भारत डोगरा

देशभर के राजनेता अपने-अपने राज्यों को पंजाब, हरियाणा बनाने के मंसूबे बांधते रहते हैं, लेकिन क्या आज का पंजाब अनुसरण लायक बचा है? साठ के दशक की भारी-भरकम लाभ-लागत वाली ‘हरित-क्रांति’ ने क्या पंजाब को अनुकरणीय उदाहरण की तरह बचने दिया है? कृषि विकास की आधुनिक पद्धतियों के नतीजे में पंजाब मिट्टी की घटती उत्पादकता, कर्ज और कैंसर जैसी जानलेवा व्याधियों की चपेट में है और सर्वाधिक किसान-आत्महत्याओं में देश के पांच प्रमुख राज्यों में शुमार है।

पंजाब की व्यापक पहचान भारत के एक ऐसे समृद्ध राज्य की है जहां पिछड़े राज्यों से बहुत से मजदूर रोजी-रोटी के लिए आते हैं। पंजाब ‘हरित क्रान्ति’ का अग्रणी राज्य माना जाता है जो कृषि उत्पादकता में सबसे आगे है। यह तथ्य अपनी जगह है, पर इसके बावजूद यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि पंजाब में हाल के वर्षों में बहुपक्षीय दुख-दर्द बहुत तेजी से बढ़े हैं। विभिन्न उपलब्ध अध्ययन बताते हैं कि पंजाब के अधिकांश छोटे किसान बुरी तरह कर्जग्रस्त हैं व उनमें से अनेक खेती-किसानी छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इनमें से हजारों किसान हाल के वर्ष में आत्महत्या कर चुके हैं। भूमिहीन खेत मजदूरों की स्थिति और भी चिंताजनक है। वर्ष 2000 से 2014 के बीच अनुमान है कि 15,000 से अधिक किसानों व खेत-मजदूरों ने आत्महत्या की जिनमें से अधिकांश बुरी तरह कर्जग्रस्त हो चुके थे। अनेक किसानों व खेत-मजदूरों का कर्ज उस स्थिति में पंहुच चुका है जहां से वे अपनी आय के आधार पर इसे चुकाने की स्थिति में नहीं है, जबकि ब्याज है कि बढ़ता जाता है।

पंजाब में अपनाई गई कृषि तकनीकों के कारण जिस प्राचीन कृषि सभ्यता की धरती में हजारों वर्ष से खेती बिना किसी प्रतिकूल असर के हो रही थी, उसमें मात्र 55 वर्षों की ‘हरित क्रान्ति’ ने मिट्टी व पानी का गंभीर संकट उत्पन्न खडा कर दिया है। मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन बनाए रखने वाले केचुए व सूक्ष्म-जीव बड़े पैमाने पर लुप्त हो गए हैं और मिट्टी में मुख्य व सूक्ष्म-पोषण तत्वों की गंभीर कमी उत्पन्न हो गई है। पंजाब के अधिकांश क्षेत्र में भू-जल स्तर नीचे जाने का संकट उत्पन्न हो गया है। भू-जल में यूरेनियम, आर्सेनिक, नाईट्रेट व अन्य प्रदूषकों की अधिकता पाई जा रही है। अधिकांश नदियां बुरी तरह प्रदूषित हैं और तालाब तेजी से लुप्त हो रहे हैं।

पेस्टीसाइड, खरपतवार-नाशक व कीटनाशक दवाओं तथा रासायनिक खाद के अधिक उपयोग से विभिन्न स्तरों पर स्वास्थ्य की गंभीर समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, जैसे – जहरीली दवाओं के छिड़काव के दौरान उत्पन्न समस्या, खाद्य पदार्थों में जहरीले तत्व प्रवेश करने की समस्या, पेयजल प्रदूषित होने की समस्या आदि। खतरनाक औद्योगिक अवशेषों से ऐसी समस्याएं और बढ़ रही हैं। पंजाब के एक बड़े भाग में कैंसर के मरीजों में तेजी से वृद्धि हुई है। कुछ गांवों में जन्म के समय उपस्थित विकृतियां भी अब अधिक पाई जा रही हैं। नशे की तेजी से बढ़ती समस्या ने इन स्वास्थ्य समस्याओं को और बढ़ा दिया है।

