
भौगोलिक रूप से बेहद संवेदनशील माने जाने वाले पहाड़ों में विकास योजनाओं की जिद ने जानलेवा आफतें खड़ी की हैं। नतीजे में पहाड़ और उन पर बसा जीवन लगातार आपदाओं की चपेट में बना रहता है। कमाल यह है कि इन आपदाओं से निपटने की तैयारी में खासी कमजोरी दिखाई देती है।
‘स्वीडिश रेडक्रास सोसाईटी’ ने आठवें दशक में आपदाओं से निपटने के लिए एक मैनुअल तैयार किया था। ‘प्रिवेंशन इज बैटर देन केयर’ शीर्षक के इस मैनुअत का बाद में ‘इण्डियन रेडक्रास सोसाइटी’ ने हिन्दी में अनुवाद भी किया था। इस मैनुअल में उस दौर में दुनियाभर में आपदा प्रबंधन को लेकर किए जा रहे छोटे-छोटे प्रयासों को समझने की कोशिश की गई थी और उसके आधार पर आपदा प्रबंधन के लिए एक रास्ता सुझाया गया था।
मूल पुस्तक में दुनियाभर के महत्वपूर्ण उदाहरणों के साथ भारत में हो रहे कार्यो का भी जिक्र था, जिसमें 1970 की अलकनन्दा की बाढ़ के बाद ‘चिपको आंदोलन’ की मातृ-संस्था ‘दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल’ द्वारा किए गए प्रयासों पर एक पूरा खंड था। राहत और बचाव के साथ-साथ प्राकृतिक घटना आपदा में तब्दील न हो, इसके लिए इस संगठन के द्वारा किए गए प्रयासों का उल्लेख इस पुस्तक में किया गया था।
आज इस पुस्तक के प्रकाशन के लगभग पचास साल बाद का परिदृश्य देखें तो आपदाओं का सातत्य और तीव्रता बढ़ती जा रही है। देश में राहत और बचाव का तंत्र पहले की अपेक्षा काफी मजबूत हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर पहले आपदा प्रबंधन से जुड़ी जिम्मेदारियों के निर्वहन का कार्य ‘केन्द्रीय कृषि मंत्रालय’ के अधीन था, वह अब गृह-मंत्रालय के आधीन आ गया है। आपदा-प्रबधंन के लिए कानून बनाया जा चुका है। राष्ट्रीय स्तर पर और हर राज्य में अलग-अलग ‘आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ की स्थापना हो चुकी है।
अधिकतर राज्यों में जिला-स्तर पर ‘आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ गठित है जिनके द्वारा सालभर गतिविधियां संचालित की जाती हैं। ‘राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष’ (एनडीआरएफ) और ‘राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष’ (एसडीआरएफ) जैसी विशेषज्ञता वाले संगठन राहत एवं बचाव के लिए तैयार किए गए हैं। हाल के वर्षो में जिलास्तर पर भी जिला ‘आपदा प्रतिक्रिया कोष’ (डीडीआरएफ) बनाए जा रहे हैं।
इस सबका फायदा दिखने भी लगा है। राहत एवं बचाव में अब बेहतर कार्य हो रहा है। विशेषज्ञता प्राप्त दलों के प्रयासों से कम-से-कम समय में आपदा में फंसे लोगों तक पहुंच बन रही है। आपदा और विपदा में फंसे मानव-जीवन को बचाया जा रहा है। क्षति को कम-से-कम करने का प्रयास किया जा रहा है।
28 फरवरी को उत्तराखण्ड के चमोली जिले के विश्वविख्यात तीर्थस्थलों में एक ‘श्री बदरीनाथ धाम’ के समीप हिमस्खलन (एवलांच) के कारण ‘सीमा सड़क संगठन’ की कंटेनरों में बनी कालोनी के धराशायी होने की दुर्घटना में राहत और बचाव में आपदा प्रबंधन की तंत्र की भूमिका पहले से बेहतर दिखी, लेकिन आपदा प्रबंधन का प्राथमिक ज्ञान जहां से शुरू होती है उसमें हमारा तंत्र फिर से असफल दिखा।
सटीक सूचनाओं और चेतावनी के बाद भी हम इस दुर्घटना को टालने में असफल रहे। देश के पूर्वी ओर पश्चिमी तटों पर इन मौसमी पूर्वानुमानों से क्षति को कम किया जा रहा है और जीवन का नुकसान न्यूनतम हो रहा है। मौसम और उच्च हिमालय की इन सामान्य गतिविधियों को लेकर अब बेहतर पूर्वानुमान और सूचनाएं मिल रही हैं।
बदरीनाथ की घटना से कुछ दिन पहले ‘मौसम विज्ञान केन्द्र, देहरादून’ और सेना के मौसम विज्ञानियों की ओर से हिमस्खलन को लेकर पूर्वानुमान जारी किए गए थे। 27 और 28 फरवरी के लिए चेतावनी सटीक थी। इस चेतावनी को ‘मौसम विज्ञान केन्द्र’ के आपदा प्रबंधन तंत्र से साझा किया गया था और उसके अनुसार कार्य करने के सुझाव दिए थे। इसके बाद भी बदरीनाथ जैसे सहज पहुंच और सुविधाओं से लैस इलाके में असावधानी से हिमस्खलन-जनित आपदा हो जाना तंत्र की कमजोरियों की ओर इशारा करता है।
‘स्वीडिश रेडक्रास’ का नीति-वाक्य ‘राहत से बेहतर रोकथाम’ बदरीनाथ में कहीं नहीं दिखा। जिस स्थान पर यह दुर्घटना घटित हुई वह इलाका हिमस्खलन की दृष्टि से अतिसंवेदनशील स्थानों में से एक है। भारी बर्फबारी के दौरान हिमस्खलन के सामने श्रमिकों को छोड़ा जाना एक बड़ी चूक की ओर इशारा करता है।
आपदा प्रबंधन की योजनाओं में रोकथाम के कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी जाती है, ताकि आपदा ही घटित न हो और राहत, बचाव की जरूरत ही न पड़े। बदरीनाथ घाटी, देवदर्शनी से शुरू होती है जो बदरीनाथपुरी के साथ यहां के प्राचीन बामणी और नागणी गांवों के साथ माणा ग्राम पंचायत के आधा दर्जन छोटे गांवों को समेटते हुए मातामूर्ति, बशुधारा से होते हुए अलका और सतोपंथ ग्लेशियर तक फैली हुई है। इस घाटी के बीचों-बीच अलकनंदा नदी प्रवाहित होती है जो घाटी को दो हिस्सों में विभाजित करती है।
घाटी का बड़ा हिस्सा ‘नर’ और ‘नारायण’ पर्वतों से घिरा हुआ है जो हिमस्खलन के लिहाज से अत्यन्त संवेदनशील हैं। शुरूआती ऊंचाई समुद्रतल से लगभग साढ़े दस हजार फुट होते हुए अलकनन्दा नदी के उद्गम-स्थल अलका-ग्लेशियर तक लगभग तेरह से चौदह हजार फुट तक चली जाती है। भूगर्भविद एवं ‘गढ़वाल विश्वविद्यालय’ के प्रोफेसर डा.एमपीएस बिष्ट कहते हैं कि इस इलाके में शीतकाल में हिमस्खलन होना एक सामान्य प्राकृतिक घटना है जो वैज्ञानिकों द्वारा चिन्हित भी की गई है।
इसके अलावा अनुभव में भी यह दिखायी देता है। बदरीनाथ का मुख्य मंदिर, जो सदियों पहले बनाया गया था, के लिए स्थान का चयन करते समय यहां की मौसमी गतिविधियों से बचाने का बारीकी से ध्यान रखा गया था। प्रख्यात पर्यावरणविद और ‘चिपको आंदोलन’ के नेता चण्डीप्रसाद भट्ट कहते हैं कि जिन पूर्वजों ने बदरीनाथ मंदिर का निर्माण किया होगा उन्होंने सालों इस इलाके का अध्ययन कर मंदिर को ऐसे स्थान पर बनाया होगा जहां हिमस्खलन का खतरा बदरीनाथ मंदिर के ऊपर खड़ी एक चोटी के कारण कम हो जाता है।
भट्टजी कहते हैं – बदरीनाथपुरी हिमस्खलन की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील है और एक-दो दशक में यहां बड़े हिमस्खलन होते रहते हैं, लेकिन अधिकतर जगह नुकसान होता रहा है। बदरीनाथ मंदिर चोटी पर स्थित कौवे की चोंचनुमा उभार से हिमस्खलन से हमेशा सुरक्षित रहा है। यहां के पुराने गांव भी इस दृष्टि से कम खतरे वाले स्थानों पर बसाए गए हैं। भट्टजी कहते हैं कि अब हम अधूरी जानकारियों के आधार पर इन इलाकों के निर्माण में जुटे हैं जिससे इस तरह की प्राकृतिक घटनाओं को आपदा बनाने में सहयोग मिलता है।
माणा और नीती घाटी में चार साल के अंतराल में हिमस्खलन की दो बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं, जबकि इन दोनों घाटियों के ऊपरी क्षेत्रों में सदियों से मानव बसाहट रही है। एक दर्जन से अधिक छोटे-बड़े गांव यहां हैं। कुछ घटनाओं को छोड़कर बड़ी दुर्घटनाओं का कोई इतिहास न होने के पीछे वजह रही है कि लोगों ने मौसम के अनुरूप अपनी जीवनशैली बना ली थी। इन गांवों के लोग गर्मियों में ही यहां रहते थे, सर्दियों में निचली घाटियों में चले जाते थे।
सर्दियों के अनुभव से गांव ऐसे स्थानों पर बनाए गए थे जहां हिमस्खलन का खतरा न्यूनतम रहता था। माणा गांव का ही उदाहरण लें तो यहां आज भी जो मकान बने हैं उनमें कई मकानों की उम्र सौ से दो सौ साल होगी। परिवेश के हिसाब से मकान बने हैं जिसमें स्थानीय सामग्री और स्थानीय जरूरत को प्राथमिकता दी गई है।
सुरक्षा के लिए सीमा तक बेहतर परिवहन और संचार की जरूरतें होती हैं, लेकिन इसके लिए वहां तैनात श्रमिकों की सुरक्षा को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। 2021 में ‘सुमना हिमस्खलन’ से सबक सीखा होता तो फिर से बदरीनाथ में आठ श्रमिकों को जान नहीं गंवानी पड़ती। सीमा की सुरक्षा के लिए बारह महीने सीमा क्षेत्र में सेना तैनात रहती है। इनके शीतकालीन आवास हिमस्खलन के खतरे को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। श्रमिकों के लिए भी इसी तरह के मापदण्ड होने चाहिए जिससे प्रतिकूल मौसम में सेना और अर्धसैनिक बलों के आवागमन को सरल बनाने वालों की सुरक्षा रखी जा सके। इन घटनाओें के बाद यह तो तय किया ही जाना चाहिए कि उच्च हिमालय में शीतकाल में होने वाली निर्माण गतिविधियों का नियमन होना चाहिए। बहुत जरूरी होने पर शीतकाल में उन इलाकों में निर्माण गतिविधियां संचालित की जानी चाहिए और मौसमी हलचलों से वहां कार्यरत मानव-जीवन की सुरक्षा पर प्राथमिकता से ध्यान दिया जाना चाहिए। (सप्रेस)