फ़ैज़ मोहम्मद कुरैशी

हर साल बोर्ड परीक्षाओं के नतीजों के बाद मीडिया में रिकॉर्ड तोड़ अंकों की बाढ़ सी आ जाती है। छात्र-छात्राएँ 100 में 100 लाकर ‘उत्कृष्टता’ के प्रतीक बन जाते हैं। लेकिन इस होड़ में क्या हम शिक्षा के असल उद्देश्य को भूलते जा रहे हैं? क्या अंक ही योग्यता, समझ और संवेदना का पैमाना बन चुके हैं? यह लेख कुछ ऐसे ही अनदेखे सवालों की पड़ताल करता है।

फ़ैज़ मोहम्मद कुरैशी

हाल ही में कक्षा 10 और 12 के सत्र 24-25 के लिए परीक्षा परिणाम घोषित हुए हैं l खबरों के मुताबिक कक्षा 12वीं की दो छात्राओं ने 500 में से 499 अंक अर्जित किए । इन्हें इतिहास, राजनीति विज्ञान, भूगोल और पेंटिंग विषयों में 100 में से 100 अंक मिले हैं। इसी तरह कक्षा 10वीं की एक छात्रा ने शतप्रतिशत अंक प्राप्त किए । ये छात्राएँ इन अद्भुत परिणामों के लिए बधाई की पात्र है। बधाई की पात्र ये अकेली ही नहीं इसके परिवार, स्कूल और आस-पड़ौस का माहौल भी है जिसने इसके लिए ये मार्ग सुलभ किया। इस छात्रा की तरह ही कुल 88.39 प्रतिशत शिक्षार्थियों ने इस वर्ष कक्षा 12वी उत्तीर्ण की है । तथा कक्षा 10वीं 93.66 विद्यार्थियों ने परीक्षा उत्तीर्ण की है । वैसे इस साल कक्षा दसवीं में 90 प्रतिशत या उससे ज्यादा नंबर लाने वाले छात्रों की संख्या 1,99,944 है। वहीं कक्षा बरहवीं में यह संख्या 1,11,544 है ।  

कुल मिलाकर इन दोनों परीक्षा परिणामें से हमें बड़ी आशाजनक स्थिति दिखाई देती है। हमारे शिक्षक बेहतर शिक्षण कर रहे हैं और इसके चलते छात्र लगातार बेहतर प्रर्दशन कर रहे हैं। साथ कक्षा में जो अपेक्षित सिलेबस और परिस्थितियाँ हैं, उसे लानत दे रहे हैं कि तुम कितने ही ज़्यादा और उलझे हुए हो हमसे पार नहीं पा सकते। मगर शिक्षा को थोड़ा बहुत समझने वाले व्यक्ति की दृष्टि से देखता हूं तो मुझे इन परिणामों में कुछ पेंच नज़र आते हैं जैसे –

  • कक्षा 12 में किसी भी संकाय में ये दावा किया जा सकता है कि किसी छात्र को कक्षा में अपेक्षित ज्ञान, जानकारी, समझ का लगभग पूरा ज्ञान है ? यदि नहीं तो शत प्रतिशत परीक्षा परिणाम के क्या मायने हैं ?
  • पिछले 10 -15 सालों में ऐसा क्या घटित हुआ कि कुल पास होने वाले बच्चे जो कि 20 से 30 प्रतिशत होते थे अब 85 से 90 प्रतिशत पास हो रहे हैं और वो भी 50 से ज़्यादा प्रतिशत अंक लेकर।
  • ढ़ाई या तीन घंटों में 30-35 प्रश्नों से साल भर के ज्ञान या सीखे गए का निर्धारण कितना वाजिब है ?
  • स्कूलों, समाज व व्यवस्था में वे कौनसी प्रक्रियाएं घटित हो रही हैं जो बच्चों से इस प्रकार का परिणाम पैदा करवा रही हैं ? और इसके आगे क्या है ?

