इप्टा के राष्ट्रीय अधिवेशन में प्रस्‍तुत नुक्कड़ नाटक

दिनेश चौधरी

इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) के लोकप्रिय नाम से जाना जाने वाला यह नाट्य आंदोलन संपूर्ण रूप से एक सांस्कृतिक आंदोलन रहा है, जिसका मकसद जनता के बीच राजनैतिक चेतना जगाना ही नहीं, बल्कि ऐसा नवजागरण रहा है जिसके जरिए मेहनतकश अवाम को उसकी प्रगतिशील और जनपक्षीय सांस्कृतिक विरासत से साक्षात्कार कराया जा सके। इप्टा का 15वां राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन 17 से 19 मार्च, 2023 तक रांची के डाल्‍टनगंज में हो रहा है। इस मौके पर अभिनेता व लेखक लकी गुप्ता, जम्मू के मंचित नुक्‍कड नाटक मॉ मुझे टेगौर बना दे पर दिनेश चौधरी की समीक्षा।

हद है कि वह एक ठेका-मजदूर है पर उसकी चाहत टैगोर बनने की है। कुछ ज्यादा ही बड़ी ख्वाहिशें नहीं उसकी? जाने भी दें। किसी इंसान को कुछ न मिले तो वह ख्वाहिश तो जाहिर कर ही सकता है। बाज लोगों के पास तो ऐसी हजारों ख्वाहिश होती हैं, कि हर ख्वाहिश पर दम निकल जाये।

गाँव लौटना है उसे। माँ बीमार है। खीसे में पैसे नहीं हैं। ठेकेदार देता कम है, लूटता ज्यादा है। सारे ठेकेदार ऐसे ही होते हैं। भावी टैगोर को यह बात पता है कि इसलिए उसने आड़े वक्त के लिए कुछ पैसे जोड़ रखे हैं। ज्यादा नहीं है पर फिलवक्त कुछ काम चल जायेगा। माँ के अलावा और कौन है? पिता थे, चल बसे। एक इमारत भरभराकर उन पर गिर गयी। आस-पास लोग थे। बहुत सारे लोग। कोई मदद को आगे नहीं आया। लोग मोबाइल पर वीडियो बनाते रहे। यह वीडियो खूब वायरल भी हुआ।

लड़के की एक आदत बहुत खराब है। वह बात-बात पर गुस्सा हो जाता है और कभी एकदम भावुक। यह उतार-चढ़ाव कुछ ज्यादा है। नाटक करने वालों को यह सब करना पड़ता है। इमोशन न हों तो नाटक में नाटकीयता कहाँ से आयेगी? अभी-अभी उसने तमाशाइयों के बीच बैठे गौहर रजा साहब के कंधों पर रखे बैग को ताड़ लिया है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा स्कूल के दिनों में उसके कंधों पर लटका होता था। पीठ पीछे। पीठ पर स्कूल बैग का बोझ आते ही जी हल्का हो जाता है। पुरानी यादें कुलाँचे भरने लगती हैं। यादें ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती। पीठ पर वेताल की तरह लदीं होती हैं…

वह छठवें या शायद सातवें दर्जे में पहुँच गया है। पढ़ने में होशियार है। कविताएँ भी लिखता है। पर कविताओं के लिखने से स्कूल की फीस तो नहीं चुक जायेगी। बाप के हाथ तंग है। माँ-बाप के बीच इसी बात को लेकर कभी-कभी कहा-सुनी भी हो जाती। इन हालात में उसकी तालीम की गाड़ी उसी तरह घिसट रही है, जैसी जिंदगी की। जब तक और जहाँ तक खिंच जाए, गनीमत है। एक दिन जब वो पूरे इलाके में दसवीं की परीक्षा में अव्वल आया था और अखबार में उसकी तस्वीर छपी थी, बाप ने अखबार के चिथड़े कर किताब-सहित उसके झोले को बाहर कर फेंक दिया। बाप दुष्ट नहीं है, हालात से मजबूर है।

स्कूल के दिनों की सारी बातें खराब नहीं है। कुछ अच्छी भी हैं। मसलन हिंदी के मास्साब, जो कविताएँ और कहानी सुनाते हैं। टैगोर बनने की ख़्वाहिश यहीं से जागती है। कुछ कविताएँ कहीं जो डायरी में दर्ज थीं। डायरी में दर्ज कविताएँ जरिया-ए-माश नहीं बन सकतीं। इसके लिए ठेकेदार के यहाँ खटना होता है। ठेकेदार के यहाँ खटने वाला कविताओं क्या करे? कविताएँ उसने फाड़ कर फेंक दी, पर वो जो जेहनो-दिल में दर्ज है उसका क्या किया जाये?

लड़का अदाकारी में माहिर है। अपनी अदाकारी से उसने जो आभासी दुनिया रची है, पल भर में वह छलाँग लगाकर वहाँ से निकल आता है और वास्तविक दुनिया में कुछ सवाल उछालकर वापस लौट जाता है। ये सवाल मानीखेज़ हैं। जरूरी हैं। इन सवालों को उठाने के लिये ही नाटक का ताना-बाना रचा गया है।

ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियों के बीच वो पल सबसे अच्छा होता है, जब कभी वो दिन भर अपनी देह को निचोड़ने के बाद माँ से मुखातिब होता है। माँ अक्सर ऐसे मौंकों पर रो पड़ती है। माँ की गोद में वह भी। दोनों के आँसू मिल जाते हैं, जैसे कोई सहायक नदी किसी बड़ी नदी से मिल जाती है।

गाँधी या टैगोर बनने के लिये उनकी महानताओं को छूना जरूरी नहीं होता। यह काम उनकी सादगी को अपनाकर भी किया जा सकता है, या उस रास्ते पर चलकर जो उन्होंने बता रखे हैं। लड़के ने टैगोर का गीत गाना शुरू कर दिया है, पर वो अकेला नहीं है :

जोदि तोर डाक शुने केउ ना आसे

तोबे एकला चलो रे।

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