पंकज चतुर्वेदी

मुंबई में समय से पहले और तीव्र बरसात ने एक बार फिर दिखा दिया कि यह महानगर जलवायु परिवर्तन का नहीं, अपने ही विकास मॉडल का शिकार है। जलभराव का कारण न सिर्फ पुरानी सीवर व्यवस्था है, बल्कि मीठी, दहिसर, ओशिवारा और पोइसर जैसी चार नदियों को नाले में बदल देना और मैंग्रोव वनों का विनाश इस डूबती मुंबई की असली त्रासदी है।

यह सच है की इस बार समय से दो हफ्ते पहले ही मानसून मुंबई पर बरस गया । यह भी सच है बरसात की झड़ी कुछ अधिक तेज थी लेकिन यह पहली बार नहीं था की जब बादल बरसे और देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की रफ्तार थम न जाए । जो सड़कें सरपट यातायात के लिए बनाई गई थीं, वहां नाव चलाने की नौबत आ गई। बीएमसी की आंतरिक रिपोर्ट के अनुसार, इस बार 80 नए जलभराव वाले स्थान चिन्हित हुए हैं, जिनमें कई महत्वपूर्ण इलाके बीएमसी मुख्यालय, मंत्रालय, मेट्रो सिनेमा सबवे, क्रॉफर्ड मार्केट, फोर्ट, मरीन ड्राइव, हाई कोर्ट क्षेत्र, चर्चगेट, ग्रांट रोड, आदि पहली बार जलमग्न हुए। किसी राज्य या दुनिया के कई देशों के सालाना बजट से ज्यादा जिस नगरपालिका का आमद-रफ्त हो, वहां बीते एक दशक में 16 हजार करोड़ का नुकसान केवल जलभराव के कारण होना ; करीबी सालों में ही इस रूपहले महानगर के अस्तित्व पर चिंता की लकीरें खींचता है।

जब कभी मुंबई के डूबने की घटना होती है तो उसका सबसे ज्यादा दोष जलवायु परिवर्तन, तेज हुई बरसात या फिर पुरानी सीवर लाईन पर मढ़ दिया जाता है। जबकि हकीकत यह है कि मुंबई की डूब का असली खलनायक महानगर की चार नदियों को सीवर में बदल देना है। ये नदियां महज बरसात के पानी को समेट कर सहजता से समुद्र तक पहुंचाने का काम ही नहीं करती थीं, इन नदियों के तट पर बसे मैंग्रोव वनों के चलते बाढ़ बस्ती में जाने से ठहर जाती थी। सन अस्सी से 2020 तक के चार दशकों में इस महागर की आबादी चार गुना हो गई, और समुद्र से घिरे इस आबादी के समुंदर में जमीन को बढ़ाना तो संभव था नहीं, सो चार नदियों के किनारे उजाड़े गए, महानगर की सुरक्षा दीवार कहलने वाले मैंग्रोव जंगलों को ही रास्ते से हटा दिया गया।

यह सभी जानते हैं कि मुंबई कभी समुद्र के बीच में सात द्वीपों का समूह था। पहले पुर्तगाली और उसके बाद ब्रितानी शासकों ने और उसके बाद हमारे राजनेताओं ने खाड़ियों में मलवा भर कर जमीनों से सोना बनया और महानगार को तीन तरफ समंदर से घिरा एक बेतरतीब अरबन स्लम बना दिया। बांद्रा से लेकर नरीमन पाइंट तक कई मशहूर जगहों पर अभी कुछ दशकों पहले तक अथाह सागर लहराता था। संकऱे से शहर के चप्पे-चप्पे पर सीमेंट पोत दी गई, जाहिर है कि बरसात होने पर ऐसी जगह कम ही बची जहां कुदरत की नियामत वर्षा बूंदे धरती में जज्ब हो पातीं। अब जो भी पानी गिरता है वह नालियों की लपक कर समुद्र के रास्ते हो जाता है। जहां व्यवधान मिला, वह वहीं ठिठक जाता है । हर बार हिंदमाता, दादर, परेल, लालबाग, कुर्ला, सायन,माटुंगा, अंधेरी, मलाड़ के अलावा वे सभी इलाके जहां नदियों का मिलान समुद्र से होता है, घुटनों से कमर तक पानी में होते हैं।

