कुमार प्रशांत

भारत-पाकिस्तान की तीन-दिनी झड़प से और कुछ हुआ, न हुआ हो,आजकल की सरकारों की पोल जरूर खुल गई है। सर्वशक्तिमान डोनॉल्ड ट्रंप से लगाकर चीन, रूस, तुर्किए और युद्धरत भारत व पाकिस्तान की सरकारें कुल-जमा तीन दिन की झड़प में खुलकर उजागर हो गई हैं। क्या रही है, इन सभी की भूमिका? आखिर इस करीब तीन हफ्तों की उठा-पटक से क्या हासिल हुआ?

कहावत ‘हाथ के तोते उड़ जाना’ ऐसे ही वक्त के लिए बनी है। उन सभी जंगबाजों के हाथ के तोते उड़ गए हैं जो प्रधानमंत्री को ललकार रहे थे कि बस, अब रुकना नहीं है, इस्लामाबाद व लाहौर जेब में लेकर ही लौटना है, लेकिन ऐसे सारे शोर धरे रह गए और तीन दिनों में पाकिस्तान के साथ हमारा अब तक का सबसे छोटा युद्ध समाप्त हो गया।  

कोई भी युद्ध समाप्त हो और शांति किसी भी रास्ते लौटे तो उसका हर हाल में स्वागत ही करना चाहिए। शांति शर्त नहीं, जीवन है, लेकिन यह शांति किसी बाज के चंगुल में दबी हुई है!

डोनाल्ड ट्रंप की शांति के लिए मध्यस्थता युद्ध से कम खतरनाक नहीं है। यदि प्रधानमंत्री का यह कहना सच है कि यह शांति अमरीका की मध्यस्थता से नहीं, भयाक्रांत पाकिस्तान व विजयश्री को वरण करने वाले हिंदुस्तान की समझदारी से आई है, तो ट्रंप महाशय के इस काइयांपन को कठोरता से बरजना चाहिए। उन्होंने सबसे पहले, किसी से भी पहले ट्विट कर मध्यस्थता का दावा भी कर दिया, समझदारी दिखाने के लिए दोनों ‘बच्चों’ की पीठ भी थपथपा दी, दोनों को साथ बिठाकर ‘सॉरी’ कहने के लिए ‘तटस्थ स्थान’ भी बता दिया और इस विवाद से बाहर आने में मार्गदर्शक बनने की पेशकश भी कर दी?

इतना ही नहीं, यह भी कह दिया कि मेरे कहने से ‘आत्मसमर्पण’ नहीं करोगे तो मैं धंधा-पानी बंद कर दूंगा। यह सब किसी के हवाले से नहीं, सीधे ट्रंप महाशय के श्रीमुख से हमने भी सुना, मोदीजी ने भी सुना और सारी दुनिया ने सुना। उनके इस काइंयापने को बरजना तो दूर, न भारत ने, न पाकिस्तान ने मित्र ट्रंप से ऐसा कुछ भी कहा; बल्कि पाकिस्तान ने तो उनका सार्वजनिक तौर पर आभार भी माना। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इस दौर में अमरीका व ट्रंप का यह रवैया अत्यंत खतरनाक है। इसकी गहरी और गहन छानबीन होनी चाहिए, लेकिन अभी हम ख़ुद को तो देखें, फिर ट्रंप महाशय की बात करते हैं।   

आजादी के बाद से अब तक पाकिस्तान से हमारी जितनी भी जंग हुई है, उसके पीछे कहानी यही रही है कि पाकिस्तान ने हमारे सामने दूसरा कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं ! लेकिन एक फर्क भी है जिसे भी समझना जरूरी है। कारगिल और पहलगांम, दोनों के साथ एक बात समान है कि इन दोनों युद्धों के पीछे सरकार की अक्षम्य विफलता को छिपाने और ख़ुद को महिमामंडित करने की कोशिश हुई है। आप हिसाब लगाएं तो इन दोनों मौकों पर देश की कमान भारतीय जनता पार्टी के हाथ में थी। कारगिल में पाकिस्तान भीतर घुस आया, पहाड़ियों में उसने अपनी मजबूत जगह बना ली, हथियार, गोला-बारूद जमा कर लिया और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सोती रही। बाद में सैंकड़ों जवानों के रक्त से अपनी यह नंग छुपाई गई।

