संदीप पाण्डेय

कहा जाता है कि जब सत्ता और समाज प्रकृति के जीवनदायी संसाधनों की दुर्दशा की तरफ से मुंह फेर लेते हैं तो उनकी तरफदारी में आध्यात्मिक ताकतें खड़ी होती हैं। गंगा की बदहाली से निपटने और उसकी अविरलता बनाए रखने में भी हाल के सालों में सन्यासियों ने बीड़ा उठाया है।

जिस तरह किसान आंदोलन में अब तक तीन सौ से ऊपर किसानों ने शहादत दी है ठीक उसी तरह गंगा को बचाने के लिए अभी तक चार साधुओं का बलिदान हो चुका है। हरिद्वार के ‘मातृ सदन’ के साधु अब तक गंगा के संरक्षण की मांग को लेकर करीब 65 बार अनशन कर चुके हैं। इन अनशनकारी साधुओं की प्रमुख मांगें- गंगा में अवैध खनन रोकना, हिमालय पर गंगा और उसकी सहायक नदियों में बांध न बनाना, गंगा में गंदे नालों का पानी न डालना व गंगा के किनारे पेड़ न काटना आदि रही हैं।

गंगा को बचाने का संबंध सीधे किसान आंदोलन से इसलिए बनता है क्योंकि गंगा के पानी पर भारत की 41 प्रतिशत आबादी निर्भर है। उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड व पश्चिम बंगाल के गंगा घाटी में रहने वाले किसान गंगा के पानी से ही अपने खेतों की सिंचाई करते हैं। जाहिर है, किसान और गंगा बचाओ आंदोलनों को एक-दूसरे को मजबूत करना चाहिए।

गंगा को अविरल प्रवाहित रखने की मांग को लेकर पहला अनशन मार्च 1998 में स्वामी गोकुलानंद सरस्वती व स्वामी निगमानंद ने किया था। आखिरी अनशन वर्तमान किसान आंदोलन के दौरान फरवरी से अप्रैल 2021 के दौरान ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद व ‘मातृ सदन’ के प्रमुख स्वामी शिवानंद सरस्वती ने किया था।

सन् 2011 की 13 जून को देहरादून में 35 वर्षीय स्वामी निगमानंद ने गंगा में अवैध खनन को रोकने की मांग को लेकर अपने अनशन के 115 वें दिन ‘हिमालयन अस्पताल’ में दम तोड़ा। आशंका है कि स्वामी निगमानंद को अनशन के दौरान ऑरगैनोफॉस्फेट जहर का इंजेक्शन दिया गया। उस दौर में उत्तराखण्ड में ‘भारतीय जनता पार्टी’ की सरकार थी और इतने लम्बे अनशन के दौरान सरकार की ओर से वार्ता की कोई पहल नहीं की गई।

स्वामी गोकुलानंद, जिन्होंने स्वामी निगमानंद के साथ 4 से 16 मार्च, 1998 के बीच, ‘मातृ सदन’  की स्थापना के एक वर्ष बाद, पहला अनशन किया था, गंगा के लिए शहीद हुए थे। खबर थी कि वर्ष 2003 में जब वे बामनेश्वर मंदिर, नैनीताल में अज्ञातवास कर रहे थे तो खनन माफिया ने उनकी हत्या करवा दी। बाबा नागनाथ वाराणसी के ‘मणिकर्णिका’ घाट पर गंगा को अविरल व निर्मल बहने देने की मांग को लेकर अनशन करते हुए 2014 में शहीद हो गए थे।

गंगा के लिए बलिदान देने वाले सबसे विख्यात साधु 86 वर्षीय स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद रहे, जो सन्यास लेने के पहले गुरुदास अग्रवाल (जीडी) के नाम से ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान – कानपुर’ (आईआईटी-कानपुर) के प्रोफेसर व ‘केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ के पहले सदस्य-सचिव रह चुके थे। उन्होंने 22 जून, 2018 से गंगा के संरक्षण हेतु कानून बनाने की मांग को लेकर हरिद्वार में अनशन किया शुरु किया था। कुल 112 दिनों तक अनशन करने के बाद 11 अक्टूबर को ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान – ऋषिकेश’ में उनका निधन हो गया था।

