
प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल में प्राकृतिक संपदा,कृषि और गोवंश थे। प्राकृतिक संपदा के रूप में हमारे पास नदियों के अक्षय-भंडार के रूप में शुद्ध और पवित्र जल स्रोत थे। हिमालय और उष्ण कटिबंधीय वनों में प्राणी और वनस्पति की विशाल जैव-विविधता वाले अक्षुण्ण भंडार और ऋतुओं के अनुकूल पोशक तत्व पैदा करने वाली जलवायु थी। मसलन मामूली सी कोशिश आजीविका के लायक पौष्टिक खाद्य सामग्री उपलब्ध करा देती थी।
ऊं सह नाववस्तु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवाव है तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विशाव है। भारतीय ज्ञान परंपरा में यह भोजन का मंत्र है, जो आज भी गाया जाता है। आहार के प्रति सम्मान का द्योतक है। आहार का सीधा संबंध उदर से है। अतएव उदर को आहार का भंडार गृह भी कहा जाता है। भोजन ग्रहण करने के बाद शरीर में पोषण के लिए आवश्यक रासायनिक व शारीरिक क्रिया होती है। यही भोजन को पचाने का काम करती है। पाचन की प्रक्रिया इसे पचाकर सप्त धातुओं में बदल देती है।
मानव जीवन अन्न पर निर्भर है। अन्न की उत्पादकता कृषि पर आश्रित हैं। कृषि के लिए उत्तम गुणवत्ता के बीजों की आवश्यकता रहती है। तथापि भोजन केवल कृषि से ही नहीं मिलता है, अपितु फल-फूल और जल व वन्य जीवों से भी मिलता है। परंतु उत्तम आहार अनाज की विभिन्न किस्मों और फलों को ही माना जाता है। इन सब भोज्य पदार्थों की उपलब्धता के तत्पश्चात भी दूध और शहद ऐसे आहार हैं, जिन्हें दोष रहित संपूर्ण आहार माना जाता है। इसलिए बीमारी की अवस्था में चिकित्सक दूध और फल के सेवन की सलाह देते हैं। ज्यादातर आयुर्वेदिक दवाएं मधु (शहद) के साथ खाई जाती हैं। शुद्ध शहद हजारों वर्षों तक खराब नहीं होती। हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के उत्खन्न में पांच हजार साल से भी ज्यादा पुराना शहद का भरा मिट्टी का मटका निकला था, जिसकी शहद खाने योग्य थी।
हमारी सनातन संस्कृति में भूखा नहीं सोने की अवधारणा ऋग्वैदिक काल से ही प्रचलन में रही है। हमारा यही पांपरारिक बोध मनुष्य ही नहीं, पालतू पशुओं की भूख की चिंता करता है। इसीलिए प्रत्येक सनातनी के घर में पहली रोटी गाय के लिए बनाई जाती है। क्योंकि गाय दूध, दही, घी और मठा तो देती ही है, खेती-किसानी के लिए हलधर बैल भी देती है। इसलिए बच्चों के पालन-पोषण की तरह गाय की भी चिंता की जाती है। इन्हीं आदर्श नैतिक मूल्यों को समाज में स्थापित करने की भावना से भक्तिकालीन कवि कबीरदास कहते हैं, ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाए। आपहुं भूखा न रहे, साधु न भूखा जाए। अपरिग्रह की यह चेतना आज भी भारतीय सनातन समाज में व्याप्त है।
सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही अन्न की आवश्यकता अनुभव हुई। इस समस्या के निवारण की दृष्टि से ही कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि, अन्न और आहार एक-दूसरे के पर्याय हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है। कृषि कार्य में अनाज की उपलब्धता है और अनाज मानव जीवन की ऊर्जा है, अतएव कृषि को मानव कल्याण का साधन माना गया है। इसीलिए यजुर्वेद में राजा के प्रमुख कतृत्च च के बारे में कहा है कि वह कृषि की उन्नति करे, जिससे धन-धान्य में वृद्धि हो। शतपथ ब्रह्मांड में कृषि कार्य को चार प्रकारों में बांटा गया है। एक, कर्षण (खेत की जुताई करना), दो वपन (बीज बोना), तीन लवण (पके खेत की कटाई करना) और चार मर्दन अर्थात दाएं करके स्वच्छ अन्न प्राप्त करना। ऋग्वेद और अथर्ववेद में राजा वेन के पुत्र पृथु को कृषि विद्या का प्रथम आविष्कारक और इंद्र को पहला कृषक माना गया है। इंद्र ने मरुत देवों के साथ मिलकर सरस्वती नदी के किनारे की उर्वरा भूमि पर माधुर्ययुक्त जौ की खेती की-
