
कश्मीर में पर्यटकों पर हुए आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर कूटनीतिक आक्रमण करते हुए सिंधु जल संधि स्थगित कर दी है। इससे पाक को जल संकट और आर्थिक चोट झेलनी होगी। वीज़ा रद्दीकरण से सीमा तक बंदी का ऐलान कर भारत ने साफ संदेश दिया है—अब पानी भी हथियार है। ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति की तर्ज पर यह ‘इंडिया फर्स्ट’ का सख्त एलान है।
सिंधु जल संधि पर रोक
कश्मीर के पहलगाम में निर्दोष पर्यटकों पर हुए आतंकी हमले के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार ने कड़ा रुख अपनाते हुए पांच बड़े कूटनीतिक प्रहार कर दिए हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण सिंधु जल समझौते को अनिष्चित काल के लिए स्थगित करना है। यह एक ऐसी कूटनीतिक चाल है, जिससे पाकिस्तान को भीषण जलसंकट का सामना तो करना पड़ेगा ही आर्थिक समृद्धि में भी यह फैसला मठा घोलने का काम करेगा। साथ ही पाकिस्तानी नागरिकों का वीजा रद्द करते हुए उन्हें 48 घंटे में पाक लौट जाने का आदेश दिया है। अटारी-वाघा सीमा-द्वार बंद कर दिया है। भारत ने पाकिस्तान से अपने सैन्य राजनयिकों को वापस बुला लिया है। नई दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग में रक्षा, सैन्य, नौसेना और वायुसेना सलाहकारों को अवांछित व्यक्ति घोषित किया है। इन्हें एक सप्ताह में भारत छोड़ना होगा। ये सभी निर्णय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में संपन्न हुई केंद्रीय कैबिनेट की सुरक्षा समिति (सीसीएस) की बैठक में लिए गए हैं। आतंकवादियों की शरणस्थली बने पाकिस्तान को ये कूटनीतिक सबक समय की जरूरत है।
अमानुषिक दगाबाजी के आदि पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर ने 16 अप्रैल 2025 को इस्लामाबाद में ओवरसीज पाकिस्तानियों के सम्मेलन में कहा था कि कश्मीर पाकिस्तान के ‘गले की नस‘ है। पाकिस्तान ने आतंकी साजिश रचकर कश्मीर के अवाम की इसी आर्थिक श्वास की नली को अवरुद्ध कर दिया है। अब भारत ने पलटवार करते हुए सिंघु की जलधार को अवरुद्ध करके ईंट का जबाव पत्थर से देने का काम किया है। यदि यह जवाब बहुत पहले दे दिया गया होता तो शायद पाक से निर्यात आतंक के ये हालात पनप ही नहीं पाते ?
19 सितंबर 1960 को सिंधु जल संधि में भारत और पाकिस्तान के बीच नदियों का पानी बांटने का समझौता हुआ था। इस समझौते पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान ने हस्ताक्षर किए थे। यह संधि विश्व बैंक की मध्यस्थता में हुई थी। इसके अंतर्गत पाकिस्तान से पूर्वी क्षेत्र की तीन नदियों व्यास, रावी व सतलुज की जल राशि पर नियंत्रण भारत के सुपुर्द किया गया था और पश्चिम की नदियों सिंधु, चिनाब व झेलम पर नियंत्रण की जिम्मेदारी पाक को सौंपी गई थी। इसके तहत भारत के ऊपरी हिस्से में बहने वाली इन छह नदियों का 80.52 यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी पाकिस्तान को हर साल दिया जाता है। जबकि भारत के हिस्से में महज 19.48 प्रतिशत पानी ही शेष रह जाता है।
नदियों की ऊपरी धारा ( भारत में बहने वाला पानी) के जल-बंटवारे में उदारता की ऐसी अनूठी मिसाल दुनिया के किसी भी अन्य जल-समझौते में देखने में नहीं आई है। इसीलिए अमेरिकी सीनेट की विदेशी मामलों से संबंधित समिति ने 2011 में दावा किया था कि यह संधि दुनिया की सफलतम संधियों में से एक है। लेकिन यह संधि केवल इसलिए सफल है, क्योंकि भारत संधियों की शर्तों को निभाने के प्रति अब तक उदार एवं प्रतिबद्ध बना हुआ है। जबकि जम्मू-कश्मीर को हर साल इस संधि के पालन में करीब 60 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है।
भारत की भूमि पर इन नदियों का अकूत जल भंडार होने के बावजूद इस संधि के चलते इस राज्य को पर्याप्त बिजली नहीं मिल पा रही है। पाकिस्तान की 2.6 करोड़ एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई इन्हीं नदियों के जल से होती है। पाक के बड़े भू-भाग की 21 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या की जल की जरूरतें इन्हीं नदियों पर निर्भर हैं। यह संधि लंबे समय तक स्थगित रहती है तो पाकिस्तान में अकाल और सूखे के हालात बन सकते हैं।
सिंधु-संधि के तहत उत्तर से दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा सुनिश्चित की गई है। इसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां सिंधु, चिनाब और झेलम पूरी तरह पाकिस्तान को उपहार में दे दी गई हैं। इसके उलट भारतीय संप्रभुता क्षेत्र में आने वाली व्यास, रावी व सतलुज नदियों के बचे हुए हिस्से में ही जल सीमित रह गया है। इस लिहाज से यह संधि दुनिया की ऐसी इकलौती अंतरदेशीय जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है और संधि की असमान शर्तों के चलते ऊपरी जलधारा वाला देश नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली जलधारा वाले देश पाकिस्तान के लिए अपने हितों की न केवल अनदेखी करता है, वरन बालिदान कर देता है।
