
मध्यप्रदेश में वन भूमि अतिक्रमण को लेकर सरकारी आंकड़ों और दावों में गंभीर विरोधाभास सामने आया है। एनजीटी में प्रस्तुत हलफनामे में जहां 5.46 लाख हेक्टेयर भूमि पर अतिक्रमण की बात मानी गई है, वहीं वन विभाग की रिपोर्टें पुराने आंकड़ों पर ही अटकी हैं। इस विरोधाभास ने वन अधिकार कानून के तहत आदिवासियों को मिलने वाले अधिकारों को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। बड़ी संख्या में दावे खारिज हुए हैं और ‘वन मित्र पोर्टल’ जैसी व्यवस्था भी उनके लिए उलझन बन गई है।
मध्यप्रदेश में वन भूमि अतिक्रमण और वन अधिकारों को लेकर सरकारी आंकड़ों और दावों में भारी विरोधाभास सामने आ रहा है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के आदेश के बाद राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में यह स्वीकार किया गया है कि प्रदेश में करीब 5.46 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर लोगों द्वारा अतिक्रमण किया गया है। यह आंकड़ा अनेक सवाल खड़े करता है, खासकर जब इसे वन विभाग की वार्षिक रिपोर्ट और वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की स्थिति से जोड़ा जाए।
सरकारी रिपोर्टों में विरोधाभास
वन विभाग के वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन 2020-21 के अनुसार, 1980 से 1990 के बीच 1.19 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण दर्ज किया गया था। इसके बाद 1991 से 2020 तक किसी भी प्रकार का नया अतिक्रमण नहीं बताया गया है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि 2020 से 2025 के बीच अचानक 3.97 लाख हेक्टेयर भूमि पर कैसे अतिक्रमण हो गया?
इसी रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि 1980 से 2020 के बीच कुल 2.84 लाख हेक्टेयर वन भूमि का विकास परियोजनाओं के लिए व्यपवर्तन (डाइवर्ज़न) किया गया। इसमें सिंचाई परियोजनाओं के लिए सबसे अधिक 83,842 हेक्टेयर, खनन, रक्षा व अन्य परियोजनाओं के लिए शेष भूमि दी गई।
रिकॉर्ड स्तर पर वनों की कटाई
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने संसद में बताया कि 2014 से 2024 के बीच 38,852 हेक्टेयर वन भूमि को विकास परियोजनाओं के लिए व्यपवर्तित किया गया। वहीं, भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार, प्रदेश में कुल वन क्षेत्र 85,72,400 हेक्टेयर है, जो पिछली रिपोर्ट से 61,240 हेक्टेयर कम है। यह गिरावट भी चिंताजनक संकेत देती है।
ऐतिहासिक अन्याय और वन अधिकार कानून
वर्ष 2004 में गोदावर्मन केस के दौरान केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में माना था कि वन भूमि की चकबंदी के दौरान आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों का निपटारा नहीं किया गया, जिससे वे ‘अवैध कब्जेदार’ माने गए। इस ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने के लिए वन अधिकार कानून 2006 लाया गया, जो अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को उनके पारंपरिक अधिकार लौटाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
दावों की भारी अस्वीकृति
मध्यप्रदेश में जनवरी 2025 तक वन अधिकार कानून के अंतर्गत 5,85,326 व्यक्तिगत दावे दायर किए गए, जिनमें से 3,18,425 दावे खारिज कर दिए गए। सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2019 को बताया था कि अकेले मध्यप्रदेश में 3,54,787 व्यक्तिगत दावे खारिज हुए हैं। बाद में राज्यस्तरीय समिति ने स्वीकार किया कि दावों को खारिज करने में उचित प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ, और उनके पुनरीक्षण का निर्णय लिया गया।
‘वन मित्र पोर्टल‘ बना परेशानी का कारण
राज्य सरकार द्वारा वन अधिकारों की पारदर्शिता के लिए शुरू किया गया ‘वन मित्र पोर्टल’ आदिवासी समुदाय के लिए असुविधा का कारण बन गया है। स्थानीय लोग आरोप लगा रहे हैं कि पोर्टल का उपयोग अब अधिकारों को छीनने के लिए किया जा रहा है। कानून के अनुसार, दावा तभी मान्य होता है जब 13 दिसंबर 2005 से पहले कब्जा हो और जाति या पीढ़ीगत निवास प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जाए, जो अक्सर ग्रामीणों के पास उपलब्ध नहीं होता।
जमीनी हकीकत: आधे-अधूरे अधिकार पत्र
26 अप्रैल 2025 को राज्य की टास्क फोर्स समिति ने डिंडोरी जिले के सिमरधा गांव का दौरा किया। यहां के 72 दावों में से सिर्फ 35 लोगों को ही अधिकार पत्र मिले, वो भी अधूरे। कई ऐसे गांव जो 1932 से पहले जंगलों में बसे हैं, उन्हें अभी तक स्थायी पट्टे नहीं मिले। अभ्यारण्य और टाइगर रिजर्व क्षेत्र के गांवों के दावे भी अस्वीकार कर दिए जा रहे हैं, जबकि कानून स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि कब्जा है तो अधिकार पत्र देना होगा।