स्वामी सानंद ने 13 से 30 जून 2008, 14 जनवरी से 20 फरवरी 2009 व 20 जुलाई से 23 अगस्त 2010 के दौरान क्रमशः तीन पनबिजली परियोजनाओं – ‘भैरों घाटी,’ ‘लोहारी नागपाला’ और ‘पाला मनेरी’ – को रूकवाने के लिए अनशन किए थे और उन्हें रूकवा भी दिया था। हालांकि ‘लोहारी नागपाला’ पर काफी काम हो चुका था, लेकिन उनके आग्रह पर भागीरथी नदी के शुरू के 125 किलोमीटर को परिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया था। उनका चौथा अनशन 14 जनवरी से 16 अप्रैल 2012 में कुछ चरणों में हुआ। पहले इलाहाबाद में फल पर, फिर हरिद्वार में नींबू पानी पर और अंत में वाराणसी में बिना पानी के जिसके बाद उन्हें ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान – दिल्ली’ में भर्ती कराया गया।

सन् 2013 में 13 जून से 13 अक्टूबर तक स्वामी सानंद ने फिर अनशन किया जिसमें 15 दिन जेल में भी गुजारने पड़े। उस समय ‘गंगा महासभा’ के अध्यक्ष जितेन्द्रानंद उनके पास भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह का इस आशय का पत्र लेकर आए थे कि यदि अगले चुनाव में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनेगी तो स्वामी सानंद की गंगा सम्बंधित सारी मांगें मान ली जाएंगी। किंतु मोदी सरकार ने स्वामी सानंद को काफी निराश किया। कांग्रेस की सरकार में स्वामी सानंद ने पांच बार अनशन किया, किंतु एक बार भी जान जाने की नौबत नहीं आई, लेकिन भाजपा सरकार के कार्यकाल में एक बार ही अनशन पर बैठने से उनकी जान चली गई। यह दिखाता है कि भाजपा सरकार किंतनी संवेदनहीन है, जैसा अनुभव किसान आंदोलन में भी हो रहा है।

स्वामी सानंद ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 24 फरवरी, 13 जून, 23 जून, 5 अगस्त व 30 सितम्बर, 2018 को पत्र लिखे जिनके कोई जवाब नहीं आए। अंततः उन्होंने अपना जीवन दांव पर लगा दिया। उन्हें ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान – ऋषिकेश’ में भर्ती कराया गया जहां उन्होंने एक माह बाद भी अनशन जारी रखा। उच्च न्यायालय के आदेश से वे दोबारा ‘मातृ सदन’ पहुंचे जहां से दूसरी बाद उन्हें पुनः ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ में भर्ती कराया गया। इस बार उनकी यहां मौत हो गई। केन्द्र सरकार की ओर से उनका अनशन समाप्त कराने की कोई कोशिश नहीं हुई, जिससे सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने जानबूझ कर स्वामी सानंद के अनशन को नजरअंदाज करने का फैसला लिया हुआ था।

23 फरवरी, 2021 से ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद स्वामी सानंद के संकल्प को पूरा करने की दृष्टि से अनशन पर बैठे। बीस दिन बाद पुलिस उन्हें उठा ले गई तो 13 मार्च से स्वामी शिवानंद सरस्वती ने अनशन शुरू कर दिया। पहले वे चार ग्लास पानी पर थे, फिर 2 अप्रैल, 2021 को मात्र एक ग्लास पानी पर आ गए। जब सभी को लग रहा था कि शायद स्वामी शिवानंद जी को अपना देह त्याग करना पड़ेगा, तभी केन्द्र सरकार के ‘जल संसाधन मंत्रालय’ से एक पत्र आया जिसमें ‘पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ से गंगा में खनन हेतु दी गई स्वीकृतियों को वापस लेने की संस्तुति की गई थी। ‘राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन’ के महानिदेशक राजीव रंजन मिश्र ने स्वामी शिवानंद सरस्वती को लिखे व्यक्तिगत पत्र में गंगा पर कोई नई जल-विद्युत परियोजना को अनुमति नहीं देने की बात कही और उनसे अपना अनशन समाप्त करने का आग्रह किया। इसके बाद 2 अप्रैल की आधी रात के बाद दोनों साधुओं ने अपना अनशन समाप्त किया। यह कोई अंतिम समाधान नहीं है। गंगा को बचाने के आंदोलन में ऐसा कई बार हो चुका है कि सरकार के वायदों पर साधु अनशन रोक देते हैं, किंतु फिर खनन को अनुमति दे देती है और साधु पुनः अनशन पर बैठ जाते हैं। (सप्रेस)

[block rendering halted]

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें