
उत्पादन बढाने के विचित्र तर्क के आधार पर खेती में आजकल तरह-तरह की वैज्ञानिक उर्फ व्यावसायिक कारस्तानियां की जा रही हैं, हालांकि दुनियाभर में खेती का उत्पादन इतना हो रहा है कि कीट-पतंगों, चूहों, वर्षा और भंडारण की कमी के चलते हर साल लाखों टन अनाज सडता, बर्बाद होता है और भूखों तक नहीं पहुंचता। ऐसे में ‘जीनोम संपादित’ चावल Genome edited rice की क्या जरूरत आन पडी?
निलेश देसाई

भारत में चावल की ‘जीनोम संपादित’ Genome edited rice किस्मों को मंजूरी देने की दिशा में बढ़ते कदम ने कृषि क्षेत्र में एक नई बहस छेड़ दी है। एक तरफ, यह तकनीक फसल सुधार और उत्पादन वृद्धि की अपार संभावनाओं का दावा करती है, वहीं दूसरी तरफ, प्राकृतिक खेती के सिद्धांतों और देशी बीजों के संरक्षण के लक्ष्यों के लिए कई चुनौतियां खड़ी करती है। यह लेख बीज संप्रभुता, देशी बीजों की शुद्धता और जैव-विविधता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों की चुनौतियों का विश्लेषण करता है। ‘जीनोम इंजीनियरिंग’ (जीनोम एडिटिंग) का मतलब किसी जीव के ‘जेनेटिक कोड’ में बदलाव करना है। बदलावों में जीन को खत्म करने के लिए ‘न्यूक्लियोटाइड’ को हटाना, प्रोटीन को खत्म करने के लिए ‘न्यूक्लियोटाइड’ को जोड़ना या म्यूटेशन बनाने के लिए ‘न्यूक्लियोटाइड’ को संपादित करना शामिल है।
प्राकृतिक खेती, जो रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग के बिना टिकाऊ कृषि पद्धतियों पर जोर देती है, देशी बीजों पर बहुत अधिक निर्भर है। देशी बीज, जो सदियों से स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल विकसित हुए हैं, प्राकृतिक खेती के लचीले और आत्मनिर्भर पारिस्थितिकी तंत्र के आधार हैं। ये बीज न केवल स्थानीय जलवायु और मिट्टी के लिए अनुकूल होते हैं, बल्कि उनमें रोग-प्रतिरोधक क्षमता और पोषण का भी अपना विशिष्ट संयोजन होता है।
‘जीनोम इंजीनियरिंग तकनीक’ सदियों से स्थापित इन कृषि पद्धतियों के लिए कई स्तरों पर चुनौती पेश करती है।
बीज संप्रभुता पर खतरा
‘जीनोम संपादित’ बीजों का विकास और व्यावसायीकरण अक्सर बड़ी, बहुराष्ट्रीय कृषि जैव-प्रौद्योगिकी कंपनियों के हाथों में केंद्रित होता है। इन कंपनियों के पास अक्सर इन बीजों पर ‘बौद्धिक संपदा अधिकार’ (आईपीआर) होते हैं, जैसे कि ‘पेटेंट।’ इसके परिणामस्वरूप, किसानों को हर फसल-चक्र के लिए नए बीज खरीदने को मजबूर होना पड़ सकता है, जिससे उनकी परम्परागत रूप से चली आ रही बीज स्वतंत्रता और नियंत्रण कम हो जाता है।
प्राकृतिक खेती का एक मूल सिद्धांत किसानों की बीज संप्रभुता है, जहां वे स्वयं अपने बीजों का उत्पादन, संरक्षण और आदान-प्रदान कर सकते हैं। ‘जीनोम संपादित’ बीजों पर निर्भरता इस स्वायत्तता को कमजोर करती है और किसानों को बाहरी संस्थाओं पर निर्भर बनाती है। यह न केवल उनकी लागत बढ़ाता है, बल्कि उन्हें बाजार की ताकतों के प्रति भी अधिक संवेदनशील बनाता है। देशी बीजों के विपरीत, जिन्हें किसान पीढ़ी-दर-पीढ़ी बचाकर और सुधारकर अपनी स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार ढाल सकते हैं, ‘जीनोम संपादित’ बीजों के साथ यह लचीलापन सीमित हो जाता है।
देशी बीजों की शुद्धता पर संकट
