दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

इसरायल में बनाए गए सॉफ्टवेयर ‘पेगासस’ की मार्फत की जा रही जासूसी के प्रकरण में सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमणा, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की खंडपीठ ने अपनी टिप्पणी में जॉर्ज ऑरवेल के कालजयी उपन्यास ‘1984’ का जिक्र किया है। करीब सात दशक पहले प्रकाशित सत्ता के सर्व-शक्तिमान और फासिस्ट बनते जाने की कहानी पर आधारित इस उपन्यास की दुनियाभर में चर्चा है, खासकर इसलिए कि आज के दौर में अनेक देशों में ठीक ‘1984’ के तर्ज की सरकारें मौजूद हैं। प्रस्तुत है, जॉर्ज ऑरवेल और उनके उपन्यास पर दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का यह लेख।

साहित्य की तारीफ़ में जो बहुत सारी बातें कही जाती हैं उनमें से एक यह भी है कि साहित्य आने वाले कल को भी देख लेता है। विवेचकों ने बहुत सारे उदाहरणों से इस बात को पुष्ट भी किया है। साहित्य की इसी सामर्थ्य को स्मरण करता हुआ मैं आज एक अंग्रेज़ी उपन्यास की चर्चा करना चाहता हूं। प्रतिष्ठित ‘टाइम’ पत्रिका ने सन् 1945 के बाद के सबसे अधिक महत्वपूर्ण ब्रिटिश लेखकों की एक सूची सन् 2014 में प्रकाशित की थी। इस सूची में जिस लेखक का नाम दूसरे नम्बर पर था, उसका एक उपन्यास वैसे तो अपने प्रकाशन के बाद से ही चर्चित और प्रशंसित है, किंचित विवादास्पद भी, लेकिन इधर यह कहकर इस उपन्यास को सराहा जा रहा है कि यह कृति साहित्य के माध्यम से भविष्य दर्शन का उत्कृष्ट प्रमाण प्रस्तुत करती है। मैं बात कर रहा हूं जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास ‘1984’ की। इस उपन्यास को बीसवीं सदी के श्रेष्ठतम उपन्यासों में गिना जाता है। बहुत रोचक बात यह है कि लेखक इस उपन्यास का शीर्षक ‘द लॉस्ट मैन ऑफ यूरोप’ रखना चाहते थे, ‘1984’ तो उनका वैकल्पिक शीर्षक था। प्रकाशक को यह वैकल्पिक शीर्षक व्यावसायिक रूप से अधिक आकर्षक लगा और इस तरह शीर्षक के मामले में लेखक की राय पिछड़ गई।  

हमारे लिए यह जानना भी कम रोचक नहीं है कि इस उपन्यास के लेखक जॉर्ज ऑरवेल का जन्म आज के बिहार और तब के बंगाल प्रांत के मोतिहारी नामक एक बहुत साधारण से स्थान के एक अति साधारण सरकारी बंगले में हुआ था। इस बंगले के निवासी रिचर्ड ब्लेयर ब्रितानी सरकार में अफ़ीम महकमे के एक कर्मचारी थे। वे 1875 में भारत आए थे। रिचर्ड और ईडा मेबल के यहां जून 1903 में एक संतान ने जन्म लिया जिसका नाम रखा गया – एरिक आर्थर। जन्म के अगले ही वर्ष यह शिशु अपनी मां के साथ लंदन चला गया और फिर 1922 में ‘इम्पीरियल पुलिस’ का एक एएसपी बनकर भारत लौटा। उसे पोस्टिंग मिली बर्मा में। अच्छी खासी नौकरी थी। तनख़्वाह थी – साढ़े छह सौ पाउण्ड, लेकिन एरिक को इस नौकरी में मज़ा नहीं आ रहा था। अंतत: उसने 1927 में इस नौकरी को त्याग कर पूर्णकालिक लेखक बनने का फैसला किया और इसी के साथ उसने अपने लिए एक नया नाम भी चुन लिया। यह नाम था – जॉर्ज ऑरवेल।

