मनोज निगम

आधुनिक विज्ञान को लेकर एक विचित्र सी मान्यता है कि उसे आसानी से, बोलचाल की भाषा में समझा-समझाया नहीं जा सकता। नतीजे में विज्ञान आम समाज में रूढ-से-रूढतर और कई बार अंधविश्वास तक होता जाता है। विज्ञान को आसान बनाने में डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर जैसे विज्ञान लेखकों की महती भूमिका रही है। हाल में, 20 मई को 86 वर्ष के डॉ. नार्लीकर सदा के लिए हमसे विदा हो गए हैं। प्रस्तुत है, उन्हें याद करते हुए, मनोज निगम की यह टिप्पणी।-संपादक

बहुत साल पहले पुणे स्थित ‘आयुका’ (इंटर-युनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रॉनॉमी एण्‍ड एस्ट्रोफिजिक्स, खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी का अंतर-विश्वविद्यालय केंद्र) के परिसर में जाने का मौका मिला था। जब तक कोई ना बताता, तब तक मालूम ही नहीं होता कि परिसर के अन्दर विज्ञान वाटिका में अन्य पेड़ों की तरह वो खास पेड़ भी था जिसको न्यूटन के सेब के पेड़ का वंशज कहा जाता है। यह पेड़ इंग्लैंड के उस सेब के पेड की कलम से लगाया गया था, जिसके बारे में कहा जाता है उसके नीचे न्यूटन को गुरूत्वाकर्षण का विचार आया था। विज्ञान के इतिहास को याद करने के लिए यह पहल जयंत नार्लीकर ने की थी।

मूलत: ‘मराठी विज्ञान परिषद्’ में और बाद में बाल-विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ में प्रकाशित अपने एक लेख में जयंत जी ने बताया था कि दिसम्बर 1988 में ‘आयुका’ की स्थापना के बाद हमेशा  उनकी कोशिश इस संस्थान के बारे में जानकारी देने की रहती है। 1999 में आस्ट्रेलिया के सिडनी में एक स्लाईड शो दिखाया जा रहा था, जिसमें ‘आयुका’ के परिसर के प्रमुख आंगन में आर्यभट्, गैलीलियो, न्यूटन एवं आईन्स्टाईन की मूर्तियां नजर आ रही थीं। इनमें न्यूटन की मूर्ति निगाहें नीची किए सेब को देख रही हैं। यह मूर्ति बरगद के एक बड़े पेड़ के नीचे है।

इसे देखकर नार्लीकर जी ने मजाक में कहा कि शायद न्यूटन सोच रहा है कि बरगद के पेड़ से सेब कैसे गिरा?! जैसे ही उनकी बात खत्म हुई, वैज्ञानिक रान ईकर्स ने सुझाव दिया कि क्यों ना न्यूटन की मूर्ति के पीछे उसी सेब के पेड़ का वशंज लगाया जाए?! उनका सुझाव सभी को बहुत अच्छा लगा और बहुत सारी चुनौतियों को पार करने के बाद परिसर में न्यूटन के सेब के पेड़ का वशंज लगाया गया।

विज्ञान का खुद का इतिहास है, वैज्ञानिकों को नई-नई कल्पनाएं सूझती हैं, साथ ही उनसे गल्तियां भी होती हैं। खुद न्यूटन इन दोनों में माहिर थे। इसी तरह वैज्ञानिक जिन यंत्रों के माध्यम से खोज करते हैं, उनका भी इतिहास में अपना महत्व होता है। इसलिए उन्हें प्रयोगशाला में रखा जाता है, इससे प्रेरणा भी मिलती है। न्यूटन की इतनी महत्वपूर्ण खोज का सम्बन्ध इस पेड़ से जुड़ा है, इसलिए उसके वशंज को बच्चों के सामने खड़ा करना मुमकिन हुआ।  

बहुत लोग यह कहते हैं कि एप्लाइड साईंस में खगोल विज्ञान का महत्व नहीं है। कुछ पूछते हैं कि दूर-दूर तक फैले ग्रहों-तारों, आकाश-गंगाओं आदि का अवलोकन करने से मनुष्य को क्या लाभ होता है? इस तरह के जवाबों के लिए भी नार्लीकर जी ने विज्ञान प्रसारक की भूमिका निभाई। आपने मराठी, अंग्रेजी और हिन्दी में भी लेखन कार्य किया, बहुत सारी विज्ञान-कथाएं और पुस्तकें लिखीं।

उनकी आत्मकथा ‘चार नगरातले माझे विश्व’ के लिए उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार भी दिया गया। बच्चों में विज्ञान के प्रति दिलचस्पी बढ़ाने के लिए दूरदर्शन पर ‘ब्रम्हांड’ नामक धारावाहिक शो की परिकल्पना और पटकथा भी नार्लीकर जी ने लिखी थी, जो कि बहुत ही प्रसिद्ध हुई। इस कार्यक्रम में वे बच्चों की जिज्ञासाओं को शांत करने का भी  प्रयास करते थे।

जयंत नार्लीकर ने ब्रम्हांड की उत्पत्ति और विकास सम्बंधी परिकल्पनाओं पर शोधकार्य किया था। ‘आयुका’ संस्थान को बनाने में उनकी विशेष भूमिका रही थी, वे ‘आयुका’ के संस्थापक-निदेशक भी रहे थे। खगोल शास्त्र और खगोल भौतिकी में उनके योगदान के लिए ‘शांति स्वरूप भटनागर’ पुरस्कार, ‘महाराष्ट्र भूषण’ पुरस्कार जैसे अनेकों पुरस्कारों के साथ 1965 में पद्मभूषण और 2004 में पद्मविभूषण दिया गया।आज के दौर में जब टेक्नॉलाजी के अच्छे और बुरे प्रभावों से समाज जूझ रहा है, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने और वैज्ञानिक मानसिकता तैयार करने की समाज में बहुत जरूरत है। ऐसे में जयंत नार्लीकर जैसी शख्सियत का जाना आज की बहुत दुखद घटना है। (सप्रेस)