इन पेंचों या सवालों के कुछ सहज उत्तर हो सकते हैं, पहला यह कि आजकल शिक्षार्थी लगभग 12 से 14 घंटे पढ़ने का श्रम करते हैं। दूसरा: इनके परिवारों में पढ़ने-लिखने का माहौल है, तीसरा: संसाधनों की उपलब्धता बढ़ी है, चौथा: इस पीढ़ी में याद रखने और रटने की अद्भुत क्षमता है, पांचवा: परीक्षाएं और अंक देने की व्यवस्था सरल हुई हैं, छटा: परीक्षा पार करने का ख़ास तरीका समझ आने लगा है और अंतिम यह कि इन सबका मिलाजुला रूप ही परीक्षाओं के परिणाम हैं। मगर फिर भी बात यही नहीं है या कहें कि उक्त कारण एक तरह से इन परिणामों का सतही जस्टीफिकेशन है।

इसके अलावा भी कुछ और है जिनका ये निर्मित परिस्थितियां सटीकता से उत्तर नहीं दे पाती या इन परिणामों के भीतर या आसपास का कुछ, दूर कहीं व्यवस्था में निहीत है ! शिक्षार्थियों के इस उपलब्धी स्तर से थोड़ा आगे कुछ और मसलों को देखते हैं जो इस व्यवस्था को प्रभावित और निर्धारित भी करते हैं। जैसे – बच्चों के उच्चतर अंक अर्जित करने से माता-पिता या परिवार को मिलने वाली ख़ुशी, समाज में इससे बढ़ने वाला स्टेटस, विद्यालयों, कोचिंग संस्थानों का प्रमोशन आदि। क्या इन सब का भी इन परीक्षा परिणामों में कुछ हाथ है, जवाब होगा संभवतः हाँ। तो क्या परिणामों से प्रसन्नता भर ही है या गुणवततापूर्ण शिक्षा और शिक्षा के बाज़ार के बारे में एक बार सोचना चाहिए।

शैक्षिक दृष्टि से देखा जाए तो किसी भी स्थिति में ये दावा नहीं किया जा सकता कि कक्षा 10-12 में किसी भी शिक्षार्थी को अपने सिलेबस पर पूर्णतः अधिकार प्राप्त हो जाए। क्या ये संभव है कि अंग्रेज़ी या हिन्दी जो कि भाषा हैं, में किसी शिक्षार्थी को शत् प्रतिशत का अधिकार हो जाए। जबकि इसमें वर्तनी, व्याकरण, अभिव्यक्ति आदि शामिल हैं। विज्ञान विषय में अवधारणाएं, चित्र और सटीकता का शत् प्रतिशत संभव है क्या ? गणित में समस्याओं को समझकर हल करना और विविध संक्रियाओं पर पकड़ होना संभव है क्या, सामाजिक विज्ञान में जानकारियां, अवधारणाएं, समझ और उसके कौशल मानवीय मूल्यों के साथ लेखन शामिल है l

यदि इस बात से सहमत होते हैं तो फिर बहुतायत में 80 से 99 प्रतिशत अंक अर्जित कर पाने के पीछे के कारण क्या हैं ? क्या टॉपर बच्चों के पास ट्रिक्स हैं जो उन्हें मात्र ढ़ाई घंटे में इस स्थिति में पहुंचाने के लिए काफी हैं ? यदि टॉपर बच्चों को छोड़ दें तो उन 70-75 प्रतिशत बच्चों के पास ऐसा क्या है जो पिछले 15-20 वर्षों की तुलना में इन्होंने या इस पीढ़ी ने अर्जित किया है। इन 15-20 वर्षों में एक पीढ़ी में आए शैक्षिक उपलब्धि के बदलाव को तलाशना काफी जटिल उपक्रम होगा। साथ ही शैक्षिक के अलावा अन्य परिस्थितियों को खंगालने का भी प्रयास करना होगा।