एक अध्ययन के अनुसार युवा पुरुषों का बहुत बड़ा प्रतिशत शराब या किसी नशीली दवा के सेवन के आदी हैं। विभिन्न स्थानों पर आकंड़े अलग हो सकते हैं, पर इसमें कोई शक नहीं है कि विभिन्न तरह के नशे यहां तेजी से बढ़े हैं। बढ़ती दुर्घटनाओं, विशेषकर सड़क दुर्घटनाओं में भी नशा एक बड़ा कारण है। इस बढ़ते नशे की समस्या के साथ महिलाओं के विरुद्ध हिंसा भी बढ़ी है। इसके अतिरिक्त बढ़ती दहेज समस्या व यौन अपराधों के कारण भी महिलाओं की स्थिति असुरक्षित हुई है।

किसानों व खेत-मजदूरों के बढ़ते कर्ज व आर्थिक संकट, पर्यावरण व स्वास्थ्य के गंभीर संकट, तेजी से बढ़ते नशे व महिलाओं की बढ़ती समस्याओं को मिलाकर देखें तो तेजी से गहराते व बहुपक्षीय दुख-दर्द की सच्चाई पंजाब में समृद्धि की ऊपरी चमक-दमक के बीच साफ नजर आती है। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त प्रवासी मजदूरों की समस्याओं पर भी ध्यान देना जरूरी है। प्रवासी व स्थानीय बाल-मजदूरों को जोड़ कर देखें तो पंजाब में बाल-मजदूरों की संख्या लाखों में है, जबकि गांवों में शिक्षा से अनेक बच्चे अभी तक वंचित हैं। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि उपलब्ध अध्ययनों के अनुसार ‘हरित क्रान्ति’ के तमाम दावों के बावजूद पंजाब में आज भी बाल-कुपोषण काफी गंभीर स्थिति में मौजूद है। विभिन्न पशु-पक्षियों की स्थिति बहुत विकट है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहरीली दवाओं के अधिक उपयोग व जल-प्रदूषण के कारण पक्षियों की संख्या में बहुत कमी हुई है। स्थानीय प्रजातियों के पेड़ भी पहले से बहुत कम हैं।

आर्थिक संकट, कर्ज, आत्महत्या, नशा, स्वास्थ्य समस्याएं, महिलाओं की बढ़ती समस्याएं, उनके विरुद्ध हिंसा कहीं-न-कहीं आपस में जुड़े हुए हैं। किस तरह के बदलाव व तथाकथित विकास की राह अपनाने के कारण ये सब गंभीर समस्याएं उत्पन्न हुईं उसे पहचानना जरूरी है, ताकि इन समस्याओं को ही नहीं, उनके कारणों को भी समग्र रूप से दूर किया जा सके। जरूरत इस बात की है कि बढ़ते दुख-दर्द के मूल कारणों की समझ बनाकर वैकल्पिक विकास की राह की एक समग्र सोच विकसित की जाए और फिर इस राह पर आगे बढ़ने के लिए गहरी निष्ठा से आपसी सहयोग व एकता से कार्य किया जाए।

इस तरह की वैकल्पिक राह निकालने के लिए यह बहुत जरूरी है कि आर्थिक व सामाजिक विषमता, असमानता व अन्याय को हर स्तर पर कम करने के प्रयास तेज किए जाएं। चाहे यह भूमि-सुधारों के प्रयास हों, भूमिहीनों को कुछ भूमि देने के प्रयास हों, बजट संसाधनों के न्यायोचित उपयोग के प्रयास हों, किसानों व खेत-मजदूरों के कर्ज कुछ शर्तों के साथ वापस लेने के प्रयास हों या लिंग व जाति आधारित भेदभाव हर स्तर पर दूर करने के प्रयास हों, आर्थिक-सामाजिक विषमता दूर करने व समानता लाने को उच्च प्राथमिकता देना जरूरी है। औद्योगीकरण की नीतियों में ऐसे बदलाव लाने चाहिए जिससे गांवों और उनके आसपास ऐसे श्रम-सघन, प्रदूषण-रहित उद्योग आरंभ हों जो लोगों के दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।