इमं देवा मधुना संयुतं यवं, सरस्वत्यार्मांध मणावचर्कृशुः। इंद्र आसीत सीरपतिः षतक्रतुः कीनाषा आसन् मरुतः सुदानवः -अथर्ववेदः6.30.1
आर्य और अनार्यों के युग में जौ या गेहूं की खेती बीज भूमि में फेंककर की जाती थी। कालांतर में हल का आविष्कार हुआ और खेती हलों में बैल जोतकर की जाने लगी। हल का उपयोग भविष्य में एक अस्त्र के रूप में भी हुआ। बलराम का अस्त्र हल ही है। वैदिक काल में हलेष्टि यज्ञ होता था। सम्राट हल चलाकर खेत में उत्तम फसलों के बीज बोते थे। भारत कृषि प्रधान देश होने के साथ यहां की अर्थ-व्यवस्था की नींव कृषि पर ही टिकी है। हल कृषि कार्य का प्रतीक है। वेद और रामायण काल में हल दहेज में दिया जाता था। वधू चरखा साथ लेकर ससुराल जाती थी। राजा जनक ने हल चलाया था। यही हल एक घड़े से टकराया तो उसमें से सीता उत्पन्न हुईं। महाभारत काल में राजा कुरु ने जिस क्षेत्र में हल चलाया था, वह कुरुक्षेत्र कहलाया। बौद्ध काल में राजा हल चलाते थे और रानी बीज बोती थी। हमारे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान‘ का नारा देकर शौर्य और कृषि को चिन्हित किया था। लोक कवि धाध ने कहा था, ‘हल लगा पाताल, मिट चला सब अकाल।‘
फसल में पौष्टिकता लाने के लिए वैदिक ऋषियों ने खाद के रूप में दूध, घी और शहद का मिश्रण डालने का उपाय किया था। उत्तम फसल के लिए धूप की भी आवश्यकता है। सूर्य की किरणों से फसल के पौधों को ऊर्जा मिलती है भोजन के रूप में ग्लूकोज मिलता है। सूर्य की किरणें ही बीज में अंकुरण और वृद्धि का कारण हैं। वायु से फसल को काॅर्बन डाइआक्साइड मिलती है। वैदिक युग में भिन्न फसलों की पैदावार प्रमुख रूप से होती थी। धान, जौ, उड़द, तिल, मूंग, चना, कंगुनी, छोटा चावल, सांवा, कोदो, गेहूं और मसूर। दूध और उससे बनने वाले दही व घी का भोजन में सर्वाधिक प्रयोग होता था। क्योंकि इन्हें पौष्टिक एवं बलवर्धक माना गया है। ऋग्वेद में दूध में पकाए गए चावल का उल्लेख है, जिसे हम खीर कहते है। मिट्टी के घड़ों में भरे हुए दही का उल्लेख है, जिससे पनीर बनाया जाता था। घी में तलकर मालपूए बनाए जाते थे। जौ को कूटकर उसकी भूसि अलग करके भूनकर पीसते थे, उससे बने सत्तू को दही के साथ खाने का चलन था। इस सत्तू में आगे चलकर चना और गेहूं के साथ मोटे अनाज का उपयोग भी होने लगा था, जिसका चलन वर्तमान में भी है।
प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल में प्राकृतिक संपदा,कृषि और गोवंश थे। प्राकृतिक संपदा के रूप में हमारे पास नदियों के अक्षय-भंडार के रूप में शुद्ध और पवित्र जल स्रोत थे। हिमालय और उष्ण कटिबंधीय वनों में प्राणी और वनस्पति की विशाल जैव-विविधता वाले अक्षुण्ण भंडार और ऋतुओं के अनुकूल पोशक तत्व पैदा करने वाली जलवायु थी। मसलन मामूली सी कोशिश आजीविका के लायक पौष्टिक खाद्य सामग्री उपलब्ध करा देती थी। इसीलिए नदियों के किनारे और वन प्रातंरों में मानव सभ्यता और भारतीय संस्कृति विकसित हुई। आहार की उपलब्धता सुलभ हुई तो सृजन और चिंतन के पुरोधा सृष्टि के रहस्यों की तलाश में जुट गए।