मुंबई को डुबाने का पाप तो यहां के वाशिंदों ने तब अपने ही हाथों से लिख दिया था जब यहां की चार नदियों – मीठी Mithi river, दहिसर, ओशिवारा और पोइसर को उपेक्षित किया गया था। नदियों में घर का निस्तार व औद्योगिक कचरा डाल कर गंदे नाले में बदल दिया गया। नदी के किनारों को सिकोड़ कर वहां बस्तियां बसा ली गईं। वहां लगे मैंग्रोव जंगलों को कचरादान बना दिया गया। एनजीटी में कहा गया कि अभी बचे 6600 हैक्टर मैंग्रोव में 8000 टन प्लास्टिक कचरा भरा हुआ है। मीठी नदी और माहिम की खाड़ी के इलाकों में मैंग्रूव के जंगल हुआ करते थे लेकिन बिल्डरों ने विकास की दौड़ में इनका विनाश किया। एक आकलन कहता है कि ज़मीन और समुद्र के बीच एक रक्षा कवच बनाने वाले मैंग्रूव के जंगलों का 40 फीसदी हिस्सा 1995 से 2005 के बीच तहस नहस हुआ.?, कुछ बिल्डरों ने बर्बाद किया और कुछ पर अतिक्रमण करके झुग्गी बस्तियां बन गईं।हाल ही में उजागर हुआ की मीठी नदी की सफाई का करोड़ों का बजट कागजों पर ही निबटा दिया गया ।

सन 2005 की भयावह बाढ़ के कारणो पर जब जांच हुई थी तब पता चला था कि तबाही की असली वजह मीठी नदी का उफान था। मीठी मुंबई षहर की सबसे लंबी नदी है । यह संजय गांधी नेशनल पार्क के करीब से निकल कर सकीनाका, कुर्ला, धारावी होते हुए 25 किलोमीटर का सफर तय करती है व माहिम की खाड़ी में समुंदर में मिल जाती है। मुंबई एयरपोर्ट बनाने के लिए मीठी नदी के दोनो तरफ दीवार बना कर चार बार समकोण में मोड़ा गया। यहां अब खूब जलभराव होता है क्योंकि वहां नदी का कोई तट बचा ही नहीं जहां पानी धरती पर रिस कर भूगर्भ में जा सके। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मीठी नदी के तट का अतिक्रमण झुग्गीवासियों ने किया है, पर मुम्बई हवाई अड्डे के कारण भी मीठी नदी के बेसिन का संकुचन हुआ है। मीठी नदी पर भवन निर्माण कम्पनियों ने बहुमंजिली इमारतें बना दी। इस नदी तट से अतिक्रमण हटाने की बात जब जाँच समिति ने सुझाई तो झुग्गी वालों को उजाड़ने की योजना बनाई गईलेकिन आलीशान अट्ालिकाओं पर सभी मौन रहते है।

12 किलोमीटर लंबी दहिसर नदी श्रीकृष्ण नगर, कांदरपाड़ा, के रास्ते मनोरी क्रीक में अरब सागर में समाती है। सात किलोमीटर लंबी ओशिवरा नदी में अब भवन निर्माण का मलवा भर दिया गया है तो लगभग उतनी ही लंबी पोइसर नदी पूरी तरह प्लास्टिक कचरे से जाम है।

