विवेकानंद माथने

दुश्मन देश को धूल चटा देने, नेस्तनाबूद कर देने के मंसूबे आखिर हमें कहां ले जाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि पडौसी देशों के प्रति खुन्नस निकालने की यह ललक अमीर हथियार निर्माताओं की तिजोरियां भरने में लगी हो? दुनियाभर में जारी युद्धों के आधार पर यही बता रहे हैं, विवेकानंद माथने।

युद्ध मानव सभ्यता के इतिहास का एक दुखद, लेकिन महत्वपूर्ण अध्याय रहा है। प्राचीन काल से लेकर आज तक, भले ही युद्धों के स्वरूप बदलते रहे हों, परंतु उनके मूल कारण आज भी वही हैं-सत्ता की लिप्सा,  प्रभुत्व की चाह और संकुचित राष्ट्रवाद। महाभारत का महासंग्राम हो या प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध, हर संघर्ष के बाद शेष रह जाती हैं, केवल लाशें, उजड़े नगर, बिखरे सपने और मानवता की हार। विडंबना यह है कि आज जब विज्ञान और तकनीक नई ऊंचाइयों पर पहुंच चुकी है, तब भी दुनिया युद्ध के उन्माद से ग्रस्त है, संकुचित राष्ट्रवाद का ज्वर चढ़ा है, हर देश दूसरे को आंखें दिखा रहा है, मानो एक-दूसरे के खून का प्यासा हो। परिस्थितियां धीरे-धीरे तीसरे विश्वयुद्ध की ओर बढ़ रही हैं।

यूक्रेन, जो कभी सोवियत संघ का हिस्सा था, अब ‘नार्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन’ (नाटो)  से जुड़ना चाहता है। ‘नाटो’ ने रूस को घेरने की मंशा से यूक्रेन का समर्थन किया और यह टकराव युद्ध में बदल गया। यह संघर्ष तीन साल से जारी है। यूक्रेन के शहर खंडहरों में तब्दील हो गए हैं और बुनियादी ढांचे ध्वस्त हो गए हैं। अब तक दोनों पक्षों के कुल 1.90 लाख से अधिक सैनिक मारे गए और 2.80 लाख से अधिक घायल हुए हैं। यूक्रेन की 1.43 करोड़ आबादी विस्थापित हो चुकी है, जिनमें से 65 लाख से अधिक शरणार्थी बनकर विदेश चले गए हैं और शेष अपने ही देश में दर-दर भटक रहे हैं। यूक्रेन की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है, वहीं पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते रूस की अर्थव्यवस्था भी गंभीर दबाव में है।

‘हमास’ के हमले और नागरिकों को बंधक बनाए जाने के जवाब में इज़राइल ने गाज़ा पर भीषण हमला किया। इस बदले की आग में हज़ारों निर्दोष लोगों की जानें गईं और लाखों घायल हुए, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। गाज़ा के करीब 19 लाख लोग विस्थापित हो चुके है, 70% से अधिक आवास नष्ट हो चुके हैं और अस्पताल, स्कूल, पानी और बिजली व्यवस्था का लगभग 90% ढांचा पूरी तरह ध्वस्त हो गया है। भोजन और पानी जैसी बुनियादी ज़रूरतों का भी गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है।

सूडान में 2023 से सेना और ‘रैपिड सपोर्ट फोर्स’ (आरएसएफ) के बीच जारी संघर्ष में 61,000 से अधिक लोग मारे गए और 1.2 करोड़ विस्थापित हुए हैं। म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद गृहयुद्ध छिड़ा, जिसने लाखों को शरणार्थी बना दिया। यमन में 2014 से जारी युद्ध ने 68% आबादी को मानवीय सहायता पर निर्भर कर दिया। इथियोपिया में ‘टिग्रे संघर्ष’ ने हजारों की जान ली और लाखों को भुखमरी की कगार पर पहुंचा दिया। इराक, लेबनान और अफगानिस्तान के ज़ख्म आज भी हरे हैं।  

हर युद्ध की सबसे बड़ी कीमत आम आदमी चुकाता है। जान-माल के नुकसान के साथ-साथ आम जीवन की बुनियादी ज़रूरतें और सामाजिक प्रगति भी बुरी तरह प्रभावित होती है। सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी-उन्मूलन जैसे जनकल्याणकारी क्षेत्रों के बजट में कटौती कर रक्षा खर्च बढ़ा देती हैं, जिससे आम जनता का जीवन और भी कठिन हो जाता है। भूख, बेरोजगारी और असमानता बढ़ती है। युद्ध का अंजाम केवल विनाश होता है, फिर भी युद्ध क्यों जारी रहते हैं? इसे क्यों नहीं रोका जाता? आखिर कौन हैं वे, जो युद्ध से लाभ उठा रहे हैं? दरअसल, युद्ध केवल दो देशों के बीच का संघर्ष नहीं होता, यह एक सुनियोजित योजना का हिस्सा होता है, जिसमें कुछ ताकतें पर्दे के पीछे से भारी लाभ कमाती हैं।         