ऐसा ही पहलगांम में हुआ। हमारी गुप्तचर एजेंसी और हमारी सुरक्षा-व्यवस्था कहां सो रही थी कि पाकिस्तान से आतंकवादी निकले और पहलगांम के उस इलाके में पहुंच गए जहां सैंकड़ों सैलानी जमा थे? जिस कश्मीर का चप्पा-चप्पा आपकी मुट्ठी में है और जहां कोई कश्मीरी पलक भी झपकाता है, तो आपको पता चल जाता है, ऐसा दावा गृहमंत्री करते नहीं अघाते, वहां ऐसी असावधानी? और शर्मनाक यह कि उसके बारे में कोई सफ़ाई आज तक नहीं दी गई, कोई माफी नहीं मांगी गई। सिर्फ एक ही आवाज सुनाई देती है कि ‘ट्रेड’ और ‘टॉक’ एक साथ नहीं चल सकते; कि ख़ून और पानी एक साथ नहीं बह सकते ! तो क्या ‘सरकार’ व ‘बेकार’ एक साथ चल सकते हैं?

तीन दिनों के इस युद्ध से हासिल क्या हुआ? खोखली राजनीतिक शेखी  व चुनावी फसल काटने की तैयारी आदि की बातें तो अहले-सियासत जाने, हम तो देख रहे हैं कि तीन दिनों की इस ड्रोनबाजी से हमारे हाथ कुछ भी नहीं आया। न हम पाकिस्तान को इतना कमजोर कर सके कि वह आगे कोई दूसरा पहलगांम करने की हिम्मत न करे, न हम अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को अपने पीछे इस तरह खड़ा कर सके कि कोई पाकिस्तान, कोई चीन उसकी तपिश महसूस कर सके। दौड़-दौड़ कर विदेश जाने वाला, जबरन गले पड़ने वाला हमारा कूटनीतिक बौनापन ऐसा रहा है कि आज हमें व पाकिस्तान दोनों को एक ही पलड़े में रखकर, ट्रंप ने अपनी झोली में डाल लिया है। अमरीका भी जानता है कि पाकिस्तान के पीछे चीन खड़ा है और आज पुतिन का रूस, चीन के ख़िलाफ़ दूर तक नहीं जा सकता। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में हमारे इस तरह अलग-थलग पड़ जाने से देश बड़ी अटपटी हालत में आ गया है।  

तीन दिनों की इस ड्रोनबाजी ने हमें एकदम बेपर्दा कर दिया है। हमें यह सच्चाई पहली बार समझ में आई है कि हथियारों का जितना भी जखीरा हम जमा कर लें, उसका हम मनमाना इस्तेमाल नहीं कर सकते। इसलिए युद्ध में किसी को निर्णायक रूप से परास्त कर देना आज आसान नहीं है। हमारी फौज बली है, यह दावा हम करते रहें, लेकिन यह सच्चाई भी समझते रहें कि कोई भी फौज उतनी ही बली होती है जितना बली होता है उसके पीछे खड़ा समाज ! हमने अपने समाज का क्या हाल बना रखा है? 

हमारा समाज कैसे ऐसी भीड़ में बदल गया है कि जिसके पास युद्धोन्माद की मूढ़ नारेबाजी के अलावा कहने को कुछ बचा ही नहीं है ! हमारा मीडिया इन तीन दिनों में अपने पन्नों व पर्दों पर जैसा ‘फेक’ युद्ध लड़ने में जुटा हुआ था, उससे तो वीडियो गेम खेलने वाला कोई बच्चा भी शर्मा जाए ! पहलगांम में असावधानी की हर सीमा पार करने वाली सरकार, देश के भीतर खबरों के बारे में इतनी सावधान थी कि सबको वही कहना व लिखना था जो सरकार कहे। इस सरकार ने ऐसा माहौल बना रखा है कि जैसे आज राष्ट्रीय सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा स्वतंत्र सोच व समाचार से है।

हमारा तथाकथित ‘विशेषज्ञ बौद्धिक’ कितना विपन्न है, यह भी इन तीन दिनों में पता चला। यूट्यूब जैसे माध्यम, जो देश के विमर्श को एक दूसरा आयाम दे रहे थे, उन सबको चुन-चुनकर बंद कर दिया गया। एक माहौल ऐसा बनाया गया कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ी हो तब आप लोकतांत्रिक अधिकारों की बात कैसे कर सकते हैं? आपके ऐसे रवैये से दो बातें पता चलीं : पाकिस्तान जैसा खोखला हो चुका देश भी मात्र तीन दिनों में हम जैसे सर्वसाधनसंपन्न देश की सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है; और यह भी कि लोकतांत्रिक अधिकारों से देश मजबूत नहीं, बल्कि कमजोर होता है।

