अरविंद मोहन

पहलगाम की विभीषिका ने देश को एकजुट किया—यह सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं था, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ राष्ट्रीय चेतना के पुनर्जागरण का क्षण बन गया। पहली बार कश्मीर से लेकर दिल्ली तक, मस्जिद से लेकर संसद तक, एक सुर में आतंक के खिलाफ आवाज़ उठी है—जो बताता है कि मजहब की आड़ में हिंसा अब स्वीकार्य नहीं रह गई, और यह घटना शायद उस बदलाव की शुरुआत हो जिसकी इस ज़मीन को बरसों से दरकार थी।

पहलगाम हत्याकांड पर दुनिया, देश, हमारे मुसलमान समाज और खास तौर पर कश्मीरी समाज ने जैसी प्रतिक्रिया दी है वह ढेर सारे सकारात्मक संकेत देता है और यह उम्मीद भी जगाता है कि यह कांड जम्मू-कश्मीर में दशकों से जारी आतंकवाद और इस्लामी फंडामेंटलिज़्म (मजहबी कट्टरवाद) के अंत की शुरुआत कर सकता है। देशव्यापी बंद और सर्वदलीय सहमति से इस घटना के जबाब देने की अब तक चली पहल के साथ सोशल मीडिया और बौद्धिक समाज की प्रतिक्रिया भी यही बताती है कि यह घटना जिस पागलपन का प्रमाण है उस हद तक कोई उसके साथ नहीं चल सकता, न इस्लाम का नाम लेने और मानने वाले, न आम कश्मीरी, न आम भारतीय, न मोदी का विरोध करने वाले, न मुसलमान वोटों की राजनीति को प्राथमिकता देने वाले। यह मानने वाले या शक जाहिर करने वाले भी आगे नहीं या रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के लिए यह एक ‘मौका’ हो गया है और वे इसका चुनावी लाभ लेंगे। इन सब मामलों में अपवाद जरूर होंगे लेकिन वे भी आम राय के खिलाफ जाकर अपनी बात को ज्यादा जोर से नहीं करते।

आतंकियों ने मजहब जानकर गोली मारी लेकिन अब यह स्वर भी मद्धिम पड़ने लगा है कि सिर्फ हिन्दू ही निशाने पर थे। जाहिर तौर पर इसमें देश और कश्मीर के मुसलमान समाज की प्रतिक्रिया और कश्मीरी समाज से आतंकियों के समर्थक आधार की एकदम कमजोर स्थिति की असलियत उजागर होने का हाथ है। अभी तक उनके स्थानीय समर्थन का छिटफुट प्रमाण ही मिला है। और वह संदेश तो गायब ही हो गया कि आतंकियों ने धर्म पूछा, जाति नहीं। उसमें निश्चित रूप से शासक दल और संघ परिवार की राजनैतिक सोच की प्रतिध्वनि थी। और अगर उसे भी अपने किसी समर्थक या प्रचारक द्वारा उठाया यह तर्क चुभने लगा है या नुकसानदेह लगता है तो यह उसे बदलाव को बताता है जिसकी चर्चा से लेख शुरू हुआ है। आतंकी निश्चित रूप से मुसलमान थे, लेकिन न तो सारे मुसलमान आतंकी हैं और न इस्लाम का मतलब आतंकवाद है, यह तर्क इस बार ज्यादा प्रबल हुआ है-सर्वमान्य भले न हुआ हों।

सही व्यक्त पर इस कांड का जबाब तो उसी भाषा में देना ही होगा और सारे संकेत पाकिस्तान की तरफ इशारा भी कर रहे हैं। और जिस तरह समाज ने आतंकवाद और मुसलमान समाज या इस्लाम में भेद करने को ज्यादा महत्व दिया है वैसे ही पाकिस्तान को तत्काल फौजी जबाब देने के सवाल पर भी संयम रखा है। सबको मोदी जी पर और भारतीय सेना की ताकत पर भरोसा है। लेकिन उनको यह भी लगता है कि मामले को हिन्दू-मुसलमान या भारत-पाकिस्तान के टकराव को बढ़ाने वाला रूप देने का मतलब तो आतंकियों की मंशा को ही आगे बढ़ाना है। वे यही चाहते और करते हैं। अगर हम भी उनके फंदे में फँसकर वही करने लगे तो उनका ही उद्देश्य पूरा होगा। इसलिए भले ही पहले से तय बिहार का कार्यक्रम पूरा करते हुए प्रधानमंत्री ने दुनिया को अपनी मंशा बता दी लेकिन सैन्य समाधान में कोई हड़बड़ी नहीं हुई। यह कार्यक्रम चुनावी रंग वाला था लेकिन पहले से तय था और प्रधानमंत्री ने इस रंग को गाढ़ा नहीं किया।