युद्ध के पीछे असली कारण संसाधनों पर कब्जा, हथियारों की बिक्री, मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था को गति देना और सत्ता को मजबूत करना होता है। तेल, खनिज, जल, जमीन और श्रम पर नियंत्रण पाने के लिए बार-बार लड़ाइयां लड़ी गई हैं। अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा यूक्रेन को हथियार देना एकतरफा नहीं है, बल्कि इसके पीछे यूक्रेन के संसाधनों और क्षेत्रीय प्रभाव पर पकड़ बनाने का रणनीतिक लक्ष्य भी है। इन युद्धों ने पुराने हथियारों के भंडार खाली कर दिए हैं। ‘एआई ड्रोन,’ ‘हाईपरसोनिक मिसाइलें’ और साइबर हथियार जैसी नई तकनीकों वाले हथियार भी आज़माए गए हैं। युद्ध एक ऐसी ‘लाइव टेस्टिंग लैब’ बन चुका है, जहां नए हथियारों को परखा जाता है और उनके लिए बाज़ार तैयार किया जाता है।   

अब सभी देश हथियारों की दौड़ में शामिल हो गए हैं। इससे रक्षा उद्योग के लिए एक बड़ा बाजार खड़ा हुआ है। अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और जर्मनी जैसे देश बड़े हथियार निर्यातक हैं। युद्ध उनकी अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत कर रहा है। पारंपरिक हथियारों से लेकर परमाणु, जैविक और अब ‘आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस’ (एआई) आधारित स्मार्ट हथियारों तक, यह उद्योग युद्ध पर ही टिका है। ‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (सीपरी) की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में वैश्विक सैन्य खर्च 2.70 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया है।    

विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं जब भी आर्थिक संकट और मंदी से गुजरती हैं तब युद्ध उनके लिए एक अवसर बन जाता है। हथियारों की खपत बढ़ती है, पुराना स्टॉक खाली होता है और नए उत्पादनों का बाजार तैयार होता है। अमेरिका, रूस, फ्रांस जैसे देश पुराने हथियारों को युद्ध में झोंककर अपनी सैन्य उत्पादन प्रणाली को पुनर्जीवित करते हैं। युद्ध उनके आर्थिक पुनरुद्धार की रणनीति बन जाता है।  

हाल की पहलगाम जैसी आतंकी घटनाएं निस्संदेह बहुत पीड़ादायक हैं, लेकिन यह भी सोचने की ज़रूरत है कि क्या इन हमलों के पीछे खडी बड़ी ताकतें दोनों देशों को युद्ध के रास्ते पर धकेलना चाहती हैं? जनता का आक्रोश जायज़ होते हुए भी, यह प्रश्न जरूरी है कि क्या ये हमले केवल आतंकियों के हैं या कोई और ताकत इन्हें अंजाम देकर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की ज़मीन तैयार कर रही है?

वे जानते हैं कि कोई भी बड़ा देश आम जनता के समर्थन के बिना युद्ध नहीं लड सकता। पहलगाम जैसे आतंकी हमलों से उत्पन्न संवेदना का दोहन करना आसान होता है। युद्ध कई बार राष्ट्र की अस्मिता से जोड़ दिया जाता है। युद्ध के पहले ऐसी परिस्थितियां तैयार की जाती हैं कि शांति और सह-अस्तित्व में विश्वास रखने वाले लोग भी युद्ध के समर्थन में खड़े हो जाते हैं। संकुचित राष्ट्रवाद को उकसाने में कॉर्पोरेट मीडिया और सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है। फेक न्यूज़, उग्र भाषण और भावनात्मक उन्माद फैलाकर जनता को युद्ध के समर्थन में खड़ा कर दिया जाता है। लोग भ्रमित होकर प्रतिशोध की आग में युद्ध को न्याय समझने लगते हैं।

यदि यह उन्माद तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ा, तो निश्चित ही जैविक, परमाणु और ‘एआई’ आधारित विध्वंसक प्रणालियों का प्रयोग होगा। यह ऐसी तबाही ला सकता है जिसकी कल्पना भी भयावह है और जिसके परिणाम पूरी मानवता को सदियों भुगतने पड़ेंगे। इसलिए जरूरी है कि हम युद्धोन्मादी नेताओं, उकसाने वाले मीडिया संस्थानों और हथियार बेचने वाले देशों के खिलाफ एकजुट होकर युद्ध को ही चुनौती दें। यह लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वे युद्ध को नकारें और शांति का रास्ता चुनें। विनाश नहीं, जीवन चुनें ! (सप्रेस)