कोरोना से मौत एक बड़ा झूठ है। इसे सरकार, सरकार समर्थक और सरकार विरोधी मीडिया, पक्ष, विपक्ष और हम सब भी बहुत बार दोहरा रहे हैं। इसी वजह से सच सात तहों के भीतर छुप गया है। जहां से...
व्यवस्था के प्रति लोगों का यकीन समाप्त होकर मौत के भय में बदलता जा रहा है। सबसे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो तब होगी जब ज़िम्मेदार पदों पर बैठे हुए लोग सांत्वना के दो शब्द कहने के बजाय जनता में...
गरीबी कोई दबी-छिपी, अर्थशास्त्रियों के अबूझ आंकडों भर की बात नहीं रही है। देशभर में अचानक बेरोजगार हुए ग्रामीण मजदूरों ने कठिन हालातों में, पैदल अपने-अपने गांव-देहात लौटकर सबको गरीबी और भुखमरी के दर्शन करवा दिए थे। ऐसे में...
इस समय हमारे शासक अपने ही नागरिकों से हरेक चीज़ या तो छुपा रहे हैं। धोखे में रखा जा रहा है कि किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं है। वैक्सीन, ऑक्सिजन, रेमडेसिविर इंजेक्शन, अस्पतालों में बेड्स, डाक्टर्स आदि...
हमारे देश में ऊर्जा यानि बिजली का अधिकांश हिस्सा कोयले से बनाया जाता है, लेकिन उसे धरती से निकालने वाले मजदूर बेहाल हैं। कोविड-19 बीमारी के चलते देशभर में समय-समय पर लगा ‘लॉकडाउन,’ कोयला खदानों पर कोई खास असर...
भूख हमारे समय की सर्वाधिक व्यापक और गहराई से महसूस की जाने वाली सचाई है, लेकिन उससे निपट पाने की कोई कारगर तजबीज अब तक हाथ नहीं लगी है। एक तरफ, तरह-तरह के खाद्य-सुरक्षा कानूनों और सरकारी, गैर-सरकारी प्रयासों...
सालाना कर्मकांड की तरह अब फिर पानी पर बिसूरने का मौसम आ गया है। हर साल महाराष्ट्र के विदर्भ की तरह मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश का बुंदेलखंड इस दुख में अगुआ रहता है, लेकिन अधिकांश सरकारी, गैर-सरकारी कोशिशें, एक जमाने में उम्दा...
तेजी से फैलती कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों ने हमारी भोजन उत्पादन की पद्धति पर तीखे सवाल खडे कर दिए हैं। हम जिसे भोजन मानकर खा रहे हैं क्या वह सचमुच जहर-मुक्त, पौष्टिक और इंसानी शरीर के लिए सर्वथा उपयुक्त...
इन दिनों हम एक देश की हैसियत से खुद के युवा होने का बडा जश्न मनाते रहते हैं, लेकिन क्या हमने कभी यह भी सोचा है कि पचास साल बाद यही आबादी बूढी भी होगी और तब देश की...
पत्रकारिता समाप्त हो रही है और पत्रकार बढ़ते जा रहे हैं! खेत समाप्त हो रहे हैं और खेतिहर मज़दूर बढ़ते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह। खेती की ज़मीन बड़े घराने ख़रीद रहे हैं और अब वे ही तय...