राजकुमार सिन्हा

सन् 2010 में, ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ की डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को डांवाडोल करने वाला परमाणु ऊर्जा कानून लाया गया था। अमरीका की औद्योगिक जमात के उकसावे पर बनाया गया यह कानून दुर्घटना होने पर उसकी समूची जिम्मेदारी से मुनाफा कमाने वाली निर्माता कंपनी को मुक्त करता था। उस जमाने में तीखे विरोध के कारण इस कानून को नरम कर दिया गया था, लेकिन अब फिर से इसे लाया जा रहा है। क्या हैं, इसके निहितार्थ?

भारत सरकार संसद के आगामी सत्र में परमाणु ऊर्जा संबंधी अधिनियमों में संशोधन करने जा रही है। परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए ‘निजी ऑपरेटरों को अनुमति देने और उनकी देनदारी सीमित करने’ का यह कदम उस निर्णय के बाद आया है, जिसमें अमेरिकी कंपनियों को भारत में परमाणु उपकरण बनाने और डिजाइन करने की अनुमति दी गई है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ (यूपीए) सरकार ने इसके लिए जो ‘सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010’ बनाया था, उसकी शर्तें देशों के नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करती थीं, कंपनियों को ज़िम्मेदार बनाती थीं। इसी तरह एक दूसरा क़ानून ‘एटॉमिक एनर्जी एक्ट 1962’ भी है जिसके तहत केन्द्र सरकार ‘परमाणु ऊर्जा केन्द्रों’ का विकास और संचालन करती है।

तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जल्द-से-जल्द परमाणु दायित्व के बिल को संसद में पारित करवाना चाहते थे, मगर संसद के अंदर और बाहर विपक्षी दलों तथा अन्य नागरिक संगठनों के विरोध और उनकी सरकार के डांवाडोल होने के कारण उन्हें उसे वापस लेना पड़ा था। इस बिल के अनुसार परमाणु ऊर्जा संयंत्र में दुर्घटना होने पर सप्लायर को किसी भी क्षतिपूर्ति से मुक्त रखा गया था। बाद में विपक्षी दलों की मांग के अनुरूप बिल में बदलाव किए जाने पर ‘सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डेमेज एक्ट 2010’ संसद से पारित हुआ था।

इस अधिनियम के तहत फिलहाल घरेलू निजी कम्पनियों की ऊर्जा क्षेत्र में भागीदारी होती है, परन्तु ‘नीति आयोग’ की ओर से गठित सरकारी समिति ने परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर लगी पाबंदी हटाने की सिफारिश की है। समिति ने परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में विदेशी कम्पनियों को शामिल करने के लिए अधिनियम के साथ ‘विदेशी निवेश अधिनियमों’ में भी बदलाव की सिफारिश की है।

गौरतलब है कि भारत और अमेरिका के बीच असैन्य परमाणु सहयोग के लिए 2008 के समझौते के तहत परमाणु प्रौद्योगिकी सामग्रियों के आयात की अनुमति दी थी और निजी कम्पनियों को भारतीय परमाणु बाजार में प्रवेश करने का रास्ता खोला था। यह समझौता अमेरिका के ‘परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954’ की ‘धारा 123’ के तहत किया गया था जिसे ‘123 समझौता’ कहा गया था। इस समझौते को लेकर देशभर में गंभीर सवाल उठे थे। 

प्रस्तावित बदलाव का संकेत 2022 में भारत – अमेरिका के रक्षा और विदेश मंत्रियों के बीच वाशिंगटन की द्विपक्षीय वार्ता के समय ही मिल गया था, जब अमेरिकी कम्पनी ने भारत में 60 हजार करोड़ रुपए की लागत से छह परमाणु रिएक्टर लगाने और भारत के घरेलू उपयोग और निर्यात के लिए ‘लघु मॉड्यूलर परमाणु रिएक्टर’ (एसएमआर) तकनीक के विकास पर करीब 10 हजार करोड़ रुपए निवेश की इच्छा जाहिर की थी। ‘एसएमआर’ ऐसे परमाणु रिएक्टर होते हैं जो केवल 10 से 300 मेगावाट बिजली उत्पादित करते हैं। इनके मॉड्यूलर डिजाइन और छोटे आकार के चलते जरूरत के मुताबिक एक ही साइट पर इनकी कई इकाइयां लगाई जा सकती हैं। इसको लेकर उस समय ‘न्यूक्लियर पावर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया’ और ‘वाशिंगटन इलेक्ट्रिक कंपनी’ के बीच 2022 में बातचीत अंतिम चरण में थी।