जॉर्ज ऑरवेल को बहुत लम्बा जीवन नहीं मिला। ‘1984’ उपन्यास उनके छोटे से जीवन के उस आखिरी दौर में 1947-48 में लिखा गया जब वे तपेदिक से बुरी तरह ग्रस्त थे। दिसम्बर 1948 में यह उपन्यास पूरा हुआ और इसका पहला संस्करण 08 जून 1949 को प्रकाशित हुआ। इसके एक साल बाद ही 21 जनवरी 1950 को जॉर्ज ऑरवेल का निधन हो गया। जॉर्ज ऑरवेल का एक और उपन्यास बहु-चर्चित है – ‘एनिमल फॉर्म।‘ असल में इन दोनों उपन्यासों की गणना दुनिया के बेहतरीन राजनीतिक उपन्यासों में की जाती है। इनके अनुवाद दुनिया की करीब-करीब सारी बड़ी भाषाओं में हो चुके हैं और इनकी करोड़ों प्रतियां बिक चुकी हैं। यह जानना भी कम रोचक नहीं होगा कि जॉर्ज ऑरवेल के भारत में जन्म की बात का पता एक ब्रिटिश पत्रकार इयान जैक ने सन 1983 में लगाया था।  

जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास ‘1984’ भविष्य की, जो अब वर्तमान बन चुका है, एक भयावह तस्वीर दिखाता है। यह उपन्यास केंद्रित है, ‘ओशिनिया’ नामक एक काल्पनिक देश में। इस देश का तीसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला प्रांत है, ‘एयरस्ट्रिप वन’ और इसी प्रांत का एक शहर है लंदन। इस शहर में बहुत सारी ऊंची-ऊंची इमारतें हैं, जैसे एक इमारत है ‘न्यूस्पीक’ जहां ‘सत्य एवं इतिहास विखण्डन और पुनर्लेखन मंत्रालय’ अवस्थित है। लंदन में ही प्रेम, शांति और समृद्धि मंत्रालय की इमारतें भी हैं जहां से सारा राजकाज संचालित होता है। ‘शांति मंत्रालय’ युद्ध का माहौल बनाने का काम करता है तो ‘सच मंत्रालय’ झूठ को स्थापित करने का दायित्व वहन करता है। ‘प्रेम मंत्रालय’ में यातनाएं दी जाती हैं, तो ‘समृद्धि मंत्रालय’ का काम अभाव बनाए रखना है। नाम और काम के इस विरोधाभास से ‘डबल थिंक के सिद्धांत’ का पालन करके सत्ता के हितों को सुरक्षित रखा जाता है।

‘न्यूस्पीक’ इमारत पर बहुत बड़े अक्षरों में सत्तारूढ़ दल, जिसका सर्वेसर्वा 45 साल का आकर्षक चेहरे और घनी मूंछों वाला ‘बिग ब्रदर’ नामक व्यक्ति है, के तीन नारे लिखे हुए हैं : “युद्ध शांति है, स्वतंत्रता ग़ुलामी है और अज्ञानता शक्ति है।” इसके पोस्टर हर जगह लगे हुए हैं और उनके नीचे लिखा हुआ है – “बिग ब्रदर तुम्हें देख रहा है।” सबको देखने वाले इस ‘बिग ब्रदर’ को किसी ने नहीं देखा है। इस रहस्यपूर्ण ‘बिग ब्रदर’ की सत्ता सर्वशक्तिमान है। जगह-जगह टेली-स्क्रीन लगे हैं जो सरकार के कामों, नीतियों और योजनाओं का प्रचार करते रहते हैं और जनता पर निगरानी भी रखते हैं। जनता पर निगरानी रखने के लिए एक ‘थॉट पुलिस’ भी है जिसका काम है कि अगर किसी के मन में भी कोई सत्ता विरोधी विचार आए तो उसे उठा लिया जाए और उसका अस्तित्व ख़त्म कर दिया जाए। यह खात्मा जितना भौतिक रूप से होता है उतना ही आधिकारिक रूप से भी। ऐसे लोगों का सारा रिकॉर्ड ही मिटा दिया जाता है। इसे कहा गया है – ‘पर्सन का अनपर्सन’ हो जाना।  