सारे चैनल कह रहे थे, सारे अखबार भयानक उबाऊ एकरसता से लिख रहे थे, प्रधानमंत्री भी बोल रहे थे और उसकी प्रतिध्वनि सारे मंत्रियों के भीतर से भी उठ रही थी कि हमने जवाब दे दिया- 26 निरपराध भारतीयों की हत्या का जवाब हमने दे दिया ! कैसे जवाब दिया? 26 लाशों के बदले 100 लाशें गिरा कर? यह किसी शांतिवादी या गांधी या बुद्ध वाले का तर्क नहीं है, सामान्य समझ की बात है कि बदला भले लिया, लेकिन जवाब तो कुछ भी नहीं बना। दोनों सरकारें नहीं बता रही हैं कि फौजी व नागरिक मिलाकर कुल कितने लोग मारे गए? लेकिन आपकी ही दी खबरें, आपके  ही दिखाए मंजर बताते हैं कि हमारी अचूक गोलाबारी तथा पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई में कई जानें गई हैं, काफी बर्बादी हुई है।

जो यहां हो रहा है, वही पाकिस्तान में भी हो रहा है। पराजित आदमी की तरह ही पराजित मुल्क भी ज्यादा प्रगल्भ होता है, तो पाकिस्तान की यह मनोभूमिका हम समझते हैं, लेकिन अपनी मनोभूमिका पाकिस्तान जैसी क्यों होती जा रही है? कहना होगा कि दोनों ने अपना-अपना जवाब दे दिया है, और खाली हो गए हैं। युद्ध के दरवाजे भी फ़िलहाल बंद हो गए हैं तो बात खत्म हो गई। अब कोई कहे कि किसने किसको जवाब दे दिया? परंपरा व पौराणिकता की शेखी बघारने वालों को याद रखना चाहिए कि महाभारत के अंत में आकर धर्मराज युधिष्ठिर का रथ भी धरा से आ लगा था और वे भी अपनी खाली हथेली देखकर यही पूछ रहे थे कि हाथ क्या आया?  

मौत जिंदगी का जवाब नहीं है, वह तो जिंदगी का अंत है। जिंदगी है तो सवाल हैं; और सवाल हैं तो उनका जवाब भी होगा जिन्हें हमें खोजना है। आज हम नहीं खोज सके, तो कोई बात नहीं। खोजते रहेंगे तो जवाब मिलेगा। हमारे बस में इतना ही है कि हम खोजने में ईमानदार हों। बुद्ध अनगिनत सालों पहले यही तो कह गए : तुम जैसा सोचते हो, वैसे ही बन जाते हो। इसलिए युद्ध भी लड़ें तो मानवीयता भूलकर नहीं, ज्वर भी चढ़े तो युद्धोन्माद का नहीं, क्योंकि हमें किसी भी सूरत में न अमानवीय बनना है, न बनाना है। हमें वैसा नागरिक नहीं बनना है जो नेवी के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी के चरित्र पर इसलिए कीचड़ उछालता है कि उसने पहलगांम में आतंकवादियों द्वारा अपने पति की हत्या के बाद भी देश को देशी आतंकवादियों के हाथ सौंपने से मना कर दिया।  

मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के मंत्री विजय शाह ने कर्नल सोफिया कुरैशी के बारे में जो अपमानजनक बातें कहीं वह ज़ुबान की फिसलन भर नहीं, उस खास मानसिकता का परिचायक है जिसके प्रधान व्याख्याता कपड़ों से अपने नागरिकों की पहचान की बात करते हैं; यही लोग हैं जो हमारे आला विदेश सचिव विक्रम मिसरी पर इसलिए लांक्षन लगाते हैं कि उन्होंने युद्धविराम की खबर देते हुए शालीनता नहीं छोड़ी। उन्माद का राक्षस हमेशा इसी तरह भूखा होता है – “उसे पानी नहीं भाता / सियासत ख़ून पीती है।” सप्रेस)