बाबा मायाराम

आदिवासी समाज के पास खान-पान का अपना एक तंत्र है। यह अपने आप में पूर्ण है तथा इसी के चलते आदिवासी समाज शताब्दियों से स्वयं को स्वस्थ व प्रसन्न बनाए रखे हुए हैं। आधुनिक औद्योगिक खेती ने मनुष्य से उसकी नैसर्गिकता ही छीन ली है।

ओडिशा की नियमगिरी पर्वत की तलहटी में छोटा सा कस्बा है मुनिगुड़ा। यहां कुछ साल पहले नियमगिरी पहाड़ को बचाने के लिए आदिवासियों ने लड़ाई लड़ी और जीती। अब यहां के आदिवासी भूख के खिलाफ लड़ रहे है। उनकी खेती की जमीन पर यूकेलिप्टस, बांस और इमारती लकड़ियों के पौधे रोपे जा रहे हैं, जबकि वे अपनी भोजन  की सुरक्षा के लिए विविधतायुक्त मिश्रित खेती को अपनाना चाहते हैं।

यहां खाद्य संगम के मौके पर एक खाद्य प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसे देखने आसपास के गांव के लोग और स्कूली बच्चे आए थे। इसमें उत्तराखंड से बारहनाजा, ओडिशा से गैर खेती भोजन जिसमें मशरूम, हरी भाजियां और कई प्रकार के कंद शामिल थे। यहां अनाजों में विविधता तो थी ही, वे सब रंग रूप में भी अलग थे। इसमें भूरा कांदा,(कंद) लाल बेर, गहनों की तरह चमकते मक्के के भुट्टे, काली और सुनहरी धान की बालियां,फलियां और छोटे दाने का सांवा, कुटकी और मोतियों की तरह की ज्वार आदि शामिल थे। यह एक माध्यम है जिससे नई पीढ़ी में यह परंपरागत ज्ञान हस्तांतरित होता है। खाद्य संगम में प्रतिभागी आपस में खाद्यों की, कृषि की जानकारी और  का आदान-प्रदान करते रहे।

इस संगम में 8 राज्यों के करीब 70 लोग शामिल हुए। इसका आयोजन पर्यावरण पर दशकों से काम कर रही संस्था कल्पवृक्ष और रायगड़ा, ओडिशा में आदिवासियों के पोषण और खाद्य पर काम करने वाली संस्था लिविंग फार्म ने किया था। खेती में विविधता की तरह प्रतिभागियों में भी काफी विविधता थी। खाद्य से जुड़े कई अनछुए मुद्दों पर यहां चार दिनों तक गरमागरम बहस होती रही।

वर्तमान में विकास के नाम पर पर्यावरण नष्ट हो रहा है, समुदायों का विस्थापन हो रहा है,आजीविका पर संकट मंडरा रहा है, खेती-किसानी का संकट बढ़ रहा है, गैर-बराबरी बढ़ती जा रही है और असमानता भी बढ़ रही है। ये कुछ ऐसी खामियां हैं जो विकास के प्रचलित माडल से जुड़ी हुई हैं। इसकी चुनौतियों और उसके विकल्पों पर विकल्प संगम में चर्चा की जाती है। इन विकल्पों पर जो जनसाधारण समुदाय,व्यक्ति या संस्थाएं काम कर रही हैं, उनके अनुभव सुने-समझे जाते हैं। सीखने, गठजोड़ बनाने और मिल-जुलकर वैकल्पिक भविष्य बेहतर बनाने की कोशिश की जाती है।

खेती का संकट हरित क्रांति की रासायनिक खेती से जुड़ा हुआ है। देशी बीज लुप्त हो रहे हैं। मिट्टी खराब हो रही है। पानी-बिजली का संकट बढ़ रहा है। मिट्टी-पानी का प्रदूषण बढ़ रहा है। यह बात कुछ हद तक सही है कि गेहूं-चावल का उत्पादन बढ़ा है लेकिन कई दलहनी-तिलहनी और ज्वार, बाजरा, सांवा फसलों की बलि दे दी गई है। 

उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ता विजय जड़धारी, जिन्होंने बीज बचाओ आंदोलन भी शुरू किया है, ने कहा कि खाद्य संगम की जरूरत पर विचार करना चाहिए। राज्य और केन्द्र की सरकारों ने ऐसी नीतियां बनाई हैं जिससे पौष्टिक और  विविधतायुक्त भोजन धीरे-धीरे मिलना कम हो गया है। हमारा चूल्हा कैसा होना चाहिए, बर्तन कैसे होने चाहिए, यह तय करने का अधिकार हमारा होना चाहिए।

जड़धारी ने कहा हमारे यहां मशरूम,हरी भाजियां जैसी कई चीजें जंगल से आती हैं। पशुओं का चारा जंगल से आता है। जंगल से पानी आता है। यानी जंगल पर हक चाहिए। भोजन को पशुधन और जंगल से जोड़ा जाना चाहिए, मिट्टी से जोड़ा जाना चाहिए। हमारे पास पीढ़ियों के अनुभव से अर्जित परंपरागत ज्ञान है। इस दिशा में जागरूकता आना जरूरी है।

 कल्पवृक्ष की तरफ से खाद्य संगम की आयोजकों में से एक शीबा डेसोर ने देश भर में जैविक खेती की पहल और अभियानों के बारे में बताया। शीबा ने कहा कि जैविक खेती किसान, संगठन,नेटवर्क सभी इस दिशा में काम रहे हैं। जैविक खेती कम सिंचाई और बिना सिंचाई दोनों तरह से की जा रही है। नीतियों के स्तर पर ओडिशा और छत्तीसगढ़ में अच्छा काम हुआ है। वहां जंगली भोजन को भी इसमें शामिल किया गया है। कई लोग इस पर अध्ययन कर बीज मेले कर रहे हैं।