आईए कुछ व्यवस्थाओं की तरफ नज़र डालते हैं – एक शहर में कुछ विद्यालय (सरकारी और निजी दोनो) व कोचिंग जैसे संस्थान हैं और इनमें से अधिकतम का संचालन शिक्षार्थियों द्वारा दी गई फीस (सरकारी में काफी कम) से होता है। इस प्रतिस्पर्धा के दौर में जिस संस्थान से ज़्यादा बच्चे मेरीट में होंगे, उसी विद्यालय में अगले सत्र में अधिकाधिक नामांकन होंगे। एक व्यवस्था के रूप में, इन विद्यालयों में परीक्षा के समय सभी विद्यालयों में षिक्षकों को स्पष्ट निर्देश दिए जाते हैं कि हमारे विद्यालय से इतने प्रतिशत बच्चे तो कम से कम प्रथम श्रेणी में आना चाहिए। अब ये षिक्षकों की दिक्कत है कि उन्हें इतना तो करना ही होगा क्योंकि उनका भविष्य विद्यालय के हाथ में और विद्यालय का शिक्षक के हाथ में है।

अब इसे थोड़ा शैक्षिक बनाते हैं। किसी भी उच्च कक्षा में एक शिक्षक पर कम से कम 40 बच्चे तो होते ही हैं। इन्हें अगर प्रचलित श्रेणी में बांटा जाए तो 10 बच्चे बेक बेंचर्स, 15-20 औसत और 10 से 15 लगभग प्रथम श्रेणी में आने लायक होते हैं। इनमें से भी सिर्फ 5 बच्चे वे हो सकते हैं जो 80-90 प्रतिशत की अपेक्षाओं के आस-पास जा सकते हैं। इस आम कक्षा में भी षिक्षक पर दबाव होता है कि कम से कम 30 बच्चे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हों।

किसी एक शैक्षिक सत्र में पाठ्यक्रम के अनुसार अध्यापन लगभग 220 दिनों में किया जाना होता है। अगर विद्यालय की कुछ गतिविधियों जैसे सांस्कृतिक, खेलकूद तथा परीक्षा की तैयारी के दिनों को कम किया जाए तो अमुमन किसी षिक्षण सत्र में 170-190 दिन ही होते हैं। अब एक बार पुनः सोंचते हैं कि क्या 170-190 दिन की पढ़ाई में 98 प्रतिशत पाठ्यक्रम समझा, याद व मूल्यांकित कर परिणाम दिया जा सकता है क्या ?

इस परिस्थिति में शिक्षकों को यह तय करना होता है कि बच्चों से अपेक्षित परिणाम कैसे अर्जित कराए जाएं। ऐसे में सभी विद्यालयों में ‘‘रिविज़न’’ नाम का उपक्रम किया जाता है। इस उपक्रम में अध्यापन इस प्रकार होता है कि परीक्षा में पूछा जाने वाला लगभग 80 से 90 प्रतिशत हिस्सा यहीं कवर किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बाज़ारू लक्षण जो इस पुरी स्थिति में बड़ी भूमिका निभाता है वह है ‘‘प्रश्न बैंक, माडॅल क्वेश्चन पेपर, आदि’’। एक खास तरह का पेटर्न हम इस प्रकार की पुस्तकों (पुस्तकों के लिए अपमानजनक शब्द!) में देख सकते हैं। इनके पिछले 8-10 वर्षों के प्रकाशन हमें बताते हैं कि इनके द्वारा अनुमानित लगभग 80 प्रतिशत प्रश्न परीक्षाओं में पूछे जाते है। तो क्या इस तरीके की भी परीक्षा परिणामों में भूमिका है ?

चलिए, इससे थोड़ा आगे बढ़ते हैं और कुछ राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययनों को देखें तो वे हमें बताते हैं कि हमारे लगभग 80 प्रतिशत स्नातक अपनी डिग्री के अनुसार उत्तीर्ण तो हैं पर वे नियोक्ताओं की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं। कुछ अध्ययन तो ये भी कहते हैं कि वे कुशल नहीं हैं। तो इस विस्तार और 12वीं के परिणामों को मिलाकर देखने पर एक अलग तस्वीर दिखाई देती है वो यह कि ये सिर्फ अंक या प्रतिशत हैं जिनका शिक्षा और उससे जुड़े मूल्यों व पैदा होने वाले अवसरों से कुछ लेना-देना नहीं है। तो, 98-100 प्रतिशत अंकों को लेकर पास होना, 80 प्रतिशत बच्चों का अपनी बोर्ड परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना हमें क्या बताता है ?