खेती-किसानी की बात करें तो ऐसी तकनीक की आवश्यकता है जो सस्ती, आत्म-निर्भरता बढ़ाने वाली, पर्यावरण की रक्षा करने वाली और मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाने वाली हों तथा भू-जल उपलब्‍धता के अनुकूल हो। मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन को फिर प्राप्त करने व बढ़ाने के प्रयास जरूरी हैं। जैविक खेतों को सस्ती व आत्म-निर्भर तकनीक के रूप में लेना चाहिए जो हमारे गांवों व छोटे किसानों के अनुकूल हों। भूमिहीन खेत मजदूरों को भी कुछ जमीन देने का पूरा प्रयास होना चाहिए व छोटे किसानों के भूमि स्वामित्व की रक्षा होनी चाहिए। छोटे किसान ऐसी सस्ती तकनीक अपनाएं जो उन्हें कर्ज में फंसाए बिना अच्छी उपज दे सके। दलहन-तिलहन को फिर उचित स्थान मिले तथा ऐसा फसल-चक्र व मिश्रित खेती अपनाई जाए जिससे मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन फिर प्राप्त हो व बना रहे। इस तरह की जैविक खेती को एक आंदोलन की तरह फैलाया जाए जिसमें छात्र, महिलाएं व शहरी लोग भी रुचि लें तथा खेतों के साथ छोटे बगीचों में इसे अपनाया जाए। फसल के अवशेषों (पराली) को जलाने के स्थान पर इनका उपयोग पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल होना चाहिए। मशीनीकरण को जरूरत से अधिक नहीं बढ़ाना चाहिए, अपितु आपसी सहयोग से फसल संबंधी कार्यों को समय पर पूरा करना चाहिए।

विभिन्न समुदायों जैसे दलित व गैर-दलित में अलगाव नहीं, अपितु आपसी सहयोग व एकता बनानी चाहिए जो न्याय आधारित हो। इसमें सभी समुदायों की भलाई है। पूरे गांव का समग्र व सही विकास सब समुदायों के आपसी सहयोग व एकता से ही संभव है। तेजी से बढ़ रही सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए भी आपसी एकता व सहयोग बहुत जरूरी है। पर्यावरण की रक्षा का कार्य, जल-संसाधन की रक्षा के कार्य बहुत आवश्यक हैं और इनमें सफलता तभी मिलेगी जब सभी समुदाय आपसी सहयोग व एकता से कार्य करें। वैकल्पिक विकास व समाधानों की जो भी राह निकाली जाए वह मूलतः समता, सबकी बुनियादी जरूरतें पूरी करने, रोजी-रोटी की रक्षा करने, पर्यावरण की रक्षा करने, अमन-शान्ति बनाए रखने, पशु-पक्षियों सहित जीवन के विविध रूपों की रक्षा पर आधारित होनी चाहिए। (सप्रेस)

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भारत डोगरा
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और अनेक सामाजिक आंदोलनों व अभियानों से जुड़े रहे हैं. इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साईंस, नई दिल्ली के फेलो तथा एन.एफ.एस.-इंडिया(अंग्रेजोऔर हिंदी) के सम्पादक हैं | जन-सरोकारकी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान को अनेक पुरस्कारों से नवाजा भी गया है| उन्हें स्टेट्समैन अवार्ड ऑफ़ रूरल रिपोर्टिंग (तीन बार), द सचिन चौधरी अवार्डफॉर फाइनेंसियल रिपोर्टिंग, द पी.यू. सी.एल. अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स जर्नलिज्म,द संस्कृति अवार्ड, फ़ूड इश्यूज पर लिखने के लिए एफ.ए.ओ.-आई.ए.ए.एस. अवार्ड, राजेंद्रमाथुर अवार्ड फॉर हिंदी जर्नलिज्म, शहीद नियोगी अवार्ड फॉर लेबर रिपोर्टिंग,सरोजनी नायडू अवार्ड, हिंदी पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला केंद्रीय हिंदी संस्थान का गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार समेत अनेक पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है | भारत डोगरा जन हित ट्रस्ट के अध्यक्ष भी हैं |

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