ऑरवेल का यह पूरा उपन्यास एक काल्पनिक देश के तानाशाह ‘बिग बॉस’ द्वारा निर्मित दो प्रतिमानों – लोगों के हर क्रिया-कलापों पर बारीकी से नज़र रखना और एक विशाल प्रचार-तंत्र की उपस्थिति के बीच विकसित होता है। इस काल्पनिक देश में ‘बिग बॉस’ ने जो नियंत्रण तंत्र निर्मित किया है उसका लक्ष्य राजनीतिक विरोधियों पर काबू पाने के साथ-साथ यह भी है कि समाज की सामूहिक चेतना से उन सभी संदर्भ बिंदुओं को मिटा दिया जाए जिनसे कोई समाज भाषाई विश्लेषण की क्षमताएं ग्रहण करता है। ऑरवेल अपने इस उपन्यास में एक ऐसी भयावह सर्वाधिकारवादी व्यवस्था का खाका खींचते हैं जो मनुष्य द्वारा विकसित की गई हर चीज़ को एक औज़ार मानकर उसका इस्तेमाल मनुष्य के ही खिलाफ़ करती है।

‘बिग बॉस’ का तंत्र भाषा को इस तरह बदलता है कि वह अपनी अर्थ-बहुल क्षमता ही खो देती है। असल में ‘बिग बॉस’ चाहता है कि नागरिक के हाथ में भाषा उतनी ही रहे जितनी से उसका जीवन चलता रहे और वह राज्य की मंशा समझता रहे। इस तरह वह भाषा से उसकी सारी सामर्थ्य छीनकर उसे पंगु बना देता है। ‘बिग बॉस’ शासित इस ओशिनिया में ‘क्लाइमेट ऑफ थॉट’ का एक और पहलू है, दुश्मनों की सतत पहचान। ‘बिग बॉस’ को अपना राज्य कायम रखने के लिए लगातार काल्पनिक दुश्मनों की ज़रूरत रहती है। वह अपने राजनीतिक विपक्षियों को पूरे देश का दुश्मन घोषित कर देता है। इतना ही नहीं, पड़ोसी देश यूरेशिया से सम्बंध लगातार तनावपूर्ण रखे जाते है, ताकि लोगों के उन्माद को बनाए रखा जा सके। जीवन के मामूली-से-मामूली प्रसंगों में भी उन्माद पैदा करने में मीडिया बड़ी भूमिका निबाहता है। उदाहरण के लिए जनता को यह सूचना देने से पहले कि अगले हफ्ते से चॉकलेट के राशन में कटौती की जाएगी, मीडिया पर यह खबर दिखाई जाती है कि देश ने अमुक-अमुक मोर्चे पर, अमुक-अमुक लड़ाई जीत ली है।

बहुत रोचक बात यह है कि इस उपन्यास का प्रकाशन जब हुआ तब ‘दूसरा विश्व-युद्ध’ समाप्त हो चुका था और सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमरीका के बीच वैचारिक तनाव खूब बढ़ा हुआ था। अमरीकी साहित्य समीक्षकों ने ऑरवेल के इस चरित्र ‘बिग बॉस’ में, रूस के जोसेफ़ स्टालिन की छाया देखी और हालांकि यह ऑरवेल का अभिप्रेत नहीं था, इस उपन्यास का प्रयोग वामपंथ की भर्त्सना के लिए खूब किया गया। असल में ऑरवेल एक उदारवादी लोकतांत्रिक विचार के हामी थे और उनका सोच यह था कि फासीवाद किसी भी तरह की विचारधारा में घुसकर उसको चट कर सकता है।

लगभग ऐसी ही बात उन्होंने अपने पहले उपन्यास ‘एनिमल फार्म’ में भी कही थी कि कोई भी राजनीतिक नेतृत्व जनता को सुनहरे सपने दिखाकर उसे नियंत्रण, नौकरशाही और प्रचार के फंदों में बांधकर फासीवाद के गढ्ढे में खींच कर ले जा सकता है। खुद ऑरवेल ने अपने निधन से एक बरस पहले कहा था कि वे कभी नहीं चाहेंगे कि अपने इस उपन्यास में जिस दुनिया का चित्रण उन्होंने किया है, वह कभी भी साकार हो ! लेकिन दुर्भाग्य है कि उनका न चाहा हुआ भी हो गया। जो दु:स्वप्न इस लेखक ने करीब सात दशक पहले देखा था वह आज की दुनिया का यथार्थ बन चुका है। बहुत सारे देशों में ‘बिग बॉस’ अपनी-अपनी तरह से अपनी जनता पर सवारी गांठ रहे हैं। (सप्रेस)

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