चण्डीप्रसाद भट्ट

सतत विश्वसनीयता खोते मीडिया के इस जमाने में यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि वन-संरक्षण के ‘चिपको आंदोलन’ को उन दिनों की ख्यात साप्ताहिक पत्रिका ‘दिनमान’ और उसके अनुपम मिश्र जैसे लेखक क्या और कैसी ऊर्जा देते थे। प्रस्तुत है, सत्तर के दशक के अपने अनुभवों को साझा करते हुए ‘चिपको आंदोलन’ के संस्थापक-नेता चण्डीप्रसाद भट्ट का स्व.अनुपम मिश्र की पुण्यतिथि पर यह लेख।

वनांदोलन के लिए काम करते हुए हमारे अनुभवों ने यह सिद्ध कर दिया था कि राजनीति और प्रशासन शक्तिशाली निहित स्वार्थों के कब्जे में है। अपने ही इलाके को उपनिवे बनाकर उसका आर्थिक शोषण करने वाले अफसरों के षडद्यत से निपटने के जब सभी दरवाजे बंद हो गए तो फिर हमने आंदोलन की रहा पकड़ी। ‘दशौली ग्राम स्वराज्य संघ’ ने समस्याओं को लेकर पहला शांति कूच 22 अक्टूबर 1971 को चमोली जनपद के मुख्यालय गोपेश्वर में किया। इसमें गांधी जी की अंग्रेज शिष्या एवं उत्तराखंड में रचनात्मक कार्यों की प्रमुख सरला बहन दूरस्थ क्षेत्रों से आई महिलाओं के साथ अग्रिम पंक्ति में चल रही थीं। यह पहला अवसर था, जब ’वन जागे, वनवासी जागे’ और ’वनों से रोजगार पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ के उद्घोषों के जरिए गांव के लोगों ने अधिकारियों को पहली चेतानवी दी थी। इसके बाद एक साल तक का समय प्रतीक्षा में बीता। लखनऊ, दिल्ली और देहरादून के कई चक्कर लगाए गए। हम वनांदोलन के बारे में पूरे देश के सामने स्थिति स्पष्ट कर देना चाहते थे, जिससे वन और वनवासियों की वास्तविक स्थिति एवं अन्यायपूर्ण, शोषणकारी व्यवस्था के कारण वनों के विना की जानकारी पूरे देश को हो सके और निहित स्वार्थों के संरक्षक अधिकारी और राजनीतिज्ञ वनवासियों को कुचलने में सफल न हो सकें।

इससे पहले स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्रों में हमारी मीटिंग के समाचार तो छपते थे लेकिन इनसे पूरी स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाती थी। कई बार वन-समस्या से संबंधित पर्चे पत्रकारों को दिए गए, पर उन्होंने कोई तवज्जो नहीं दी। मैंने अनुपम मिश्र के बारे में सुना था कि वे एक युवा लेखक हैं और उनके द्वारा ‘भूदान-यज्ञ’ पत्रिका या अन्य समाचार पत्रों में हमारी व्यथा-कथा का वृतांत प्रकाशित हो जाएगा। दिल्ली में मिलने पर मैं उनसे बात करने में संकोच कर रहा था, लेकिन वे अपने स्वभाव के अनुरूप खुलकर बात करने के लिए मुझे प्रोत्साहित करते रहे। लगभग दो घंटे में मैंने विस्तार से अपने सर्वोदय-आंदोलन से जुड़ने, ‘दशौली ग्राम स्वराज्य संघ’ द्वारा किए जा रहे कार्यों व उनमें आ रही बाधाओं, वन से संबंधित समस्याओं और उनसे संबद्ध लोगों के परंपरागत हक-हकूकों एवं वन संरक्षण की जानकारी दी।

बाद में उसी दिन उनका संदेश आया कि चार बजे तैयार रहना। एक अखबार के दफ्तर में जाना है। अखबार का नाम सुनते ही क्या कहना है, कैसे कहना है,आदि बातें मन में उठती रहीं। नियत समय पर अनुपमजी मुझे लेने आए और हम दोनों पास के दरियागंज इलाके में चैथी मंजिल पर स्थित ’दिनमान’ पत्रिका के दफ्तर पहुंचे। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह की साप्ताहिक ’दिनमान’ की उन दिनों बहुत प्रतिष्ठा थी। अंदर गए तो एक केबिन के बाहर ’रघुवीर सहाय, संपादक’ लिखा देखा। अंदर गए तो अनुपमजी ने सहायजी से मेरा परिचय कराया तथा हमारी व्यथा-कथा उन्हें सुनाई। आगे मुझसे भी समस्या बताने के लिए कहा। सहायजी ने अपने सहयोगी सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, जवाहरलाल कौल तथा नेत्रसिंह रावत को भी अपने कक्ष में बुला लिया। उनसे परामर्श करने बाद सहायजी ने अनुपमजी से कहा कि ’ठीक है, उत्तराखंड पर विशेषांक निकालेंगे तथा मुख्य लेख आपका होगा।‘ 19 नवम्बर 1972 को विशेषांक निकालना तय हो गया। मेरी घबराहट अब और बढ़ गई थी। विशेषांक निकलेगा तो उसमें क्या-क्या छपेगा, आदि प्रश्न मेरे मन में उठने लगे।

