नर्मदा किनारे का ‘सत्याघर’ अब सूना है : नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथियों की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि
अलीराजपुर, 3 जून। नर्मदा बचाओ आंदोलन के एक अहम स्तंभ और मध्यप्रदेश के पहले डूब प्रभावित गाँव जलसिंधी (अलीराजपुर) के प्रमुख कार्यकर्ता लुवारिया भाई (55 वर्ष) का सोमवार रात को निधन हो गया। आज दोपहर को उनका अंतिम संस्कार किया गया। लुवारिया का जाना सिर्फ एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं है, बल्कि यह नर्मदा घाटी में चार दशकों से चल रहे जनसंघर्ष के एक महत्वपूर्ण अध्याय का अंत है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ी मेधा पाटकर ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि लुवारिया वही नाम है, जिसकी अदम्य जिजीविषा और गाँववासियों की सामूहिक ताकत ने सरदार सरोवर बाँध के गैरकानूनी निर्माण को वर्षों तक रोक कर रखा। जलसिंधी गांव में नर्मदा किनारे का घर था लुवारिया का, जो बना रहा सालों तक नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत् सत्याग्रह का केंद्र! सभी आदिवासी कहते थे, ‘सत्याघर!’ लुवारिया की लाडी बोग्गी, छोटे बच्चे सबके साथ हम रहते थे…तो महसूस होती थी उसकी सादगी और सच्चाई भी। लुवारिया के माता पिता, भाई , सब सब थे ही आंदोलनकारी लेकिन लुवारिया जैसी एक पहाडी, भिलाली, दुबला पतला आदिवासी जब मुंह खोलकर जवाब देता तो उसमें बहती थी उसकी जिद्द, उसका जल, जंगल, जमीन से रिश्ता और उसका आंदोलन पर विश्वास भी।

पाटकर ने कहा कि उसकी भिलाली बोली बताती थी उसे ‘स्पष्टवक्ता!’ किसी पत्थर पर बैठकर, घर द्वार पर डटकर अपना मन्तव्य व्यक्त करने वाला लुवारिया कभी बनता था नेता लेकिन उसकी गहराई के कारण ही वह बन गया एक कलाकार, ‘हीरो’, लंदन से आयी एक फिल्मकार से मिलने पर, फिल्म ‘Drowned Out’ https://www.youtube.com/watch?v=ICnSsK-ZHTg का! एक बोट मिलने पर सबका परिवहन करने वाला लुवारिया…. गुजरात की बसाहटों की हकीकत जानने वाला भी था।
उन्होंने कहा कि लुवारिया के संघर्ष की जड़ें गहरी थीं – जल, जंगल, ज़मीन से रिश्ता और अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने की जिद्द। उन्होंने शासन के झूठे वादों की पोल खोली, पुनर्वास की अधूरी व्यवस्था को उजागर किया और हजारों विस्थापितों की आवाज़ बने। लुवारिया खुद संपूर्ण पुनर्वास से वंचित रहे, और आखिरकार उसी हाल में दुनिया से विदा हो गए।
मेधा पाटकर ने उन्हें श्रद्धासुमन व्यक्त करते हुए लिखा –”बिना संपूर्ण पुनर्वास मौत….. तुम्हारी जिंदगी पीछे छोड़ गई है सच्चाई ! लुवारिया, तुम्हें सलाम!”
वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीवान ने उन्हें याद करते हुए लिखा – “उनका जाना ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के एक बेहद जरूरी दौर का समाप्त होना है। सांईनाथ की किताब ‘Everybody Loves a Good Drought’ का पहला लेख ‘The House that Luhariya Built’ जो इस बात की तस्दीक करता है। दिल्ली में ‘गोलमैथी’ चौक से लापता होने के बाद के लुहारिया के अनुभवों पर मैंने एक – दो लेखों के अलावा कई बार लिखा है। लुवारिया बहुत सरल, ईमानदार और प्यारा इंसान था। उसके साथ, उसके घर में बिताए दिन भुलाए नहीं जा सकते। लुहारिया को श्रद्धांजलि देना तकलीफ़ देह है, लेकिन फिर भी….
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता लता पी.एम. ने याद करते हुए कहा कि लुवारिया और पैरवी से मैं जब भी डोमखेड़ी में होती थी, तो जलसिंधी में जाकर मिलती थी। लुवारिया एक नर्तक, जिंदादिल, लेकिन अंतर्मुख कलाकार थे – “उनकी होली के नृत्य की छवि और झोपड़ी की यादें आज भी मन में छाया चित्र की तरह अंकित हैं।” उतनी ही जलसिंधी में उनकी झोपड़ी, वो डोंगी, लुवारिया का नृत्य,और पैरवी का मोतियों का हार बनाना मेरे दिमाग में अभी भी किसी छाया चित्र जैसा फिट है।
नर्मदा आंदोलन से जुड़ी रही डॉ. सुरभि ने कहा कि लुवारिया और हम बहुत साथ रहे जलसिंधी में ।मुझे स्मरण है कि बोग्गी भाभी कहती थीं – चल सुरभी छाह कोरने! फिर हम लोग खम्भे में रस्सी लपेट कर दही मथते थे, थक कर चूर हो जाते थे । तभी तो “छाछ करने” का सही अर्थ पता चला था। एक गीत गाते थे लुवारिया भाई – गायणा- बाई रिछी ओ … उन्हें पंसद था। उनका मौन होना हमें गमगीन कर गया है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के आलोक अग्रवाल ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि “लुवारिया एकदम साधारण पर अत्यंत असाधारण व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने संकल्प से सरकारों को भी झुका दिया। उनके लिए आंदोलन सिर्फ घर बचाने का नहीं, बल्कि पूरी घाटी को बचाने का संघर्ष था।”
पानी के काम से जुडे श्रीपाद धर्माधिकारी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा “लुवारिया का घर आंदोलन का ही पर्याय बन गया था। उनका जाना व्यक्तिगत क्षति है।”
नर्मदा बचाओ आंदोलन की चितरूपा पालित (सिल्वी ) ने कहा कि लुवारिया उन सालों में मेरा सबसे अच्छा दोस्त था, पैरवी के अलावा। वह एक प्रतिष्ठित कार्यकर्ता था। वह एक गीत गाता था – गायणा- बाई रिछी ओ…
नदी किनारे से उठी एक आवाज़, जो इतिहास बन गई। वरिष्ठ साथी रहमत ने कहा कि लुवारिया जैसे कार्यकर्ताओं ने ही नर्मदा घाटी के संघर्ष को ज़मीन से जोड़कर उसकी ताक़त को नया आयाम दिया। उनका जीवन यह बताता है कि बिना मंच, बिना माइक, बिना बड़ी डिग्रियों के भी एक व्यक्ति जनआंदोलनों में केंद्रीय भूमिका निभा सकता है।