भारत चरणबद्ध तरीके से परमाणु ऊर्जा में 49% तक ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ (एफडीआई) की अनुमति दे सकता है। सरकार शुरुआती चरण में केवल 26% तक की अनुमति दे सकती है और समीक्षा के बाद इसे बढ़ा सकती है। केन्द्र सरकार ने सन् 2035 तक परमाणु ऊर्जा को वर्तमान 8 गीगावाट से बढ़ाकर 40 गीगावाट करने के लिए निजी क्षेत्र को खोलने की योजना बनाई है। भारत सरकार के पूर्व सचिव ईएएस सरमा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपनी अपील दोहराई है कि वे भारत के मौजूदा कानूनों को कमजोर करने के लिए अमेरिका और अन्य परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के दबाव में न आएं, जैसा कि वित्तमंत्री ने इस वर्ष के बजट भाषण में संकेत दिया है।

सवाल उठता है कि परमाणु क्षेत्र में निवेश करने वाली कम्पनियां भारत क्यों आना चाहती हैं? दरअसल आजकल परमाणु बिजली उद्योग में जबरदस्त मंदी है, इसलिए अमेरिका, फ्रांस और रूस आदि देशों की कम्पनियां भारत में इसके ठेके और आर्डर पाने के लिए बेचैन हैं। साल 2017 में जारी ‘विश्व परमाणु उद्योग स्थिति रिपोर्ट’ (वर्ल्ड न्यूक्लियर इंडस्ट्री स्टेटस रिपोर्ट) में बताया गया था कि पिछले चार सालों में दुनियाभर में निर्माणाधीन परमाणु रिएक्टरों की संख्या में गिरावट देखी गई है। 2013 तक वैश्विक स्तर पर 68 रिएक्टरों का निर्माण कार्य चल रहा था, वहीं 2017 में निर्माणाधीन रिएक्टरों की संख्या 53 हो चुकी थी।

‘भोपाल गैस त्रासदी’ के पीड़ित आज तक न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में विदेशी कंपनियों को कड़े कानूनों से छूट देकर हम अपने नागरिकों के साथ खिलवाड़ करने जा रहे हैं। अमेरिका की परमाणु कंपनियों को यह छूट भारत के लिए भारी पड़ सकती है। भारत में निवेश से मोटा मुनाफ़ा कमाने वाली परमाणु कंपनियों को उनके दायित्व से कैसे छूट मिल सकती है? भारत में व्यापार कीजिए, मुनाफ़ा अमेरिका ले जाइए। अगर कोई गड़बड़ी हो तो हाथ झाड़कर खड़े हो जाइए। सवाल पूछने वालों पर कंपनी उल्टे मुक़दमे क़ायम कर देगी, क्योंकि हमारा क़ानून उनके लिहाज़ से तैयार किया जा रहा है।

परमाणु क्षेत्र के निजीकरण, ‘एसएमआर’ के अनुसंधान और विकास के लिए बड़े बजटीय आबंटन करना परमाणु विस्तारवाद की ओर बढ़ता कदम है। एक ‘एसएमआर’ अपने 60 वर्षों के अपेक्षित जीवन में, अपशिष्ट के रूप में लगभग 1,800 टन ‘व्यय ईंधन’ उत्पन्न करेगा। चुने गए स्थल को बहुत लंबी अवधि में ‘व्यय ईंधन’ के सुरक्षित भंडारण के लिए प्रावधान करना होगा। कानूनी प्रावधानों में यह सुनिश्चित करना होगा कि निजी पक्षों के स्वामित्व वाली साइटें विनियामक नियंत्रण में रहें।

डिज़ाइन और लाइसेंसिंग प्रक्रियाओं में प्रारंभिक रूप से खर्च किए गए ईंधन और रेडियोधर्मी अपशिष्ट प्रबंधन की आवश्यकताओं को शामिल करने से यह सुनिश्चित होगा कि सभी अपशिष्टों के निपटान के लिए एक निश्चित मार्ग है? इसलिए ‘एसएमआर’ के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए, उत्पादन और मॉड्यूल असेंबली के सभी चरणों में तथा स्टार्ट-अप और संचालन के लिए, उत्पादन और सुरक्षा मानकों के अनुपालन के लिए, विनियामक निरीक्षण और नियंत्रण की अत्यधिक आवश्यकता होगी।

भारत सरकार ने ‘परमाणु ऊर्जा मिशन’ के लिए 2025-26 के बजट में 20,000 करोड़ रुपए निर्धारित किए हैं। यह राशि ‘एसएमआर’ के अनुसंधान एवं विकास के लिए आबंटित की गई है। इसका लक्ष्य सन् 2033 तक कम-से-कम पांच स्वदेशी ‘एसएमआर’ विकसित करना है। सरकार परमाणु विकिरण के दीर्घकालिक प्रतिकूल प्रभावों को समझे और इसके बजाय विकेंद्रीकृत, न्यूनतम पारिस्थितिक प्रभावों वाले और सामाजिक समानता और वित्तीय स्थिरता के सिद्धांतों को बनाए रखने वाले ‘गैर-परमाणु अक्षय ऊर्जा’ उत्पादन को प्राथमिकता दे। (सप्रेस)