इसका मार्वे की खाड़ी तक का रास्ता अब गुम सा गया है। सरकारी भाशा में ये चारों नदियां अब मृत हैं। चूंकि इन नदियों में अब लगभग प्रवाह बंद है, सो बरसात होते ही इसकी तरफ आता पानी उफन कर बाहर आ जाता है। यदि उसी समय हाई टाईड अर्थात समुद्र में ज्वार का काल हो तो उन नदियों के समुद्र में मिलने के स्थान पर समुद्र जल उल्टी मार मारता है। परिणामस्वरूप नदियां को सोख कर बने घर, कालोनी, सड़क बाजार जलमग्न हो जाते हैं।

वैसे यहां की नदियों को साफ करने के लिए करोड़ो की योजनाएं और दावे चलते रहते है। लेकिन इसके लिए बेहद अनिवार्य नदियों के प्राकृतिक मार्ग से अतिक्रमण हटाने की इच्छाशक्ति कोई नहीं जुटा पाता है। मुंबई का ड्रेनेज सिस्टम 20 वीं सदी की शुरूआत का है और सघन आबादी केचलते इसमें कोई आमूल चूल बदलाव हुए नहीं। इस सिस्टम की क्षमता करीब 25 मिलीमीटर पानी प्रति घंटे निकालने की है, जबकि भारी बारिश के समय ज़रूरत 993 मिलीमीटर प्रतिघंटे तक की हो जाती है। इसका अंजाम है कि जगह जगह पानी भर जाता है। ऐसे में यदि चारों नदियां गहरी और निर्बाध प्रवाह की हों तो जलभराव काफी कुछ रूक सकता है।

मौसम के वैश्विक बदलाव और बढ़ते तापमान के मद्देनजर मुंबई की नदियों का महत्व और अधिक हो गया है। कई अंतरराश्ट्रीय षोध बताते हैं कि ग्लोबल वार्मिग से समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा व सन 2050 तक मुंबई के अधिकांश दक्षिणी हिस्से हर साल कम से कम एक बार प्रोजेक्टेड हाई टाइड लाइन से नीचे जा सकते हैं। जान लें कि प्रोजेक्टेड हाइ टाइड लाइन तटीय भूमि पर वह निशान होता है जहां सबसे उच्च ज्वार साल में एक बार पहुंचता है। ऐसे में समुद्र को जोड़ने वाली नदियां ही ऊंची लहरों से उपजे डूब के खतरे को कम कर सकती है। यह भी कड़वी सच्चाई है कि क्लाइमेट चेंज के कारण अरब सागर से नमी भरी हवाओं का चलन बदला है, जिनके कारण मध्य भारत में अचानक भारी बारिश होने लगी है और यह खतरा मुंबई पर हर समय मंडराता रहेगा।

मुंबई को बसाने के लिए उसकी पारंपरिक जल निधियों से बड़े स्तर पर छोड़छाड़ की गई। बानगी है कि 1990 के दशक में ही भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को सूचित कर दिया गया था कि बांद्रा कुर्ला कॉम्प्लेक्स को मंज़ूरी दिए जाने से भविष्य में त्रासदियां संभव हैं और आज वह इलाका भयंकर जलभराव का है। मुंबई के पश्चिमी छोर पर जहां लहराता अथाह अरब सागर नजर आता है, वहीं पूर्वी छोर पर ठाणो-नई मुंबई-शिवड़ी आदि बस्तियों के घेरे बड़ी-बड़ी समुद्री खाड़ियां नजर आती हैं। बांद्रा रिक्लेमेशन, बैकबे रिक्लेमेशन और नरीमन प्वाइंट जैसे कई स्थान तो बाकायदा समुद्र को पाटकर ही बसाए गए हैं। इस प्रकार समुद्र को पीछे ढकेलते हुए कभी नहीं सोचा गया कि इसके दुष्परिणाम क्या होंगे। यहां तक कि पक्की सड़कें बनाते समय उसके दोनों ओर बनाए गए फुटपाथ भी कच्चे नहीं छोड़े गए। यानी धरती में पानी सोखने के सभी रास्ते बंद कर दिए गए।