पर जिस ताकतवर ढंग से बदलाव की बात उभरती है उसका सबसे बढ़िया प्रमाण इस केंद्रशासित प्रदेश में पूर्ण बंद था। जम्मू-कश्मीर विधान सभा में पास प्रस्ताव और वहां हुए भाषण भी यही बताते हैं। मुख्यमंत्री उमर ने सरकार के भरोसे पर ये पर्यटकों/मेहमानों के साथ हुए ऐसे नृशंस व्यवहार के लिए खेद जताया और यह भी कहा कि वे अब किस मुंह से जम्मू-कश्मीर के लिए राज्य का दर्जा मांगेंगे। उनका या प्रतिपक्षी दलों का नजरिया असल में कश्मीरी समाज के मन को बताता है जो धारा ३७० की समाप्ति के समय से अलग व्यवहार कर रहा है। यह फैसला होते समय लगा था कि बहुत उग्र प्रतिक्रिया आएगी। फिर जब भारी संख्या में सैन्य बालों को तैनात करके शांति बनाए रखने का प्रयास हुआ तब भी लगता रहा कि जब फौज काम होगी तब यह प्रतिक्रिया फूटेगी। चुनाव में भाजपा से बहुत प्रेम न दिखा और उसे भी घाटी में लोगों का भरोसा नहीं दिखा।

लेकिन इन छह वर्षों में और उससे पहले से भी कश्मीर के लोग आतंकवाद और कठमुल्लावाद से ऊबने लगे थे। धारा ३७० की समाप्ति के बाद से बढ़ी चौकसी और एक हद तक शांति वाले दौर में भले ही उद्योग-धंधे नहीं लगे, प्लाट लेकर बसने की होड नहीं लगी, कश्मीरी पंडितों की वापसी नहीं हुई लेकिन पर्यटन में जबरदस्त वृद्धि हुई। पर्यटकों की संख्या अगर पहले बीस-पच्चीस लाख होती थी तो पिछले साल यह ढाई करोड़ तक पहुँच गई और इस साल उसके तीन करोड़ छूने की उम्मीद की जा रही थी। इससे खूब कमाई और रोजगार पैदा हुआ। काम करने वालों के लिए तीस चालीस हजार महीने का कमाना आम बन गया। होटल कम पड़े तो लोगों ने अपने घर का एक कमरा पर्यटकों को देना शुरू किया। इसलिए पहले पाक प्रायोजित आतंकवाद में पत्थरबाजी और बाहरी आतंकियों की सहायता के लिए जो बेरोजगार सस्ते नौजवान मिलते थे वह अब बंद हो चुका है।

इस दौरान खुद पाकिस्तान की हालत खराब होती गई है। कहने को वहां चुनी हुई सरकार अभी भी चल रही है लेकिन काफी समय से सारे फैसले फौज और आईएसआई ही लेती है। और इमरान खान को गिरफ्तार करने के बाद वहां के राजनैतिक टकराव भी बढ़ गए है। इसलिए इस बार पहली बार पाक मंत्री ने कबूला कि हम आतंकवाद को बढ़ावा देने में अमेरिका और पश्चिम के टट्टू रहे हैं। इस बार भारतीय चैनलों पर दिखे पाक पत्रकार और विशेषज्ञ भी खुलकर अपनी सरकार और फौज के खिलाफ बोलते नजर आये। कहीं से एटमी युद्ध छिड़ने की धमकी नहीं सुनाई दी। उनको भी लगता है कि अगर भारत कार्रवाई करेगा(ऐसी घटना के बाद कार्रवाई न हो तभी आश्चर्य) तो जौ के साथ घुन भी पिसेगा। और सेना प्रमुख को हटाने की मुहिम भी बताती है कि इस कांड ने पाकिस्तानी समाज पर भी असर किया है। जिस तरह की यह कार्रवाई है उसे किसी भी नाम से सही नहीं ठहराया जा सकता।

दूसरी तरफ हमारे यहां फौज तो पाकिस्तान से ज्यादा बड़ी और ताकतवर है लेकिन अनुशासित है और सिविलियन सरकार के अधीन है। सरकार भी साझा है। और बची खुची कमी विपक्ष ने सरकार का साथ देकर पूरी कर दी है। हिन्दुस्तानी समाज और मुसलमान समाज भी पूरी तरह सरकार के साथ है। इसलिए आतंकियों की इस कार्रवाई के जबाब में जो भी कदम उठे उसमें पूरे मुल्क की इच्छा और शक्ति होगी। लेकिन इस बार की वारदात करके आतंकियों और उनके आकाओं ने खुद को ही अलग थलग कर लिया है- उनका किसी भी नाम से समर्थन करने वाले उंगलियों पर गिनने लायक ही बचे होंगे। बाकी सबका संकेत है ‘आतंकवाद को अलविदा’।