लाती रही जिसने जीवन की घोर आपदाओं को झेलने में मेरी मदद की। सालों तक हम अपने सफर में दिल्ली और इंदौर के रास्तों पर टकराते रहे। अभी दो साल पहले जब मेरी उससे मुलाक़ात हुई, आखिरी बार, मुझे एक गहन पीडा का एहसास हुआ था।

      ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बुलावे पर इसके संस्थापकों में से एक रहे ख़्वाजा अहमद अब्बास के बारे में बोलने के लिए गई थी। मैं और मेरी मित्र रूथ, ख़्वाजा अहमद अब्बास मेमोरियल ट्रस्ट के प्रतिनिधि के तौर पर प्रोफेसर जया मेहता और कॉमरेड विनीत तिवारी के मेहमान थे। मीडिया और कला जगत के लोगों से भरे हाल में यह एक रोमांचक शाम थी। लेकिन मेरे लिए इस शाम का महत्वपूर्ण क्षण था जब देर शाम मैं कल्पना को देखने गई। हालांकि एक दमदार, सक्रिय कल्पना को व्हील चेयर में देखना मेरे लिए बहुत ही कठिन था, पर मेरे दोस्तों ने मुझे संभाला। वही मुस्कराहट। शब्द भी निकले, लेकिन बोलने और समझने में मुश्किल रहे। मैंने वहाँ उसकी नौजवान बेटी अदिति और दामाद श्रेयस को देखा। उसकी अंधेरी जिंदगी में दो प्रकाश स्तम्भ। मैंने कल्पना को तोड़कर रख देने वाली इस बीमारी को समझने की कोशिश की। लौटकर मैंने न्यूयॉर्क में अपने एक ओंकोलॉजिस्ट दोस्त को पत्र लिखकर उसकी राय मांगी। दरअसल कोई इलाज़ था ही नहीं।

      आज विनीत ने बताया कि प्रवासी मजदूरों के पलायन की इन दर्दनाक घटनाओं से ही आखिरकार कल्पना का दिल टूट गया था। अंतिम समय तक अपनी व्हील चेयर में बैठे-बैठे ही वह प्रवासी मजदूरों की पीड़ा कम करने के लिए जो कुछ कर सकती थी, करती रही। पर लोगों की तकलीफ़ों की इसी कसक ने उसकी जीने की इच्छा को भी ख़त्म कर दिया।

      दोस्त ! तुम बहुतों को टूटा दिल लिए छोड़ कर चली गयी हो। अब कोई ऐसा साँचा नहीं है जो और-और कल्पनाएं बना सके। तुम्हारी याद हमें प्रेरणा देती रहेगी।

       गालिब के शब्दों में : “ऐसा कहाँ से लाएँ कि तुझसा कहें जिसे ! ” (सप्रेस)

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