स्‍मृति शेष

यदि आप जैसलमेर की किसी भी गली में यह पूछें कि क्या किसी ने गोडावण देखा है, तो जवाब में राधेश्याम विश्नोई Radheshyam Pemani Bishnoi का नाम अवश्य सुनने को मिलेगा। गोडावण, यानी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड—वह दुर्लभ पक्षी, जो कभी भारत के कई हिस्सों में खुले मैदानों और घास के मैदानों में विचरता था—आज विलुप्ति के कगार पर है। लेकिन इस संकटग्रस्त प्रजाति को बचाने के लिए जिस युवा ने अपने जीवन को समर्पित कर दिया, वह थे राधेश्याम विश्नोई।

राधेश्याम विश्नोई—जिनके व्यक्तित्व में सादगी, संकल्प और संवेदना की त्रिवेणी थी। वे न केवल जैसलमेर के गोडावण संरक्षण अभियान के नायक थे, बल्कि अपने व्यवहार, सोच और कार्यप्रणाली से एक प्रेरणास्रोत बन चुके थे। विश्नोई परंपरा की गोद में पले-बढ़े राधेश्याम ने अपनी युवा ऊर्जा को आधुनिक विज्ञान और परंपरागत लोक-ज्ञान के मेल से जोड़ा। उन्होंने यह कभी नहीं चाहा कि लोग उन्हें किसी नेता, पर्यावरणविद या नायक के रूप में देखें—वे खुद को बस “गांव का एक साधारण युवक” मानते रहे।

Radheshyam Pemani Bishnoi जैसलमेर के एक छोटे से गांव से ताल्लुक रखते थे, पर उनका हृदय समूचे थार के लिए धड़कता था। वे विश्नोई समुदाय की उस परंपरा के जीवंत प्रतीक थे, जो सैकड़ों वर्षों से वन्यजीव और प्रकृति की रक्षा को धर्म मानती आई है। उन्होंने न केवल गोडावण को बचाने के लिए अपने जीवन की दिशा तय की, बल्कि रेगिस्तान में जैव विविधता के संरक्षण को लेकर एक सामाजिक आंदोलन की नींव भी रखी।

1996 में जन्मे राधेश्याम (Radhe) पेमानी विश्नोई का संबंध थार के जुनून से जगमगाता जैसलमेर क्षेत्र के ढोलिया गांव से था। राधेश्याम बचपन से ही पक्षियों और वन्यजीवों के बीच पले-बढ़े। किशोरावस्था में उन्होंने गोडावण के घटते अस्तित्व को देखा और भीतर ही भीतर यह प्रण लिया कि वे इस पक्षी को विलुप्त नहीं होने देंगे। 2010 के बाद, जब गोडावण की संख्या 100 से भी नीचे जा पहुंची, तब राधेश्याम ने स्थानीय समुदायों, चरवाहों और स्कूलों के साथ मिलकर जनजागरण अभियान चलाया। वे बच्चों से विशेष लगाव रखते थे। अक्सर गांव के स्कूलों में जाकर बच्चों को गोडावण की कहानियां सुनाते, चित्र बनवाते और छोटी-छोटी गतिविधियों से उनमें प्रकृति के प्रति प्रेम जगाते। उनका मानना था कि संरक्षण की असली शुरुआत बच्चों के मन से होती है।

राधेश्याम की सबसे बड़ी ताकत थी—उनका सामुदायिक संवाद। वे जानते थे कि संरक्षण सिर्फ कानून से नहीं, समुदाय की भावना से सफल होता है। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि किसान अपने खेतों में दवाइयों का प्रयोग सोच-समझकर करें, ताकि गोडावण के अंडों और भोजन को नुकसान न पहुँचे। उन्होंने गश्ती दल बनाए, जिनमें स्थानीय युवक शामिल थे, जो अंडों की निगरानी करते, अवैध शिकार रोकते और हर गोडावण की गतिविधि दर्ज करते।



राधेश्याम में गजब की धैर्यशीलता थी। जब सरकारी योजनाएं विलंब से चलतीं, जब स्थानीय लोग उदासीन होते या जब कोई शिकारी पकड़ा न जाता—तब भी वे निराश नहीं होते। उनका कहना था, “गोडावण जैसे जीव को बचाना सिर्फ एक प्रजाति की रक्षा नहीं है, यह हमारी आत्मा को बचाने जैसा है।”

2025 में जब सेंचुरी एशिया पत्रिका ने उन्हें  द गोडावण मेन आफ इंडिया (The Godawan Man of India) की उपाधि दी, तब वे मात्र 28 वर्ष के थे। लेकिन यह सम्मान केवल उनके युवा प्रयासों की नहीं, बल्कि उनकी दूरदर्शिता, प्रतिबद्धता और आत्मीयता का प्रतीक था। उन्होंने कई बार कहा, “अगर हम अपने पूर्वजों की तरह प्रकृति से रिश्ता बनाकर जिएं, तो पृथ्वी को बचाना कठिन नहीं है।”

दुर्भाग्यवश, इसी वर्ष 24 मई को एक सड़क दुर्घटना में राधेश्याम का असामयिक निधन हो गया। यह न केवल जैसलमेर, बल्कि समूचे भारत के लिए एक अपूरणीय क्षति थी। उनके निधन के बाद जैसलमेर में हज़ारों ग्रामीणों ने मौन जुलूस निकालकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। आज भी वहां की बालू रेत में जब गोडावण की पदचिन्ह उभरते हैं, तो लोगों को राधेश्याम की याद आती है।

राधेश्याम विश्नोई wildlife conservationist and animal rescuer ने यह सिखाया कि किसी एक व्यक्ति की आस्था और कर्मठता पूरे पारिस्थितिक तंत्र को नया जीवन दे सकती है। वे चले गए हैं, लेकिन उनके ‘गोडावण’ आज भी उड़ रहे हैं—थार की उस खुली छाती पर, जिसे राधेश्याम ने जीवन भर बचाने की कोशिश की।

लेकिन वे आज भी हर उस युवा के हृदय में जीवित हैं, जो प्रकृति के लिए कुछ करना चाहता है। उनकी स्मृति में जो काम आगे बढ़ रहे हैं—वे ही उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं।