अंजना त्रिवेदी

तरह-तरह की आधुनिकताओं, विकास और बराबरी के बावजूद आज भी आठ मार्च का ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ प्रासंगिक बना हुआ है और यह साल-दर-साल महिलाओं की हालातों को बयान करता है। आबादी की आधी से अधिक महिलाएं घर, परिवार और बच्चों के जीवन को निखारने में अपने आपको खपा रही हैं। पुरुषों की प्रताड़ना और महिलाओं की प्रताड़ना में कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। इन्हीं सवालों की तरफ इशारा करता अंजना त्रिवेदी का लेख।

अंजना त्रिवेदी

‘अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस’ (आठ मार्च) आने से ठीक पहले वसंत दस्तक दे जाता है, मानो प्रकृति भी महिलाओं के साथ थिरकती है। प्रकृति जहां पेड़ों से अपने पत्तों को झटककर बिखेर देती है, नयेपन से सराबोर होने के लिए अपने आपको तैयार करती है। पेड़ों पर रह जाते हैं केवल फूल। वसंत में यह दिवस महिलाओं को अपने आप में ही रोमांचित करता है। आजादी, उल्लास और खिल उठने को उद्वेलित करता है।

आजकल यह समय मध्यप्रदेश में ‘महिला कबीर यात्रा’ का भी होता है। कितना सुखद  है कि महिलाएं अपने पैरों में पड़ी जंजीरों को तोड़कर कबीर के निर्गुण दोहे सड़कों पर गा रही हैं, झूम रही हैं। इस यात्रा में महिलाएं ही महिलाओं की बानी सुन रही हैं, महिलाएं फिल्म बना रही हैं। गाँव की बूढ़ी काकियां कबीर के दोहों को ढूंढकर गुनगुना रही हैं। महिलाएं हर दिन पितृ-सत्तात्मक समाज और जातिवाद की एक-एक ईट गिरा रही हैं और खुद के बनाए नवरचित समाज को बुनने में लगी हैं।

महिलाओं को अपने लिए, अपने लायक समाज बनाना आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। देश गुलामी से निकला, किन्तु अब राजसत्ता और पितृसत्ता के चंगुल में फंस गया। महिलाओं के जीवन की लड़ाई देश की आजादी के पहले भी थी और आजादी के बाद भी बनी हुई है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इसके स्वरूप में काफ़ी परिवर्तन भी आया है।

इसका उदाहरण ‘मदर इंडिया’ से लेकर हाल में आई ‘मिसेज़’ फिल्म तक में देखने मिलता है। महिला केंद्रित फिल्मों ने व्यापक समाज में एक बहस छेड़ दी है। महिला के संघर्ष, नेतृत्व और प्रतिरोध आधारित ‘मदर इंडिया’ से शुरू हुई फिल्मों से आज आने वाली फिल्मों के कलेवर में कितना बड़ा बदलाव और रेंज दिखाई देता है। महिलाओं की स्थिति को व्यापक समाज तक पहुंचाने में फिल्मों का बहुत हाथ रहा है। इस माध्यम ने महिलाओं के मन की कुलबुलाहट को आम समाज तक पहुंचाने का बहुत अच्छा काम किया गया है।

हम आज एक विचित्र दौर से गुजर रहे हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों में पुरुष अपनी माँ और पत्नी को तो परंम्परा और संस्कारों में बंधा हुआ रखना चाहते हैं, किन्तु बेटी को आधुनिक बनाना चाहते हैं। दूसरी तरफ, परंपरा को वैज्ञानिक बताकर बेटी को फिर उसी परंपरा और ढकोसले को अपनाने के लिए मजबूर भी कर रहे हैं। यह समझ के परे है। जितनी परंपरा, नियम और संस्कार हैं वे सभी महिलाओं के जिम्मे आ रहे हैं। महिला मुद्दों पर बनी फिल्मों को सिनेमा हाल में देखने पर पुरुषों की आवाजों से समझ में आता है कि उनके अंदर सत्ता ढहने की कितनी घबराहट है।

यही कारण है कि ‘मिसेज’ फिल्म को देखने के बाद पुरुषों का कहना था कि ‘इतना ही था तो अरेंज्ड-मैरिज क्यों की? यदि की है तो ससुराल वालों के नियम-कायदों के अनुसार चलना ही होगा।’ ‘थप्पड़’ फिल्म में आगे – पीछे बैठे दर्शक कह रहे थे कि ‘एक थप्पड़ ही तो मारा है, वह सॉरी भी बोल रहा है। कोई इस थप्पड़ पर घर नहीं छोड़ता। घर बनाना आसान नहीं होता है। समान हक, समान अवसर और समान इज्जत के लिए एक्टिविस्ट नहीं बनना होता, उसके लिए एक औरत बनना होता है।’

वर्ष 2024 में दो फिल्मों – किरण राव द्वारा निर्देशित ‘लापता लेडीज’ और आरती कदम द्वारा निर्देशित ‘मिसेज’ ने सामान्य महिलाओं के जीवन से रोजमर्रा के मसलों को उठाया है। इन दोनों ही फिल्मों ने महिलाओं की समाज में जगह बनाने को लेकर जो वकालत की है उससे पुरुष प्रधान-समाज की जमीन खिसकी है। संस्कारों की दीवारों को तोड़ती इन फिल्मों में केवल अभिनय ही उच्च स्तर का नहीं रहा, बल्कि एक औरत दूसरी औरत के जज़्बातों को समझती और सुलझाती भी है। 

समाज का बड़ा तबका यह कहते हुए फिल्मों और चर्चाओं को खारिज कर रहा है कि ‘लड़कियां अपने मन का करने लगेंगी तो ऐसे में घर नहीं चलेंगे,’ लेकिन जरा इस पर भी गौर करने की जरूरत है कि जो भी घर सुचारु रूप से चल रहे है, वहाँ महिलाएं अपने मन को कितने आयामों पर मारकर घर की नींव को बनाए रख रही हैं। इस पर न घर के लोगों को और न ही खून से सींचे गए रिश्ते-नातों को अहसास होता है।

‘लापता लेडीज’ का यह संवाद कि ‘अपनी फूल बहू जब घर आए तो सहेली बनकर आए। सास, ननद सब बन जाती हैं, किन्तु कोई सहेली नहीं बन पाती।’ ग्रामीण परिवेश की महिलाएं जब यह कह रही होती हैं तो उनके चेहरे के भाव बताते हैं कि अब वे इन रिश्ते-नातों से कितनी ऊब चुकी हैं। उन्हें सहेलियाँ और दोस्त चाहिए। अब संस्कार और संस्कृति की चादर ओढ़ने से दम घुटता है, किन्तु इसे हटाने की हिम्मत सब नहीं कर पातीं।

‘मिसेज’ फिल्म में कहा गया है कि ‘सब्जी सलीके से काटने से स्वाद का पता लगता है,’ किन्तु उस घर की महिला की इच्छा का पता ही नहीं लगा पाता समाज। आज भी घरों में सब्जी और प्याज किस साइज का कटेगा वह पुरुष तय करता है। सिलबट्टे पर बनी चटनी ही पसंद होती है, किन्तु इस चटनी के पीछे एक लड़की के सपने दब रहे हैं इसका अहसास ही नहीं है। सुबह से शाम तक खपने के बाद महिलाओं के हिस्से में आती है, बेइज्जती और अपमान। आज भी समाज का बड़ा तबका महिला दृष्टि से नहीं सोचता। ऐसा सोचने पर उनके घरों की बुनियाद भी हिल जाएगी, इसलिए वे ऐसी फिल्में पसंद नहीं करते।

आजकल यह बहस बहुत होने लगी है कि ‘महिलाएं पुरुषों पर झूठे आरोप लगाकर पैसे ऐंठती हैं, यह महिलाओं का धंधा हो गया है।’ यह बात करते हुए लोग अपने घरों में जूझ रही महिलाओं, आसपास की कामकाजी महिलाओं की गिनती ही नहीं कर रहे। जहां हर घर में महिलाएं प्रताड़ित हो रही हैं, उसका कोई हिसाब-किताब नहीं है।इस बारे में महिला प्रताड़ना, यौन शोषण, अत्याचार और घरेलू हिंसा की बात कोई नहीं करता। एक घटना या कुछ घटनाओं से घर-परिवार में यह चर्चा होने लगी है कि महिलाओं की प्रताड़नाओं से पुरुष कितने परेशान हैं? पुरुष हिंसा के विरुद्ध कानून का निर्माण होना चाहिए। इसके लिए अब संगठन बनने लगे हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि महिलाएं भी महत्वाकांक्षी और स्वयंभू हो रही हैं, किन्तु ऐसी कितनी महिलाएं हैं? 

आबादी की आधी से अधिक महिलाएं घर, परिवार और बच्चों के जीवन को निखारने में अपने आपको खपा रही हैं। पुरुषों की प्रताड़ना और महिलाओं की प्रताड़ना में कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। किसी की भी प्रताड़ना प्रकृति और भारतीय संविधान में उल्लिखित अधिकारों के विरुद्ध है। अभी यह लड़ाई लंबी चलेगी, अभी बदलाव के लिए समाज को तैयार होते जाना होगा। (सप्रेस)