शीबा ने बताया कि बीजों और पशु संबंधित विविधता पर भी काम किया जा रहा है। भारत बीज स्वराज संघ, लिविंग फार्म और बीज बचाओ आंदोलन इत्यादि इस दिशा में काम कर रहे हैं। सरकारी नीतियों में भी इस ओर कुछ झुकाव दिख रहा है। केरल में जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसलिए एक वैकल्पिक समाज की जरूरत है जिसमें उत्पादक और ग्राहकों में और शहर और गांवों में दूरी न हो।

मशहूर कृषि वैज्ञानिक डा. देबल देब, जो खुद यहां मुनिगुड़ा के पास किरंडीगुडा में 1300 देशी धानों की किस्मों के गुण-धर्म का अध्ययन कर रहे हैं (उनके 2 एकड़ वाले फार्म का नाम वसुधा है), संगम में विशेष तौर पर आमंत्रित थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में बताया कि 12-15 हजार साल पहले खेती की शुरूआत हुई। पहले कुत्ते व गधे को इंसानों ने पालतू बनाया। यह इंसानों की जरूरत थी। डा. देबलदेब ने बताया कि 1 लाख 52 हजार प्रजाति की धान के बारे में डा. रिछारिया ने बताया था। 1 लाख 10 हजार किस्में 1970 तक मौजूद थीं। अब केवल 7 हजार की प्रजातियां बची हैं। जीन बैंकों में प्रजातियों को बचाने की कोशिशें की जा रही हैं। लेकिन यह बीज किसानों को उपलब्ध नहीं हैं, कंपनियों को उपलब्ध हैं।

उन्होंने बताया कि पीढियों से किसान अपने अपने अवलोकन से बीजों का चयन करते थे। जो बीज थोड़ी सी भिन्नता लिए होते थे किसान उनका चयन कर लेते थे। ऐसा धान भी है जो 24-25 दिन तक पानी में जिंदा रह सकता है। जब सुंदरवन में बाढ से सभी फसलें तबाह हो गई थीं तब हम किसानों को 4 किस्मों का धान देने गए थे, उसकी उत्पादकता प्रति एकड़ 5 क्विंटल थी। धान की कई प्रजातियां हैं। इनमें सूखा रोधी, बाढ़ रोधी, नमक वाली भूमिरोधी किस्में शामिल हैं। बाढ़ रोधी ज्वार भी हो सकती है। 135 प्रकार के चावल में आयरन है। 27 प्रकार की भैंसे, 80 प्रकार के घोड़े देश में हैं। मारवाड़ी घोड़ा भारत से खत्म हो गया लेकिन अमरीका में मिलता है। हमारे यहां आम की 15 सौ  प्रजातियां हैं।

डा. देबलदेब ने कहा कि पारंपरिक खेती से सबका पेट भर सकता है। अगर देशी बीजों का इस्तेमाल करें तो उपभोक्ता और उत्पादक का फर्क मिट जाएगा। पहले दोनों किसान थे। दोनों में पारस्परिक संबंध थे। बुनकर, बढई आदि सभी उत्पादक थे। आपस में चीजों का आदान-प्रदान करते थे। किसान उगाते थे, वो खाते भी थे।

मुनिगुड़ा के गांव कुन्दुगुडा के एक आदिवासी ने अपनी मिश्रित खेती के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि मैंने 70 प्रकार की फसलें अपने खेत में लगाई हैं। मेरी 10 महीने की जरूरतें खेत से पूरी हो जाती हैं, दो माह का गुजारा जंगल से हो जाता है। यानी एक कटोरा खेत से, एक कटोरा जंगल से हमारा काम चल जाता है।

लिविंग फार्म के संस्थापक देवजीत सारंगी बताते हैं कि हम परंपरागत खानपान को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं। यहां 60 प्रकार के फल (आम, कटहल, तेंदू, जंगली काजू, खजूर, जामुन), 40 प्रकार की सब्जियां (जावा, चकुंदा, जाहनी, कनकड़ा, सुनसुनिया की हरी भाजी), 10 प्रकार के तेल बीज, 30 प्रकार के जंगली मशरूम और 20 प्रकार की मछलियां मिलती हैं। कई तरह के मशरूम मिलते हैं। पीता, काठा. भारा, गनी, केतान, कंभा, मीठा, मुंडी, पलेरिका, फाला, पिटाला, रानी, सेमली. साठ, सेदुल आदि कांदा (कंद) मिलते हैं।

यह भोजन पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इससे भूख और कुपोषण की समस्या दूर होती है। खासतौस से जब लोगों के पास रोजगार नहीं होता। हाथ में पैसा नहीं होता। खाद्य पदार्थों तक उनकी पहुंच नहीं होती। यह प्रकृति प्रदत्त भोजन सबको मुफ्त में और सहज ही उपलब्ध हो जाता है। खाद्य संगम में वैकल्पिक खेती, खाद्य संप्रभुता और अन्न स्वराज पर विस्तार से चर्चा हुई। इस अवसर पर लोगों ने स्थानीय खाद्यों से बनी चीजों का भी आनंद लिया। जैसे उत्तराखंड के झंगोरा की खीर, महुआ के पकोड़ा और 9 प्रकार के चावलों का स्वाद चखा। अंत में जी.एम. सरसों के खिलाफ प्रतिभागियों ने एक प्रस्ताव भी पारित किया।(सप्रेस)           

  श्री बाबा मायाराम सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र लेखक हैं।

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