व्यारा 6 मई । दक्षिण गुजरात के तापी जिले में स्थित व्यारा के सरकारी अस्पताल और नव-स्वीकृत मेडिकल कॉलेज के निजीकरण के प्रयासों के खिलाफ आदिवासी समुदाय का विरोध अब राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी आवाज़ में बदल चुका है। देशभर के जनसंगठनों, सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने गुजरात के राज्यपाल को पत्र लिखकर संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत अपने विशेष विवेकाधिकारों का प्रयोग करते हुए इस निजीकरण को रोकने की अपील की है।
यह पत्र नेशनल हेल्थ राइट्स अलायंस और नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स (NAPM) के बैनर तले जारी किया गया है, जिसमें 20 से अधिक प्रतिष्ठित सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों, अधिवक्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के हस्ताक्षर हैं। इसमें कहा गया है कि व्यारा का सरकारी अस्पताल न सिर्फ तापी जिले, बल्कि आसपास के डांग और नवसारी जैसे आदिवासी बहुल जिलों के लिए एकमात्र प्रमुख रेफरल अस्पताल है। ऐसे में इसके निजीकरण से क्षेत्रीय स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और गरीब व हाशिए पर खड़े आदिवासी समुदायों की तकलीफें और बढ़ेंगी।
दो महीने से चल रहा है धरना
पत्र में उल्लेख किया गया है कि बीते दो महीनों से हजारों की संख्या में आदिवासी महिलाएं, पुरुष और युवा शांतिपूर्ण ढंग से व्यारा अस्पताल के बाहर धरना दे रहे हैं। यह धरना तब शुरू हुआ जब सरकार ने एक बार फिर अस्पताल व मेडिकल कॉलेज को निजी हाथों में देने की योजना सार्वजनिक की, जबकि कुछ वर्षों पहले ऐसे ही प्रयासों का विरोध कर आदिवासी समाज ने सरकार से लिखित आश्वासन लिया था कि निजीकरण नहीं होगा।
स्वास्थ्य संकेतकों में पिछड़े जिले
तापी और डांग जैसे आदिवासी जिलों में बाल कुपोषण की दर बेहद चिंताजनक है — क्रमश: 36.6% और 40.9% बच्चे स्टंटिंग और वेस्टिंग से पीड़ित हैं। ऐसे में जनस्वास्थ्य की जवाबदेही निजी हाथों में देने से न सिर्फ सेवाओं की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा, बल्कि यह समुदाय के संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन होगा।
विकास के नाम पर विस्थापन और विनाश
पत्र में यह भी रेखांकित किया गया है कि व्यारा और दक्षिण गुजरात के आदिवासी क्षेत्र पहले ही अनेक तथाकथित विकास परियोजनाओं — जैसे DMIC कॉरिडोर, भारतमाला, फ्रीट कॉरिडोर, नेशनल हाइवे 56, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी ग्रीन कॉरिडोर, और पार-तापी नदी जोड़ परियोजना — के चलते विस्थापन, मानसिक तनाव, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और सामाजिक विघटन का सामना कर रहे हैं।
साथ ही वन्यजीव अभयारण्यों, इको-सेंसिटिव जोनों और तेंदुआ बचाव क्षेत्रों की मनमानी घोषणाओं ने आदिवासियों की ज़िंदगी को और अधिक अनिश्चित बना दिया है।
पांचवीं अनुसूची और आदिवासी अधिकार
पत्र में राज्यपाल से अनुरोध किया गया है कि वह संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करें, जो अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए हैं। यह कहा गया है कि गुजरात सरकार द्वारा वनाधिकार कानून (FRA) और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (PESA) को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया है, और यह निजीकरण का प्रयास उसी क्रम का हिस्सा है जो आदिवासी क्षेत्रों में कॉरपोरेट घुसपैठ को बढ़ावा देता है।
राष्ट्रीय समर्थन
इस अभियान को देश भर के प्रमुख संगठनों और व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त है। इनमें डॉ. मीराशिवा, डॉ. रितु प्रिया जनस्वास्थ्य शोधकर्ता, नई दिल्ली, नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स के डॉ. सुभाष कोल्हेकर, मीरा संघमित्रा (तेलंगाना), अरुंधति धुरु, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ से प्रसाद चाको (राष्ट्रीय सचिव, अहमदाबाद), डॉ. अजय खंडारे, सुलभा देशमुख, प्रांजली (शोधकर्ता, दिल्ली), प्रीति ओज़ा (श्रम अधिकार कार्यकर्ता, गुजरात), डॉ. गोपाल दाबाड़े (ड्रग एक्शन फोरम, कर्नाटक), स्वाति एसबी (जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ, बेंगलुरु), डॉ. वीणा शत्रुघ्ना (सेवानिवृत्त चिकित्सा वैज्ञानिक एवं पोषण विशेषज्ञ), ब्रिनेल डीसूजा (जनस्वास्थ्य कार्यकर्ता व शोधकर्ता, मुंबई), डॉ. सिल्विया कार्पगम (बेंगलुरु), डॉ. बी. एकबाल (केरल, पीपुल्स मूवमेंट – KSSP), शुभदा देशमुख (सामाजिक कार्यकर्ता, गढ़चिरोली, महाराष्ट्र), सुरेश (नरेगा मज़दूर यूनियन, बनारस, उत्तर प्रदेश), परोमिता दत्ता (राइट टू फूड एंड वर्क कैंपेन, पश्चिम बंगाल) आदि नाम शामिल हैं।
देश भर के इन सभी प्रमुख संगठनों और व्यक्तियों ने मांग की है कि “हम व्यारा की जनता के साथ हैं जो अपने स्वाभिमान, संविधानिक अधिकारों, संसाधनों और स्वास्थ्य सेवाओं की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं। निजीकरण के इस फैसले को तत्काल वापस लिया जाना चाहिए।”