इतनी बेजोड़ और पाक हितकारी संधि होने के बावजूद पाक ने भारत की उदार शालीनता का उत्तर पूरे जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में आतंकी हमलों के रूप में तो दिया ही, अब इनका विस्तार भारतीय सेना व पुलिस के सुरक्षित ठिकानों तक भी किया हुआ है। अब पर्यटकों की हिंदू धार्मिक पहचान करके जो नरसंहार पहलगाम की बैसरन घाटी में किया है, वह यह जताने के लिए काफी है कि हमला धर्म के आधार पर किया गया है। ये सभी हमले आतंकवाद को बहाना बनाकर छद्म युद्ध के जरिए किए गए, जबकि ये सभी हमले पाक सेना की करतूत हैं।
छद्म युद्ध में लागत तो कम आती ही है, हमलाबर देश पाकिस्तान वैश्विक मंचों पर इस बहाने रक्षात्मक भी हो जाता है कि इन हमलों में उसका नहीं, आतंकवादियों का हाथ है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि इस संधि को तोड़ने की हिम्मत न तो 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद दिखाई गई और न ही 1971 में? हालांकि 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में विभाजित कर नए राष्ट्र बांग्लादेष को अस्तित्व में लाने की बड़ी कूट व रणनीतिक सफलता हासिल की थी। कारगिल युद्ध के समय भी हम इस संधि को तोड़ने से चुके हैं। देर से ही सही इस संधि को तोड़ने की पहल देशहित में है।
दरअसल पाकिस्तान की प्रकृति में ही अहसानफरोसी शुमार है। इसीलिए भारत ने जब झेलम की सहायक नदी किशनगंगा पर बनने वाली ‘किशन गंगा जल विद्युत परियोजना‘ की बुनियाद रखी तो पाकिस्तान ने बुनियाद रखते ही नीदरलैंड में स्थित ‘अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय‘ में 2010 में ही आपत्ति दर्ज करा दी थी। जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले में किशनगंगा नदी पर 300 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। हालांकि 20 दिसंबर 2013 को इसका फैसला भी हो गया। दुर्भाग्य कहलें या भारत द्वारा ठीक से अपने पक्ष की पैरवी नहीं करने के कारण यह निर्णय भारत के व्यापक हित साधे रखने में असफल रहा है। न्यायालय ने भारत को परियोजना निर्माण की अनुमति तो दे दी, लेकिन भारत को बाध्य किया गया कि वह ‘रन ऑफ दि रिवर‘ प्रणाली के तहत नदियों का प्रवाह निरंतर जारी रखे।
फैसले के मुताबिक किशनगंगा नदी में पूरे साल हर समय 9 क्यूसेक मीटर प्रति सेकंड का न्यूनतम जल प्रवाह जारी रहेगा। हालांकि पाकिस्तान ने अपील में 100 क्यूसेक मीटर प्रति सेकंड पानी के प्राकृतिक प्रवाह की मांग की थी, जिसे न्यायालय ने नहीं माना। पाकिस्तान ने सिंधु जल-समझौते का उल्लंघन मानते हुए भारत के खिलाफ यह अपील दायर की थी। इसके पहले पाकिस्तान ने बगलिहार जल विद्युत परियोजना पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी। जिसे विश्व बैंक ने निरस्त कर दिया था।
द्विपक्षीय वार्ता के बाद शिमला समझौते में स्पष्ट उल्लेख है कि पाकिस्तान अपनी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकवाद को फैलाने की इजाजत नहीं देगा। किंतु पाकिस्तान इस समझौते के लागू होने के बाद से ही, इसका खुला उल्लंघन कर रहा है। लिहाजा पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने के नजरिए से भारत को सिंधु जल-संधि को ठुकरा कर पानी को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की मांग लंबे समय से उठ रही थी।
पुलवामा हमले के बाद केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान की ओर बहने वाली नदियों का पानी रोकने की बात कही थी। भारत ने अब इस मांग को अंजाम तक पहुंचा दिया है। तय है, इस कूटनीतिक पहल से पाक की कमर टूट जाएगी। नदियों के प्रवाह को बाधित करना इसलिए भी अनुचित नहीं है, क्योंकि यह संधि भारत के अपने राज्य जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के लिए न केवल औद्योगिक व कृषि उत्पादन हेतु पानी के दोहन में बाधा बन रही है, बल्कि पेयजल के लिए नए संसाधन निर्माण में भी बाधा है। इस संधि के चलते यहां की जनता को पानी के उपयोग के मौलिक अधिकार से वंचित होना पड़ रहा था।
हैरानी की बात यह भी है कि यहां सत्तारूढ़ रहने वाली सरकारों और अलगाववादी जमातों ने इस बुनियादी मुद्दे को उछालकर पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कभी नहीं की ? इसलिए आतंक का माकूल जवाब देने के लिए भारत सरकार की इस कूटनीतिक पहल का स्वागत होना चाहिए।