
बानू मुश्ताक ने दूसरी बार अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतकर इतिहास रचा है। उनकी किताब “हार्ट लैंप” के लिए उन्हें यह सम्मान मिला है, जो कन्नड़ भाषा में लिखी गई थी और बाद में अंग्रेजी में अनुवादित हुई। बानू मुश्ताक की लेखनी में महिलाओं के जीवन, जाति, शक्ति और उत्पीड़न के बारे में निरंतर लिखा गया है।
महिलाओं के जीवन, जाति, शक्ति और उत्पीड़न के बारे में निरंतर लिखने वाली लेखिका, कार्यकर्ता और वकील बानू मुश्ताक ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में मिसाल कायम कर बेमिसाल हो गई हैं। कर्नाटक की रहने वाली किन्तु जन्मजात कन्नड़ भाषी नहीं होने के बावजूद बानू मुश्ताक भारतीय भाषाओं में से एक कन्नड़ में लिखी अपनी किताब हार्ट लैंप के लिए सर्वश्रेष्ठ अंग्रेजी अनुवादित कथा के लिए दिए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार को जीतने वाली पहली कन्नड़ लेखिका बन गई हैं। यह सम्मान अनुवादक दीपा भाष्थी के साथ साझा किया गया है। अंतराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद बानू मुश्ताक ने कहा, “ऐसा लग रहा है जैसे हजारों जुगनू एक ही आसमान को रोशन कर रहे हों – संक्षिप्त, शानदार और पूरी तरह से सामूहिक।”
उन्होंने यह भी कहा कि
“यह सिर्फ़ मेरी जीत नहीं, बल्कि उन अनसुनी आवाज़ों का कोरस है, जो अब तक दबी थीं।”
पिछले मंगलवार की रात लंदन के टेट मॉडर्न में आयोजित एक समारोह में 50,000 पाउंड का पुरस्कार प्राप्त करने वाली बानू मुश्ताक की किताब कन्नड़ की पहली किताब बन गई। उल्लेखनीय है कि दूसरी बार भी किसी भारतीय कृति ने ही यह अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता है। इसके पहले गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल ने 2022 में टॉम्ब ऑफ सैंड (रेत समाधि) के लिए यह पुरस्कार जीता था।
बुकर पुरस्कार मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यासों को मान्यता देता है, वहीं अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार उन उपन्यासों को सम्मान देता है जो किसी और भाषा में लिखे गए हों और बाद में अंग्रेजी में अनुवादित हुए हों। कुल मिलाकर इन दोनों पुरस्कारों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास अंग्रेजी भाषी पाठकों तक पहुंच सकें। भले ही वे मूल रूप से किसी भी भाषा में लिखे गए हों।
बानू की जिंदगी की शुरुआत की दास्तान भी बहुत दिलचस्प और हैरान कर देने वाली है।
1950 के दशक में कर्नाटक के शिवमोगा में ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित एक स्कूल में आठ साल की मुस्लिम लड़की बानू जब दाखिले के लिए पहुंची तो स्कूल मैनेजमेंट बानू को कन्नड़ माध्यम में दाखिला देने से हिचक रहा था क्योंकि उन्हें चिंता थी कि बानू कन्नड भाषा नहीं सीख पाएगी और उर्दू स्कूल उसके लिए बेहतर होगा। उसके पिता द्वारा बहुत विनती करने के बाद बानू को इस शर्त पर दाखिला दिया गया कि वह छह महीने में कन्नड़ पढ़ना और लिखना सीख ले या फिर स्कूल छोड़ दे। दाखिले के बाद उनके शिक्षकों को आश्चर्य हुआ कि छोटी बानू स्कूल में आने के कु दिनों बाद में ही यह कर दिखाती है।
बानू मुश्ताक ने अपना लेखन तब शुरू किया, जब वह मिडिल स्कूल में थी। तब बानू मुश्ताक ने अपनी पहली लघु कहानी लिखी। वह लगातार लिखती रही लेकिन प्रकाशित नहीं होती रही। लिख लिख कर रखती रही। उनकी पहली कहानी 26 साल की उम्र में लोकप्रिय कन्नड़ पत्रिका प्रजामाता में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद बानू मुश्ताक ने कभी पीछे मूड कर नहीं देखा। बानू मुश्ताक का जन्म एक बड़े मुस्लिम परिवार में हुआ। उन्हें अपने पिता से बहुत समर्थन मिला। यहां तक कि जब अपने स्कूल की तानाशाही प्रकृति के खिलाफ उन्होंने लड़ाई लड़ी तो पिता ने उनका साथ दिया।
जानकारों का कहना है कि
बानू मुश्ताक की लेखनी में निखार कर्नाटक में हुए प्रगतिशील आंदोलनों से आई है, जिसने उनके कामों को प्रेरित किया। उन्होंने विभिन्न राज्यों की यात्रा की और खुद को बंदया साहित्य आंदोलन में शामिल किया। यह एक प्रगतिशील विरोध था जिसने जाति और वर्ग उत्पीड़न को चुनौती दी। संघर्षरत लोगों के जीवन से उनका जुड़ाव उन्हें लिखने की ताकत देता रहा है। यहां तक कि अपने निजी जीवन में भी उन्होंने पितृसत्तात्मक मानदंडों को तोड़ा, अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी की और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। प्रसिद्ध समाज नेत्री कुतुब किदवई का कहना है कि बानू मुश्ताक
एक कथाकार के रूप में जरूर विख्यात हो गई हैं लेकिन वे महिलाओं के अधिकारों की वकालत भी करती रही हैं, भेदभाव पर सवाल उठाती रही हैं और न्याय के लिए कानूनी प्रयास भी करती रहीं। मुश्ताक कहती हैं कि उनकी कहानियां दर्शाती हैं कि कैसे धर्म, समाज और राजनीति महिलाओं से बिना सवाल किए आज्ञाकारिता की मांग करती हैं और इस प्रक्रिया में उन पर क्रूरता भी करती हैं।
* हार्ट लेंप* के अलावा बानू मुश्ताक के छह लघु कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । उन्हें कर्नाटक साहित्य अकादमी और दाना चिंतामणि अत्तिमाबे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
पुरस्कार समारोह में हार्ट लैंप की लेखिका बानू मुश्ताक और किताब की अनुवादक दीपा भस्थी ने एक साथ मंच साझा किया।
हार्ट लैंप 12 कहानियों का एक संग्रह है, जिसे 1990 से 2023 के बीच लिखा गया है। उनके लेखन में पितृसत्तात्मक दक्षिण भारतीय समुदायों में रहने वाली आम महिलाओं के बीच लचीलेपन, प्रतिरोध और बहनापे की दास्तानें हैं। उनकी कहानियां मौखिक कहानी कहने की परंपराओं से गहराई से जुड़ी हैं, जिसने लंबे समय से कन्नड़ संस्कृति को आकार दिया है।