
ठेकेदारों-इंजीनियरों-राजनेताओं का गठजोड जब ‘विकास’ की मशक्कत में लग जाता है तो नदी-जोड जैसी परियोजनाएं जन्म लेती हैं। कमाल यह है कि समाज की परखी-पहचानी स्थानीय पद्धतियां जल्दी, सस्ता और नियंत्रित पानी उपलब्ध करवा सकती हैं, लेकिन पूंजी के लिए पागल हुए लोगों को यह नहीं दिखता।
World Environment Day (5 June)
प्यास-पलायन-पानी के चलते कुख्यात बुंदेलखंड में हजार साल पहले बने चन्देल-कालीन तालाबों को छोटी सदानीरा नदियों से जोड़कर मामूली खर्च में कलंक मिटाने की योजना आखिर हताश हो कर ठप्प हो गई है। बीते ढाई दशकों से यहाँ केन और बेतवा नदियों को जोड़कर इलाके को पानीदार बनाने के सपने बेचे जा रहे हैं। हालांकि पर्यावरण के जानकर बताते रहे हैं कि इन नदियों के जोड़ से बुंदेलखंड तो घाटे में रहेगा, लेकिन कभी चार हजार करोड़ की बनी योजना अब 44 हजार 650 करोड़ की हो गई है और इसे बड़ी सफलता के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है।
सन् 2010 में पहली बार जामनी नदी को महज सत्तर करोड़ के खर्च से टीकमगढ़ जिले के पुश्तैनी विशाल तालाबों तक पहुँचाने और इससे 1980 हैक्टेयर खेतों की सिंचाई की योजना तैयार की गई थी। इस योजना में न तो कोई विस्थापन होना था और न ही कोई पेड़ काटना था। सन् 2012 में काम भी शुरू हुआ, लेकिन आज करोड़ों खर्च के बाद न नहर है न ही सिंचाई। यह बात आम ग्रामीण से छुपी नहीं है कि बहुत से लोग यह नहीं चाहते कि इस तरह के छोटे बजट की योजना चर्चा में आयें, क्योंकि फिर केन-बेतवा जैसी पहाड़–बजट की योजनाओं पर सवाल उठने लगेंगे।
यह किसी से छिपा नहीं हैं कि देश की सभी बड़ी परियोजनाएं कभी भी समय पर पूरी नहीं होती हैं, उनकी लागत बढती जाती है और जब तक वे पूरी होती हैं, उनका लाभ, व्यय की तुलना में गौण हो जाता है। यह भी तथ्य है कि तालाबों को बचाना, उनको पुनर्जीवित करना अब अनिवार्य हो गया है और यह कार्य बेहद कम लागत का है और इसके लाभ अफरात हैं। केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं।
केन और बेतवा दोनों का ही उदगम मध्यप्रदेश है। दोनों नदियां लगभग समानांतर इलाके से गुजरती हुई उत्तरप्रदेश में जाकर यमुना में मिल जाती हैं। जाहिर है कि जब केन के जलग्रहण क्षेत्र में अल्प-वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी। वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है। सरकारी दस्तावजे दावा करते हैं कि केन में पानी का अफरात है, जबकि हकीकत इससे बेहद परे है।
सन् 1990 में केंद्र सरकार ने केन, बेतवा नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन शुरू करवाया था। सन् 2007 में ‘केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय’ ने इस परियोजना में ‘पन्ना नेशनल पार्क’ के हिस्से को शामिल करने पर आपत्ति जताई थी। ऐसे कई और पर्यावरणीय संकटों के बावजूद सन् 2010 तक सरकार ने प्यासे बुंदेलखंड को एक चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया। केन-बेतवा के जोड़ की येाजना को सिद्धांतत: मंजूर होने में ही 24 साल लग गए। इसी बुंदेलखंड में ‘राजघाट परियोजना’ का काम जापान सरकार के कर्जे से अभी भी चल रहा है। इसके बांध की लागत 330 करोड से अधिक तथा बिजलीघर की लागत लगभग 140 करोड़ है। राजघाट से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है, लेकिन यह बात भारत सरकार स्वीकार करती है कि नदियों के जोड़ने से ये पांच सौ करोड रुपए बर्बाद हो जाएंगे।
टीकमगढ़ जिले में अभी चार दशक पहले तक करीब हजार तालाब हुआ करते थे। यहां का कोई गांव ऐसा नहीं था जहां कम-से-कम एक बड़ा-सा सरोवर नहीं हो, जो वहां की प्यास, सिंचाई सभी जरूरतें पूरी करता हो। आधुनिकता की आंधी में एक चौथाई तालाब चौरस हो गए हैं और जो बचे हैं, वे रखरखाव के अभाव में बेकार हो गए हैं।