मैं ‘दिनमान’ के विशेषांक का इंतजार करने लगा। आखिर में दस प्रतियां डाक से प्राप्त हो गई। पत्रिका में अनुपमजी का मुख्य लेख ’सहजीवन और सहमरण के प्रयोग’ शीर्षक से छपा था। इसके उप-शीर्षक थे-‘चैतरफा उन्नति के प्रयोग’ और ‘वनों का दर्द।‘ अन्य लेख औधियों, प्राकृतिक विवरणों, बद्रीनाथ आदि के बारे में थे। अनुपमजी ने अपने लेख में बहुत सावधानी तथा स्पष्टता से सरल भाषा में हमारे कामों की सराहना की थी तथा उसके निचोड़ में था कि इसका जो प्रतिकार होगा उसे कोई कभी दबा नहीं पाएगा। अंततः जब लोग लडेंगे तो राजनीति की दमकलों और वनों के व्यापारियों की नहीं चलेगी। इस अंक की खूब चर्चा हुई। इससे हमारा बहुत उत्साहवर्द्धन हुआ। हम आश्वस्त हुए कि अब हम जो अहिंसक प्रतिकार करेंगे, उसको कोई दबा नहीं सकेगा। हमारे मुद्दे और यहां हो रहे अत्याचार की जानकारी देश को इस पत्र के माध्यम से हो गई थी।

‘दिनमान’ के इस अंक के कारण हमारे संगठन में नए उत्साह और ऊर्जा का संचार हुआ, जिसकी परिणति ’चिपको आंदोलन’ में हुई। उसके बाद अनुपमजी हमारी गतिविधियों को देश के सामने लाते रहे। ’चिपको आंदोलन’ के साथ-साथ हमने वन एवं पर्यावरण संवर्द्धन शिविरों के आयोजन शुरू किए। इन शिविरों में अनुपमजी नियमित भाग लेते थे और कार्यकर्ताओं के साथ श्रमदान में भी बढ़-चढ़ कर शामिल होते थे। इन शिविरों में मुख्यरूप से महिलाओं और युवाओं की खास भागीदारी होती थी। देश के अलग-अलग क्षेत्रों के लोग इन शिविरों में भाग लेते थे। अनिल अग्रवाल, सुनीता नारायण, डॉ.वीरेन्द्र कुमार जैसे ख्यात पर्यावरणविदों के अतिरिक्त कई वैज्ञानिकों एवं समाजसेवियों ने इन शिविरों में भाग लिया। अनुपम मिश्र की अगुवाई में एक बार मध्यप्रदे के होशंगाबाद के ’मिट्टी बचाओ अभियान’ से जुड़े सुरे दीवान, श्याम बोहरे, सुरे मिश्र, राके दीवान, मालिनी चंद,भारती आदि सम्मिलित हुए थे। एक बार वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कैला प्रका भी सम्मिलित हुए थे। बाद में यह क्रम कई वर्षों तक चला।

युवाओं और छात्रों को साथ लेकर वन- संवर्द्धन की पहली कार्यशाला जोशीमठ के मारवाड़ी क्षेत्र में आयोजित की गई थी जिसमें एक सौ से  अधिक छात्रों ने भाग लिया था। अनुपम को जैसे ही इसका पता चला वे तुरंत शिविर में पहुंच गए। कुछ दिनों तक शिविर में रहकर उन्होंने ‘दिनमान’ में ‘अगली पीढ़ी के वृक्ष’ शीर्षक से एक लेख’ भी लिखा। ‘दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल’ द्वारा 1977-78 में बिरही घाटी में चलाए गए ’मजनूं अभियान’ में भी अनुपमजी और उनकी पत्नी मंजुश्री की भागीदारी रही। हमारे शिविरों में सुबह 6 बजे से दिनचर्या शुरू हो जाती। इसमें प्रार्थना, नाश्ता, श्रमदान, भोजन, सार्वजनिक सभा, खेल, सर्वधर्म प्रार्थना, चर्चा का समावे रहता। अनुपमजी की विशेषता यह थी कि वे हर कार्यक्रम में आगे रहते-चाहे श्रमदान में पत्थर ढोने का काम हो या गड्ढा खोदने अथवा पौधे रोपने का, वे हर काम को पूरे मनोयोग से करते।

‘रेमन मेगसेसे अवार्ड फाउंडेन’ के निमंत्रण पर अनुपमजी के साथ मैं मनीला (फिलीपींस) गया था। अनुपमजी को मेरे साथ ही बुलाया गया था। मैं हिंदी में बोलता था और वे अंग्रेजी में अनुवाद करते थे। अनुपम जी के कारण वहां पर मुझे भाषा की कोई कठिनाई नहीं हुई। अनुपमजी की सादगी,नम्रता एवं सहजता के कारण मुझे बडी-से-बडी बातों और विचारों को समझने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। वहां पर लोगों में ’चिपको आंदोलन’ के प्रति बहुत जिज्ञासा थी। अनुपमजी ठीक ढंग से परिभाषित कर उनके प्रश्नों के उत्तर देते थे जिससे मेरा काम बहुत हल्का हो गया। (सप्रेस)

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