आर्थिक संसाधनों को समृद्ध बनाने के लिए ऋषि-मनीषियों ने नए-नए प्रयोग किए। कृषि फसलों के विविध उत्पादनों से जुड़ी। फलतः अनाज,दलहन,चावल,तेलीय फसलें और मसालों की हजारों किस्में प्राकृतिक रूप से फली-फूलीं। 167 फसलों और 350 फल प्रजातियों की पहचान की गई। अकेले चावल की करीब 80 हजार किस्में हमारे यहां मौजूद हैं। 89 हजार जीव-जंतुओं और 47 हजार प्रकार की वनस्पतियों की खोज हुई। मनीषियों ने प्रकृति और जैव-विविधता के उत्पादन तंत्र की विकास सरंचना और प्राणी जगत के लिए उपयोगिता की वैज्ञानिक समझ हासिल की। इनकी महत्ता और उपस्थिति दीर्घकालिक बनी रहे,इसलिए धर्म व अध्यात्म के बहाने अलौकिक तादात्म्य स्थापित कर इनके,भोग के लिए उपभोग पर व्यावहारिक अंकुश लगाया।
दूरदृष्टा मनीषियों ने हजारों साल पहले ही लंबी ज्ञान-साधना व अनुभवजन्य ज्ञान से जान लिया था कि प्राकृतिक संसाधनों का कोई विकल्प नहीं है। वैज्ञानिक तकनीक से हम इनका रूपांतरण अथवा कायातंरण तो कर सकते हैं,किंतु तकनीक आधारित किसी भी आधुनिकतम ज्ञान के बूते इन्हें प्राकृतिक स्वरूप में पुनर्जीवित नहीं कर सकते ? तमाम दावों के बावजूद क्लोन से अभी तक जीवन का पुनरागमन नहीं हुआ है। गोया,हमारी कृषि एवं गौवंश आधारित अर्थव्यस्था उत्तरोतर विकसित व विस्तारित हुई। विकास का समावेशी रूप बना रहा। अपढ़ भी गरिमा के साथ स्वावलंबी रहा। नतीजतन हम अर्थ व वैभव संपन्न हुए और सोने की चिड़िया कहलाए।
ऋषियों ने आहार प्रणालियों में विकास के साथ इनके महत्व का निर्धारण करते हुए इन्हें मुख्य रूप से तीन प्रकारों में विभाजित किया। सात्विक आहार, राजसी आहार और तामसिक आहार। सबसे प्रमुख सात्विक आहार माना गया। क्योंकि यह आध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरित करने वाला माना गया है। इसमें फल-सब्जियां, दूध-दही, अनाज एवं दालें और कई फलों के दाने शामिल है। यह आहार मानसिक शांति और पवित्रता को बढ़ावा देने के साथ, इंद्रियों पर नियंत्रण भी करता है। इससे मानसिक विवेक का संयम बना रहता है। राजसी आहार तामसिक और राजसिक गुणों वाला होता है। इसे आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें तामसिक तत्वों की अधिकता होती है। यह तत्व मानसिक स्थिति में विचलन पैदा करते है। अतएव चित्त चंचल बना रहता है। इस तरह के भोज्य पदार्थों में तीखा और तला हुआ भोजन, मिठाई, तेज मसाले, शराब और अन्य नशीलें पदार्थ शामिल हैं। तामसिक आहार को सनातन संस्कृति में उचित नहीं माना गया है। क्योंकि यह मानसिक अस्थिरता और आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होता है। इसे ग्रहण करने से क्रोध और कमुकता बने रहते हैैं। इस आहार में मांस से बने भोजन और शराब शामिल रहते हैं।
यदि हमारा भोजन पौष्टिक और पवित्र बना रहता है तो हम यजुर्वेद के उस मंत्र को साकार रूप में बदलने में सफल होंगे जो भोजन और ऊर्जा के बीच अंतरसंबंध की व्याख्या करता है। शरीर को जिंदा रहने के लिए आहार की और आत्मा को अच्छे विचारों की जरूरत पड़ती है, जो शुद्ध और सात्विक भोजन से ही संभव है,
ऊॅ यन्तु नद्यौ वर्शन्तु पर्जन्या सुपिप्पला ओशधयो भवन्तु, अन्नवताम मोदनवताम मामिक्षगमयति एशाम राजा भूयासम्। ओदनम् मुद्रवते परमेश्ठी वा एशः यदोदनः, पमावैनं श्रियं गमयति।
यजुर्वेद में दिए इस मंत्र का अर्थ है, ‘हे ईश्वर! बादल पानी बरसाते रहें और नदियां बहती रहें। औषधीय वृक्ष फलें-फूलें और सभी वृक्ष फलदायी हों। मुझे अन्न और दुग्ध उत्पादन करने वालों से लाभ प्राप्त हो और ऐसी धरती का मैं राजा बनूं। हे ईश्वर! थाली में रखा हुआ भोजन आपके द्वारा दिया प्रसाद है। यह मुझे स्वस्थ और समृद्ध बनाए रखेगा।’ साफ है, राजा प्रकृति और अन्नदाता से उत्तम भोजन की सामग्री देते रहने की प्रार्थना कर रहा है। यही प्रार्थना एक समय सभी सनातन संस्कृति के उपासक परमात्मा से करते रहे हैं।