जामनी बेतवा की सहायक नदी है और यह सागर जिले से निकलकर कोई 201 किलोमीटर का सफर तयकर टीकमगढ जिले के ओरछा में बेतवा से मिलती है। आमतौर पर इसमें सालभर पानी रहता है, लेकिन बारिश में यह ज्यादा उफनती है। योजना तो यह थी कि बम्होरी-बराना के चंदेलकालीन तालाब को जामनी के हरपुरा बांध से एक नहर द्वारा जोड़ने से तालाब में सालभर लबालब पानी रहे। इससे 18 गावों के 1800 हैक्टर खेत सींचे जाएंगे। यही नहीं नहर के किनारे कोई 100 कुंए बनाने की भी बात थी जिससे इलाके का भू-जल स्तर बना रहता। इस योजना पर व्यय है महज कुछ करोड़, इससे जंगल, जमीन को नुकसान नहीं है, विस्थापन एक व्यक्ति का भी नहीं है। इसको पूरा करने में समय भी कम लगता। इसके विपरीत नदी जोड़ने में हजारों लोगों का विस्थापन, घने जंगलों व सिंचित खेतों का व्यापक नुकसान, साथ ही इसमें करीब 10 साल लगेंगे।
समूचे बुंदेलखंड में पारंपरिक तालाबों का जाल है। आमतौर पर ये तालाब एक-दूसरे से जुड़े हुए भी थे, यानी एक के भरने पर उससे निकले पानी से दूसरा भरेगा, फिर तीसरा। इस तरह बारिश की हर बूंद सहेजी जाती थी। बुंदेलखंड में जामनी की ही तरह केल, जमडार, पहुज, शहजाद, टौंस, गरारा, बघैन, पाईसुमी, धसान, बघैन जैसी आधा सैंकडा नदियां हैं जो बारिश में तो उफनती हैं, लेकिन फिर यमुना, बेतवा आदि में मिलकर गुम हो जाती हैं। यदि छोटी-छोटी नहरों से इन तालाबों को जोड़ा जाए तो तालाब आबाद हो जाएंगे। इससे पानी के अलावा मछली, सिंघाड़ा, कमलगट्टा मिलेगा, गाद से बेहतरीन खाद मिलेगी। केन-बेतवा जोड़ का दस फीसदी यानी एक हजार करोड़ ही ऐसी योजनाओं पर ईमानदारी से खर्च हो जाए तो 20 हजार हैक्टर की सिंचाई व भूजल स्तर बनाए रखना बहुत ही आसान होगा।
देसी नदियों से तालाबों को जोडे की यह योजना 2012 में शुरु हुई थी और बीते बारह सालों में कम-से-कम 12 बार हरपुरा नहर टूटती रही है। दो साल पहले अगस्त में अचानक तेज बरसात आई तो 41 करोड़ 33 लाख रुपए की लागत वाली हरपुरा नहर पूरी ही बह गई। पहली बार जब नहर में नदी से पानी छोड़ा गया तो सिर्फ चार तालाबों – टीलादांत, मोहनगढ़ फीडर, मोहनगढ़ तालाब एवं बाबाखेरा तालाब में ही पानी पहुंचा था, जबकि पहुंचना था 18 में। नहर बनाने में तकनीकी बिंदुओं को सिरे से नजरअंदाज किया गया था। इसे कई जगह लेवल के विपरीत ऊंची-नीची कर दिया गया था। शुरुआत में ही नहर का ढाल महज सात मीटर रखा गया, जबकि कई तालाब इससे ऊंचाई पर हैं, जाहिर है वहाँ पानी पहुँचने से रहा।
लगभग 48 किलोमीटर में से 23 किलोमीटर पक्की नहर का निर्माण करना था। जिन स्थानों पर नहर पक्की की गई है, उनमें से कई जगह यह उखड़ चुकी है। पूरी नहर में एक भी स्थान ऐसा नहीं दिखाई देता, जहां लगभग एक किलोमीटर के क्षेत्र में नहर उखड़ी न हो या उसमें दरार न आई हो। बौरी, चरपुरा, मिनौराफार्म, सुनवाहा, पहाड़ी खुर्द सहित अनेक स्थानों पर नहर उखड़ चुकी है। तेज बरसात में यदि नहर में अधिक पानी हो तो वह कहाँ से निकलेगा, नहर के रास्ते में पुल या रिपटा, नहर के किनारे मवेशी के पानी पीने का इंतजाम आदि तो हुआ नहीं है। धीरे-धीरे एक शानदार योजना कोताही का कब्रगाह बन गई। बताना जरूरी है कि इस नहर का निर्माण भी धार जिले में दो साल पहले बहे कारम बांध को बनाने वाली और काली सूची में डाली गई फर्म ‘सारथी कंस्ट्रक्शन’ ने किया था। यह समझना होगा कि देश में जल संकट का निदान स्थानीय और लघु योजनाओं से ही संभव है। ऐसी योजनाएं जिससे स्थानीय समाज का जुड़ाव हो। यदि जामनी नदी से तालाबों को जोड़ने का काम सफल हो जाता तो सारे देश में एक बड़ी परियोजना से आधे खर्च में नदियों से तालाबों को जोड़कर खूब पानी उगाया जा सकता था, लेकिन तालाबों पर कब्जा करने वाले, बड़ी योजनाओं में ठेके और अधिग्रहण से मुआवजा पाने वालों को यह रास नहीं आता। (सप्रेस)