‘जीनोम संपादित’ चावल की किस्मों की खेती से देशी चावल की किस्मों के आनुवांशिक प्रदूषण का खतरा बढ़ जाता है। परागण के माध्यम से, ‘जीनोम संपादित’ बीजों के जीन जाने-अनजाने में पड़ौसी खेतों में उगाई जा रही देशी किस्मों में स्थानांतरित हो सकते हैं। यह न केवल देशी बीजों की अनुवांशिक शुद्धता को खतरे में डालता है, बल्कि उनकी विशिष्ट विशेषताओं और स्थानीय अनुकूलन को भी बदल सकता है।
प्राकृतिक खेती में बीजों की शुद्धता अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मिट्टी के सूक्ष्मजीवों और अन्य जैविक घटकों के साथ उनकी जटिल अंतःक्रिया को प्रभावित करती है। यदि देशी बीजों की अनुवांशिक संरचना बदल जाती है, तो यह प्राकृतिक खेती के समग्र पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित कर सकती है। जैविक प्रमाणीकरण के लिए भी बीजों की ‘गैर-जीएमओ’ (गैर-अनुवांशिक रूप से संशोधित) स्थिति आवश्यक है, और ‘जीनोम संपादन’ के माध्यम से होने वाला अनपेक्षित जीन-प्रवाह इस प्रमाणीकरण को खतरे में डाल सकता है।
जैव विविधता के लिए चुनौती
भारत चावल की समृद्ध जैव-विविधता का केंद्र रहा है, जिसमें हजारों वर्षों से विकसित हुई अनगिनत देशी किस्में मौजूद हैं। ये किस्में विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों के लिए अनुकूल हैं और विभिन्न प्रकार की पोषण संबंधी और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। यदि ‘जीनोम संपादित’ अधिक उपज वाली किस्में व्यापक रूप से अपनाई जाती हैं, तो ये किसानों को व्यावसायिक रूप से आकर्षक बीजों की ओर आकर्षित कर सकती हैं, जिससे देशी चावल की किस्मों की खेती कम हो जाएगी। इसके परिणामस्वरूप चावल की अनुवांशिक-विविधता का भारी नुकसान हो सकता है। जैव-विविधता का नुकसान कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र को कमजोर करता है, फसलों को बीमारियों, कीटों और जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है।
प्राकृतिक खेती जैव-विविधता को बढ़ावा देने पर जोर देती है, क्योंकि यह मिट्टी के स्वास्थ्य, कीट-नियंत्रण और समग्र पारिस्थितिकी-तंत्र के संतुलन के लिए आवश्यक है। देशी बीज इस जैव-विविधता का एक अभिन्न अंग है और उनका नुकसान कृषि को कमजोर बना सकता है।
चावल की ‘जीनोम संपादित’ किस्मों को मंजूरी देना संभवत: खाद्य-सुरक्षा और फसल सुधार के क्षेत्र में नई संभावनाएं खोलता है, लेकिन प्राकृतिक खेती के सिद्धांतों और देशी बीजों के संरक्षण के लक्ष्यों के साथ इसके गहरे विरोधाभास और चुनौतियां हैं। बीज संप्रभुता का क्षरण, देशी बीजों की अनुवांशिक शुद्धता पर खतरा और जैव-विविधता का नुकसान ऐसे गंभीर मुद्दे हैं जिन पर नीति निर्माताओं, वैज्ञानिकों और किसानों को मिलकर विचार करना होगा।
एक टिकाऊ और समावेशी कृषि भविष्य के लिए यह आवश्यक है कि हम ऐसी नीतियों को बढ़ावा दें जो न केवल उत्पादन बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करे, बल्कि किसानों की स्वायत्तता, देशी बीजों के संरक्षण और कृषि जैव-विविधता की सुरक्षा को भी प्राथमिकता दे। ‘जीनोम संपादन’ जैसी नई तकनीकों का मूल्यांकन सावधानीपूर्वक और समग्र दृष्टिकोण के साथ किया जाना चाहिए, जिसमें प्राकृतिक खेती और देशी बीजों के महत्व को भी समझा जाए। हमें एक ऐसे मार्ग की तलाश करनी होगी जो नवाचार और स्थिरता के बीच संतुलन बनाए रखे और किसानों को सशक्त बनाए रखते हुए हमारी कृषि विरासत को सुरक्षित रखे। (सप्रेस)